॥ १२॥ वाघोबा बस्ती पर नचंदी
रात ॥ १२॥
आकाश में झिलमिलाते नक्षत्र
!
पाषाण्या ने ऊँचे शिलाखण्ड
पर चढकर गर्जना की -- जय वाघोबा च्च्
सारे उसके चारों ओर गोलाकार
खड़े हो गए।
लाल्या आगे आया -- उसने कहा
-- जय पाषाण्या !
पाषाण्या ने हाथ ऊपर उठाया।
लाल्या तन कर खड़ा रहा। हाथ
में मोटा सोंटा भाँजता हुआ।
बाहू कसे हुए।
आँखे स्थिर।
बुढिया आगे आई। लाल्या का
मस्तक सहलाकर उसे चूम लिया।
सूखे थानों को हिचकोले देते
हुए वह ताली बजा बजाकर नाचने लगी।
होच् हो च्
सबने ताल पकडा।
लाल्या ने सोंटा घुमाते हुए
नाचना आरंभ किया। गति बढती गई।
अलाव की लकडियाँ धू धू कर
जलने लगीं।
नाचती हुई कई सू आगे आई।
उनके पीछे पिलू भी। उनमें आदमी भी आते रहे।
पाषाण्या ने अपने सूखे होठों
पर जीभ फेरी।
लाल्या नाचनेवालों का वृत्त
छोड़कर आगे आया।
अलाव -- उँची लपटें।
फुरफुर जलने वाली
लकडियाँ.... उनसे उड़ती चिंगारियाँ।
सारे व्यक्ति दो रात, दो दिन
भूखे।
नियम था।
नचंदी की रात से दो दिन पहले
कोई नहीं खाएगा। बलि दी जायगी। तभी खाया जा सकेगा।
यही नियम था।
नियमभंग हुआ तो वाघोबा की
कृपा जाती रहेगी।
टोली का विनाश होगा।
बली दिया जाने वाला आदमी एक
ऊँचे खंभे से लताओं के सहारे बांधा हुआ था।
ज्वालाकी परछाइयों के घेरे
में।
अब उसका आक्रोश थम चुका था।
लाल्या आगे बढ़ा। सोंटे के एक
ही प्रहार से बली की खोपड़ी तोड़ दी।
होच् होच् होच्
नृत्य चलता रहा।
ज्वाला की लौ बलि के शरीर से
भिड़ चुकी थीं।
उसका शरीर धड़ाम से गिरा।
अच्छी तरह भुना जाने लगा वह।
लाल्या पर उन्माद छा गया।
नाचते नाचते वह थक गया।
जय वाघोबाच् । उसने गर्जना
की।
जमीन पर औंधा लेटकर उसने
मुँह में मिट्टी भर ली।
पिछले दो दिन, दो रातें उसी
के थे।
आपने छोटे गुट के आगे चलने
के।
शिकार लाने के।
भूख में बिलबिलाते हुए फिरने
के।
बली ढूँढने के।
वह सारा उन्माद अब बाहर
निकला चाहता था।
वह रोने लगा। नाचने लगा।
धम्म् से नीचे बैठ गया।
मैं बली लाया। उसने गर्जना
की।
जमीन पर फिर से औंधा गिरा।
उसका शरीर थडथड उड़ रहा था।
पाषाण्या आगे बढ़ा।
उसने सहारा देकर लाल्या को
उठाया।
ज्वाला के प्रकाश में उसका
चेहरा चमका।
पाषाण्या ने अचानक उसे पास
खींचा।
उसे बाँहों में लेकर गले
मिला।
बस्ती के लोग रुक कर देखने
लगे।
प्रमुख एक ही बार किसी से
गले मिलता है।
अगला प्रमुख चुन लेने पर।
केवल उसी के साथ।
क्षणभर लाल्या को मूर्च्छना
आने लगी।
फिर उसका चेहरा खिल गया।
यही थी रीत। अब पाषाण्या के
मरने पर वही होगा टोली का प्रमुख।
एक थरथरी उसके बदन में दौड़
गई।
सबने गर्जना की-- होच् होच्
होच्।
बली के भूनने की महक चहुं ओर
फैल गई ।
सब हँस रहे थे-- नाच रहे थे।
लाल्या भी जड था-- लेकिन
खुशी से।
वह पाषाण्या के पास बैठ गया।
बुढिया ने अपना तेज नोक वाला
पत्थर उठाया।
आगे आई।
भुने हुए बली की दहिनी जाँघ
चीर कर एक माँसखण्ड अलग किया।
जोश से थरथराते हुए उसने
माँसखण्ड पाषाण्या को दिया। वह उसने लाल्या के मुँह में डाल दिया।
एक सुगंध। एक स्वाद।
वह चिल्लाया -- जय वाघोबा
च्।
पूरा झुण्ड अपने अपने नुकीले
पत्थर लेकर बली पर टूट पड़ा।
बली के साथ भूँजे जा रहे थे
हिरण, खरहे, सूअर।
केवल पाषाण्या और लाल्या
अपनी जगह जमकर बैठे हुए थे।
बलि का हिस्सा उन तक पहुँच
रहा था।
सबने आहार किया।
जो जुगने वाले थे, जुगे। सो
गए।
पाषाण्या उठ कर चल दिया।
लाल्या जाग रहा था।
जुगने के लिए आई चार सूओं को
ढकेल कर वह स्थिर बैठा रहा।
उसके जीवन में यह मोड था।
यह होना ही था।
टोली का मुखिया उसे ही होना
था।
और आज वही निश्च्िात हुआ।
वह धीरे धीरे उठ गया।
सर्वत्र नींद का साम्राज्य !
चमचमाते नक्षत्र। जो चंद्रमा
के न होने से खिल रहे थे। सन्नाटा !
अलाव अब मंद पड़ गया था।
नरबली की हड्डियाँ बिखरी पड़ी
थीं।
माँस का हर टुकड़ा जा चुका
था।
राख.....।
खोपड़ी उसी तरह थी। आँखों की
जगह अब गढ्ढे !
उसे किसी ने नही छुआ था।
वह खोपड़ी अब टोली के सीमान्त
पर लगाई जानी थी।
उसे मंत्रबल से भारित होना
था।
फिर उन मंत्रों से टोली को
शिकार मिलता रहेगा।
किस टोली का था यह नरबलि?
आज वह वापस नही पहुँचने वाला
था।
उसने राख को छेड़ा।
एक बड़ी हड्डी उसके हाथ आई।
उसे उलट पुलट कर देखा -- राख
झाड़ी।
वह जाँघ की हड्डी थी। मजबूत
!
उसके लकडी के सोंटे से भी
मजबूत !
टोली प्रमुख के नाते अब
लाल्या को ऐसा मजबूत हथियार चाहिए।
घुटने के बल बैठकर उसने
दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए।
वाघोबाच्। वह चिल्लाया। एक
बार, दो बार, तीन बार।
हड्डी को हाथों में नचाया।
उसे होठों से लगाया। फिर वहीं एक पेड़ के नीचे हाथों में हड्डी पकड़े वह लेट गया।
थकान से उसे तुरन्त नींद आ
गई। वह खर्राटे भरने लगा।
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॥ १३॥ फेंगाडया का नियमभंग ॥
१३॥
फेंगाडया अकेला बैठा था।
उसकी छाती धकधका रही थी।
पीछे नदी घों घों कर बह रही
थी।
पत्थर की कगार पकड़कर वह
थरथरा रहा था।
उंची, धूप में तपी देह कांप
रही थी।
उसने भडभड उलटी की।
आँखों के आगे लाल पीला रंग छा गया।
फिर स्थिर होकर उसने नदी का
पानी मुँह पर मारा।
थोड़ा शांत होकर वह पाषाणखण्ड
पर बैठ गया।नदी के बीच में पाषाणखण्ड।
बाँईं ओर से बहती हुई नदी
आगे जाकर आँख से ओझल गई।
सामने किनारा। जंगल।
उसी जंगल में है साथी का
प्रेत... सडता हुआ।
नियम यों ही नही बने थे।
जहाँ साथी को छोड़ आया, वहाँ
दुबारा जाना नही है।
आठ दिन, आठ रात -- वहाँ नही
जाना है।
फेंगाडया ने चिल्लाकर अपने
आपसे पूछा -- क्यों तुमने नियम तोड़ा?
थू।
अब जा, देख वह शरीर।
वह दुर्गन्ध। वे कीड़े।
वह मांस -- नुचा शरीर। वे
गढ्ढे पड़ी आँखें।
जा, देख जाकर।
आवाज घूमकर वापस उसी के पास
पहुँची।
दोपहर की शांति फिर से
गहराई।
देवा, यह साथी मेरे ही गुट
में था।
केवल जख्मी था। मरा नही था।
फिर क्यों नही लाया मैं उसे
गुफा में।
वह मर जाता तो मैं उसे खड़ा
गाड़ता।
सम्मान से।
उसकी मृत आत्मा को यों जंगल
में भटकते नहीं छोड़ता।
किसने बनाया नियम कि जख्मी
को छोड़कर भाग लिया जाए?
बापजी ने? या उसके बूढे साथी
ने?
क्यों किया ऐसा नियम?
खिन्न होकर वह वापस नदी में
कूदा और तैरते हुए किनारे तक आया।
साथी का शरीर पड़ा था उस जगह
से घूमकर वापस गुफा में आ गया।
भूख लगी थी।
लेकिन आज उसका ध्यान शिकार
पर नही था।
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