॥ १४॥ फेंगाडया डरता है
अकेले पन से ॥ १४॥
सूरज डूबने में अभी देर थी।
गुफा सूनी थी।
फेंगाडया अपने पेड़ के नीचे
बैठा था।
घाटी की ओर एकटक देखता हुआ।
बापजी.....! किसने बनाया था
वह नियम?
गुफाको देखकर उसका पेट
मितलाया।
यह गुफा सबके लिये थी।
आज साथी को मरता हुआ छोड
आया। कल लुकडया।
फिर लंबूटांगी पिलू जनते हुए
मर जाएगी।
फिर पिलू भी मरेगा।
फिर वह अकेला रह जाएगा।
उसकी छाती में थरथरी उठी।
बापजी होता तो पूछता --
क्या साथी को इस तरह छोड़ आना
मानुसपन था?
खाली आँखों से वह घाटी को
देखता रहा।
अकेला रहना कैसा होता है?
साथ निभाने के लिए केवल यह
शरीर।
यह छाती में होने वाली धड़कन
- जो कुछ समझाना चाहती है।
और पेट की भूख !
अकेलेपन में ही दिन के बाद
दिन बीतेंगे और रात के बाद रात !
हरीण झुण्ड में रहते हैं।
बंदर भी टोली में रहते हैं।
पेड़ों के साथी पेड़ !
और पक्षी के लिए उसका
घोंसला।
फिर फेंगाडया क्यों अकेला
रहे?
क्यों मैं साथी को छोड़कर
आया? उसने अपने आप से पूछा।
कब सूरज डूबा, कब अंधेरा
घिरा, कब आकाश में नक्षत्र चमचमाने लगे -- उसे ध्यान नही रहा।
अभी तक लुकडया और लंबूटांगी
नहीं आए थे। कहॉ गए? कितनी दूर?
क्या उन्हें नरबली की टोली
ने पकड़ लिया?
या धानबस्ती का रास्ता मिल
गया?
उसने नथूने फुलाकर गंध
सूंधने का प्रयास किया।
कुछ नही था। जानवर की गंध भी
नही।
उसे लगा वह कहीं से अकेला ही
आया है इस धरती पर।
और चला जाएगा अकेला ही।
वह उठा और गुफा से चकमक
पत्थर निकालकर उसने आग जलाई।
आग तापते हुए बैठ गया।
चंप्रमा निकला। बाहर अब
ठण्डी हवा चलने लगी।
अंदर आकर वह घास पर लेट गया।
बाहर आग जलकर बुझ गई।
नक्षत्र जागते रहे।
हवा भी जागती रही- घों
घों........।
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॥ १५॥ धानबस्ती पर कोमल और
बाई ॥ १५॥
कोमल ने आकाश की ओर देखा।
एक चमचमाती तारिका।
वह सिहर गई।
पूरा आकाश, चंद्रमा, अंधेरा,
सब सिमट कर उसके पास आ गये।
उसके पेट की तारिका ने थोड़ी
हलचल की।
कोमल ने धीरे से पेट पर हाथ
फेरा।
हाँ, वहाँ एक पिलू पनप रहा
था। हिल डोल रहा था।
कोमल ने सुना था -- आकाश की
कोई तारिका कहती है --
मुझे धरती पर जाना है।
वह पिलू बन जाती है।
किसी सू के पेट में रहने
लगती है।
कोमल ने गर्दन को झटका दिया
तो मुलायम केश पेट को सहलाने लगे।
उसने आकाश की तारिकाओं से
कहा --
तुम्हारी सहेली यहाँ मेरे
पेट में पल रही है। बढ रही है।
अब हाथ पाँव फेंक रही है।
छिपाकर रख्खा है मैंने उसको।
थककर कोमल पीठ के बल लेट गई।
पेट में पिलू फिर हिलता
डोलता रहा। सुख से उसने आँखें मूँद लीं।
उसे झिंजी याद आई।
अभी कुछ ही दिन पहले उसे गाड
दिया था।
आखरी मिट्टी कोमल ने ही डाली
थी। यही नियम था।
झिंजी का सफेद धप्प चेहरा-
सारा रक्त निकल गया था।
झिंजी की याद से कोमल थरथरा
गई। हुमस हुमस कर रोने लगी।
एक खुरदुरा हाथ आकर उसके
चेहरे पर टिक गया।
बाई... कोमल ने आँखें खोली।
बाई बैठ गई। कोमल का सिर गोद
में रख लिया।
उसका पेट सहलाया। बोली --
तू भी मेरे पेट में थी --
इत्ती सी।
तू जिएगी, कभी सोचा नही था।
लेकिन तू बच गई। बडी हुई।
फिर रक्तगंध से महक गई।
और अब तू पिलू भी जनेगी।
अब चुप हो जा।
कोमल बुदबुदाई- क्या अब बच
पाऊँगी।
बाई ने गर्दन हिलाई-
हम सू हैं --
कोई आदमी नही हैं कि जानवरों
जैसी रहें।
आदमी बढते हैं तो ताकद आती
है।
वह चाहिए केवल धान काटने के
लिए और शिकार के लिए। जुगने के लिए।
इस पाषाण जैसा उनका जीना।
उसपर कुछ नही उगता।
लेकिन हम सू हैं। हमारा जीना
धान की मिट्टी जैसा।
हम हैं इसी लिए आकाश के
नक्षत्र धरती पर उतर आते हैं।
पेट में जडें जमाते हैं।
फिर पिलू बनकर उगते हैं।
बढते हैं।
हमें मरना पड़ता है पिलू जनने
के लिए।
लेकिन मर कर भी सू नही मरती।
क्या नदी मरती है? नक्षत्र
मरते हैं?
धान मरता है?
नही - वे बीज बनकर बार बार
जीवन में आते हैं।
कोमल शांत हो चली।
बाई की आँखों से आँसू टपके।
जा कोमल, तू भी जब जाना तो
आकाश में नक्षत्र बनकर मुझे देखना।
और दुबारा जनमेगी ते ऐसी
कोमल मत रहना।
कोमल ने गर्दन हिलाई।
और आकाश से बातें करना री
मुझसे।
बाई ने उसे अंक में भर लिया।
दोनों रोती रहीं।
बाई का पेट उसके पेट से सट
रहा था।
अंदर पिलू बनी तारिका बाई के
पेट से लिपट रही थी।
बाई ने उकडूँ बैठकर हाथ से
कोमल का पेट धीरे से दबाया।
अंदर की हलचल को पढती रही।
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