एक था फेंगाडया
उपोद्घात -- आरंभ एक कथासूत्रका
सहस्त्रों ऋतुचक्रों के पहले पृथ्वी तल पर भटकने वाले आदिमानव के पहले पगचिह्न।
असीम जंगलों
में बाघ, वराह, भैंसे आदि हिंस्र पशुओं का राज, उन्हीं जंगलों में अपने आपको जिलाए
रखने को धडपडाता मानव समूह।
आग की खोज हो
चुकी है। बांस को बांस से मिलाकर एक आसरा 'झोंपड़ी' के नाम से खड़ा किया जा सकता है।
लेकिन दीर्घकालीन सुरक्षा के लिए अब भी पहाड़ियों की नैसर्गिक गुफा ही अच्छी है।
मानव अब टोली
में रहने लगा है- लेकिन अकेला भी रहता है। अकेला आदमी, अकेली स्त्री। तब स्त्री के
लिये प्रचलित शब्द है- सू। वे अपनी अपनी स्वतंत्रता के साथ जी रहे हैं।
समाज नामक
सुनियोजित व्यवस्था का जन्म तक नहीं हुआ है। लेकिन उसकी आहट आ चुकी है। टोलियाँ बन
रही हैं-- उनके नियम बन रहे हैं-- मानव कल्पना छलांग लगाकर देवीदेवता, भूत, शैतान
तक पहुँच चुकी है। टोलियों में जीवन अधिक सुरक्षित है। यही सुरक्षा अकेले भटकने
वाले पुरुष को, सू को इशारे कर रही है-- आ जाओ, तुम्हारा भी स्वागत होगा।
लेकिन समूह की
ओर जाने वाली दिशा को निग्रहसे ठुकराते हुए कई पुरुष और कई सू आज भी अकेले अकेले
ही जी रहे हैं। कभी कभी वे दो-तीन-चार मिलकर रहने लगते हैं। लेकिन टोली से अपनी
भिन्नता को बनाए रखने का निश्चय लेकर। कई सू अकेली रह रही हैं- बच्चे जन रही हैं,
उन्हे पाल रही हैं, उन्हे बड़ा कर रही हैं। आगे वे बच्चे जो चिंतन स्वीकारना
चाहें-- स्वीकारें, अकेले, स्वतंत्र रहने का या छोटे गुट में रहने का, या टोलीगत
जीवन का।
लेकिन लड़ाई
जारी है, उससे अभी पीछा नहीं छूटेगा। यह लड़ाई अभी हजारों वर्षों तक चलेगी। मानव
चाहे अकेला हो, या गुट में या बड़ी टोली में। उसे अभी लड़ना है-- भूख के साथ और मरण
के साथ। भूख आती है हर नए दिन नए आवेग से। मरण आता है किसी बाघ, वराह या भैंसे के
रूप में।
मानव की लड़ाई
जारी है.........इसी कालखण्ड में हमारा कथानक घटित हो रहा है, नदी के आधार से बन
रहे एक समाज में। उसी के आस पास की
टोलियों और गुटों में।
यह नदी विशेष
है।
उसके किनारे पर
कुछ वर्षों से एक बिल्कुल ही अलग तरह का समाज पलने लगा है। विचित्र नाम है उसका,
और विचित्र हैं उसकी रीतियाँ।
नाम है उसका
धानबस्ती।
नदी के किनारे
है एक अलग तरह की जमीन, मृदुल, उपजाऊ।
उपजाऊ?
हॉ, और नर्म।
वहाँ उग रहा है..... धान।
उग रहा है?
धान?
क्या हैं ये
सारे शब्द?
यह है मानव
जाति का अगला कदम। दो तीन सहヒा वर्षों में सारी मानव जाति इसी दिशा में जाने वाली
है।
यहाँ प्रमुख है
एक स्त्री....... एक सू। धानवस्ती पर सबका स्वागत है। निश्चय ही, धानबस्ती के
वृत्तांत फैल रहे हैं। दूर दूर तक के समूहों में इसके किस्से जा चुके हैं। कोई
आश्र्वासित है तो कोई चकित और कोई संशयित।
धानवस्ती को
अपनी दाहिनी ओर रखते हुए नदी आगे एक विशाल डोह में समा गई है जो एक पहाड़ की तलछटी
में है। उसका रास्ता रुक गया तो वह पूरी की पूरी घूम गई, अगला मार्ग ढूँढते हुए।
उसके साथ साथ चलना हो तो धानबस्ती को पहले पहाड़ चढ़ना होगा। लेकिन अभी वह तलछटी में
ही टिकना चाहते हैं, वहीं अपनी जड़ें जमाना फिलहाल सही है।
धानवस्ती से
दूर........ बहुत दूर, डूब-डूब दिशा में बाघी टोली भी है। नरभक्षक बाघी टोली। हर
दो चार ऋतुचक्रों के साथ साथ यह टोली धीरे धीरे उदेती की ओर सरक रही
है। नये शिकार और नई नरबलि की खोज में। हर नचंदी रात को (जब चंद्रमा न हो, अमावस्या) एक नरबलि देने की
प्रथा है इनकी।
दोनों टोलियों
के बीच है विस्तीर्ण पहाड़ी भू भाग, जंगल झाड़, नदी, गुफाएँ, उनमें बसे अन्य मनुष्य-
कोई एकाकी, कोई दो-तीन के गुटों में। बाघ, वराह और भैंसों से जूझते हुए, हिरन,
खरगोश का शिकार करते हुए, मरण को धता बताते हुए, जीवन का हुंकार भरते हुए।
धानवस्ती के
ऊपर दुर्गम पर्वतराजी में एक गुफा है।
गुफा में बैठा
है एक बलाढय, विशालबाहू पुरुष। सामने अलाव जल रहा है।
रात निबिड,
किर्र....... की आवाज लिए हुए।
उसके सामने
थरथराता एक बालक। तिरछी टाँगोंवाला, फेंगाडया, लम्बा, सींक की तरह दुबला।
जंगल की
पगडंडियों पर कुछ ही देर पहले उस अजस्र मनुष्य के सामने आ गया था।
उसका पेट अब भर
चुका है। थरथरी भी कम हो गई है।
अलसाई, उनींदी
आँखों से उस अजस्र मनुष्य को देख रहा है।
मनुष्य की
आँखें स्वच्छ, शांत, अथाह। डोह के पानी जैसी।
अचानक उसके
चेहरे पर हँसी फूट पड़ती है। अलाव के उजाले में चेहरे की हलचल साफ दीख पडती है।
वह बालक से
कहता है-
आज से तू मेरे
पास रहेगा। मैं, तेरा बापजी। और तू........ , फेंगाडया।
-----------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment