॥ ३॥ बापजी का संवाद अपने
आपसे ॥ ३॥
भरी दोपहरी।
तपता सूर्य।
उसकी गर्मी को पी चुकने के बाद अब उसी में जलते हुए पहाड़ों
के काले पत्थर।
कातल
कहता था बापजी उन्हें।
फल खाकर और पानी पीकर बापजी का पेट फूल गया था।
शिकार नहीं मिली थी कितने दिनों से। उसने गर्दन हिलाई।
अकेला।
कोई साथ नहीं। कोई सू भी नहीं।
बाघ जब फाड़ खाएगा तो पास कोई नहीं होगा।
वह हंसा।
तुझे टोली नहीं चाहिए। आँ।
फिर कहाँ से मिलेंगे साथी या सू ?
रहना था धानवस्ती में।
अपार त्वेष से बापजी ने थूक दिया।
फिर गर्दन हिलाई और आँखे मूँद लीं।
उसे दीख रही थी धानवस्ती।
कितने ऋतु? कितने ऋतु ढल गए उस घटना को।
फेंगाडया मिला उससे भी पहले की बात है।
बापजी, गया था तू धानवस्ती में।
सुना था, धानवस्ती में सबका स्वागत होता है।
तेरा भी हुआ था, बापजी। झूठ मत बोल, स्वागत हुआ था तेरा भी
धानवस्ती में। बापजी पुटपुटाया।
हाँ, किया था स्वागत। कई सूओं ने, पायडया ने, बाई ने भी किया था स्वागत।
रहना था वहीं। मिल जाती वह सू भी। सावली नाम था उसका वही
अगली बाई बननी तय थी।
बापजी हँसा।
धानवस्ती पर रह जाता, वहाँ से भाग कर नहीं आता तो आज की बाई
का पुरुष बन जाता।
बापजी फिर थूक दिया।
लेकिन तुझे टोली नहीं चाहिए थी। टोली के नियम नहीं चाहिए
थे। अकेलेपन की स्वतंत्रता चाहिए थी।
फिर रहो यूँ ही अकेलेपन में।
भूख से पेट फिर बिलबिलाया तो बापजी व्याकुल हो गया।
फिर से भरमा गया।
फिर से देखने लगा धानवस्ती .... सारे पिलुओं को लेकर, सारी
सूओं को लेकर, औंढया देव के पेड़ के पास बैठकर पायडया कथा कह रहा है..
धानवस्ती की कथा... धान बनने की कथा.., धान के खोज की कथा।
वेदना से बापजी फिर भिनभिनाया। अंगूठे की टीस अब क्षणभर भी
रुकने नही दे रही।
पीडा से आँखों अंधियाने लगीं।
डर कर उसने आँखें खोलीं तो लगा सारा जंगल धूम रहा है।
उसने फिर से आँखे मूँद लीं। कसकर।
कूल्हे के नीचे कातल अब जलने लगा था।
किसी तरह लुढक कर वह पहुँचा जंगल की छांव में।
वहीं औंधा पड़ा रहा।
गरम लू के थपेडे उसे जलाते रहे।
ग्लानि में वह बुदबुदाया-- अगर आज फेंगाडया होता साथ के
लिए।
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