Wednesday, 23 November 2016

॥ ५३॥ पंगुल्या और उंचाडी ॥ ५३॥


॥ ५३॥ पंगुल्या और उंचाडी ॥ ५३॥

पंगुल्या की मूर्च्छा टूटने तक सुबह हो चुकी थी।
उसने आँखें खोली। मस्तक में वेदना की एक लहर दौड़ गई। कराह कर उसने फिर आँखें बन्द कर लीं।
कुछ देर में फिर आँखें खोलकर चारों ओर देखा। कोई नही था। पंगुल्या ने एक गहरी साँस भरी। घिसटते हुए वह झोंपड़ी तक आया। अंदर झांककर देखा।
उंचाड़ी पड़ी हुई थी। जाँघें खून से लथपथ.... नोचे जाने के घाव शरीर पर।
पंगुल्या ने साँस रोकी। आज यह अकेली है। और मैं भी अकेला।
सारे आदमी गए हैं शिकार लाने।
बापजी, बुढ़िया और सूएँ गए होंगे नदी की ओर।
जान बचानी है तो भागना पड़ेगा।
लाल्या का कोई भरोसा नही । फिर वार कर सकता है।
पंगुल्या कडुआहट से हँसा। आगे बढ़कर उसने उंचाडी को छुआ।
उंचाडी ने आँखों को कसकर बंद कर लिया। एक और आदमी।
पंगुल्या ने उसे झकझोरा। कष्ट से कराहकर उंचाडी ने आँखें खोलीं।
मैं पंगुल्या....।
उंचाडी ने देखा- यह आदमी, कल लाठी खाने वाला।
तू किस टोली की है?
मैं अकेली हूँ। टोली नही है। उसने क्षीण स्वर में कहा।
उदेती की टोली कहाँ है पता है?
धानबस्ती? उस तरफ है। उंचाडी ने हाथ से इशारा किया।
मैं जानता हूँ कहाँ है। पंगुल्या ने अधीरता से कहा। मैं जानता हूँ।
तू जानता है?
हाँ।
कहाँ है? क्या सच में है? उंचाडी ने अविश्र्वास से पूछा।
हाँ। पंगुल्या बुदबुदाया।
वहाँ भी........ ऐसा ही होगा। उंचाडी ने हताश स्वर में कहा और गर्दन फेर ली।
चलकर देखते हैं। पंगुल्या ने कहा- इससे और बुरा क्या होगा?
उंचाडी ने सिर हिलाया। पंगुल्या थोड़ा और आगे सरका।
तू बीच बीच में मुझे कंधे पर उठाकर चलना। मैं रास्ता बताऊँगा।
उंचाडी अविश्र्वास से हंसी।
गलत नही कहता मैं। पंगुल्या पूरे प्राण से उसे समझा रहा था। चल उठ....।
उंचाडी ने पैर मोड कर पेट के पास खींचे। सारे शरीर में वेदना दौड़ गई। उसने शरीर को ढीला छोड़ दिया।
आज नहीं......
पंगुल्या हताश हो गया।
नचंदी की रात आने में केवल पांच रातें बाकी हैं। ये केवल मैं जानता हूँ। केवल मैं.....।
उसके पहले चल निकल। वरना तेरी बली चढाएंगे इस नचंदी की रात को।
बली?
हाँ बली? हर नचंदी की रात को बाहर के एक आदमी या सू की बली देते हैं वाघोबा को। उसे अलाव में भूनकर खाते हैं।
उंचाडी पूरे शरीर में थरथरा उठी।
उठ..... आज....अभी। पंगुल्या ने उसका हाथ कसकर पकड़ते हुए सहारा दिया।



उंचाडी की छाती कंपकंपा रही थी।
आज..... अभी। पंगुल्या ने उंची आवाज में कहा। बहुत दूर नही.... थोड़ी ही दूर... एक गुफा है। मुझे पता है। वहाँ छिपे रहेंगे।
उंचाडी धीरे धीरे उठ बैठी। जांघों में फिर से टीस उठी।
लेकिन धैर्य से उसने कहा- ठीक है।
तो चलो अब। पंगुल्या ने फिर से कहा।
उत्साह में भरकर उसने बेलों की रस्सी में हड्डियाँ बांधी। उन्हें कंधे पर डाल लिया।
उंचाडी ने पूछा- ये क्या है?
पंगुल्या ने कहा- हड्डियाँ हैं मेरी।
उंचाडी ने उसे घूर कर देखा-
आदमी की हड्डियाँ।
वह फिर से कांपी।
किनकी है?
जिनकी बली दी गई उनकी। चल अब। नही तो तेरी हड्डियाँ इस पोटली में आ जाएंगी। पंगुल्या ने उसे आधार देकर उठाया। वह खड़ी हुई।
चल...... मुझे कंधे पर लेकर......। पंगुल्या ने उसे फिर से जमीन पर बैठाया।
वह उकडूं बैठ गई। पंगुल्या ने पीछे से उसके गले में बाँहें डाल दीं।
एक लम्बी साँस लेकर वह मंथरगति से उठी।
पंगुल्या की बताई हुई दिशा में चलने लगी।
शरीर दुख रहा था। लेकिन अब उसमें बल भी आ गया था।
धीरे धीरे उसकी चाल सहज होने लगी। उसमें गति आने लगी।
पंगुल्या आनंदित हो उठा। उसका हाथ उंचाडी के गाल थपथपाते हुए उसके थानों पर टिका।
उंचाडी कराही। उसने हाथ झटक दिया।
एक मोड आया। फिर एक चढाई आई।
अब चढो। इस चढाई से थोडी दूर दूसरा मोड है दहिनी तरफ। उसे पार करना है।
सूरज ऊपर आ गया...... चलता रहा..... और डूब गया।
उंचाडी चलती रही।
वाघोबा बस्ती कब की आँखों से ओझल हो चुकी थी।
इधर.....पंगुल्या से हाथ से इशारा किया।
अब जंगल घना हो गया था।
अंदर...... पंगुल्या बुदबुदाया।
कंटीली जंगली बेलों के अंदर उंचाडी घुस गई। सामने एक छोटा सा झरना बह रहा था।
यहाँ रुकते हैं। पंगुल्या ने कहा।
उंचाडी ने उसे जमीन पर पटक दिया। हाँफते हुए झुककर झरने के पानी में मुँह लगा दिया। लपालप पानी पीकर वहीं कीचड़ में औंधी पडी रही।
पंगुल्या ने आँखें मींच कर एक लम्बी साँस खींची। आकाश की ओर देखकर बोला- आज की रात एक नई रात होगी। चंद्र नया होगा- आकाश भी नया होगा।
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