॥ ४०॥ धानबस्ती पर कोमल ॥ ४०॥
नियम के अनुसार पहले दो दिन पायडया ने धान भेजा था।
आज चौथे दिन कोमल खड़ी हुई थी। चेहरा पीला, मुरझाया हुआ।
सुबह उग रही थी।
कोमल खडी रही। फिर एक पाँव बढाया...... फिर दूसरा.....।
वह हाँफ गई। एक पत्थर पर बैठकर लम्बी सांस लेने लगी।
रक्त अब भी बह रहा था। लेकिन जरा जरा सा।
वह सिहर गई।
दो रात, दो दिन वह बिना हिले डुले पडी रही। ताकद इकट्ठी करती रही।
पहले दिन पायडया ने उसे खप्पर में पकाया धान ला दिया था। उसे खाकर भूख मिटाते हुए कितना अच्छा लगा था।
कई बार वह धान के मैदान में गई थी।
नया धान उगते हुए, उसमें बालियाँ लगते हुए देखा था।
धान- जैसे धरती के पिलू। तब नही समझी थी वह। आज समझ रही थी।
पिलू देकर वह भी धरती की तरह हो गई थी।
धरती के ये पिलू उसकी जीवन बचा रहे थे।
उसने हुंकारा भरा।
आदमी को ये धरती के पिलू जिलाए रख सकते हैं।
ताकद दे सकते हैं।
धान खाकर वह जी गई है।
पेड़ के पिलू.... उसके फल।
धरती के पिलू.... यह धान।
सब जिलाए रखते हैं आदमी को, सू को.....।
और सू के पिलू? वे सू बनते हैं या आदमी।
सू हो तो बडी होकर वह भी पिलू देती है कुछ ऋतु के बाद! और मर जाती है।
आदमी का पिलू हो तो बढता जाता है।
उसे ताकद आती है।
शिकार करता है। ढेर सा खाना खाता है।
जुगता है। अलग हो जाता है।
लेकिन किसी काम का नही। पिलू नही जन सकता है।
फिर जनमते हैं किस लिए?
कोमल फिर हंसी।
लेकिन उपयोग है। जुगने के लिए। साथ के लिए।
काम भी करते हैं.... धान के खेत में।
बाँस लाने में......।
पायडया भी आदमी ही है। लेकिन उसी ने धान भेजा..... पिलू भी वही ले आया पेट के बाहर।
लकुटया भी आदमी है। सोटया भी आदमी है।
वे भी धानबस्ती के काम आ रहे
हैं।
औंढया ने यों ही नही बनाया
है आदमी को।
सूरज उपर आ गया। आकाश में
भरे बादल भी थे। लेकिन अभी वर्षा नही थी।
गिरते पड़ते कोमल उठी। पैर
खींचती हुई बस्ती की ओर चलने लगी।
चांदवी इधर उधर घूम रही थी।
उसी ने कोमल को देखा।
वह चिल्लाई- कोमल।
बाई चौंक गई। पलभर वह अपने
आप पर विश्र्वास नही कर पाई। कोमल पिलू जनकर भी जीवित रही? उसने आनंद से अपनी छाती
पीटी-- औंढया की कृपा।
पायडया ने भी चांदवी की हांक
सुनी। वह दौड़ आया। सीधा कोमल की तरफ।
कोमल को उठाकर उसने कंधे पर
डाल लिया और दौड़ने लगा बाई की तरफ।
सारे जमा हो गए। आनन्द से
छाती पीटने लगे।
पायडया के पीछे दौड़ने लगे।
बाई ने अब नाचना शुरू किया।
गोल गोल......।
ताली बजा कर।
पायडया ने कोमल को नीचे उतार
दिया। इतने श्रम से वह हांफने लगी। बेसुध होने लगी।
बाई कोमल के पास आकर बैठ गई।
अंगुलियों से कोमल का थान दबाया। दूध निकल आया।
बाई चिल्लाकर बोली- पिलू
लाना।
चांदवी पिलू लेकर आई। वह नई
नवेली सू पिलू आंखें बंद किए मुट्ठी चूस रही थी।
बाई ने पिलू को लिया। संभाल
कर उसे कोमल की छाती पर औंधा रख दिया।
कोमल सुध में आई। पिलू के
हाथ पांव की हलचल से उसे सुख होने लगा।
पिलू ने सिर घुमाया। इधर उधर
ढूँढ कर थान को पा ही लिया। उसे चूसने लगा। अधाशी(?) की तरह।
आनंद से सारे झूमने लगे।
कोमल को घेर कर नाचने लगे।
बाई पालथी मारकर पिलू को
संभाले बैठी रही।
कोमल ने अतीव सुख में भरकर
उसे देखा।
बाई ने सिर हिलाया।
पिलू जनना, जनकर जीवित रहना,
पिलू को अपने थान से दूध पिलाना..... यह नया अनुभव। कोमल ने बाई को देखा। बाई यह
कर चुकी है। उसे पता है ये सब।
आगे बढकर कोमल को चूमते हुए
बाई की आवाज रुंध गई- मेरी पिलू।
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