॥ ९॥ बापजी दूर से उंचाडी को
देखता है ॥ ९॥
बापजी ने दोनों हाथों से
कपाल पर आड़ की।
आँखों पर सूरज के धूप की
चकाचौंध कुछ कम हुई।
पर्वत की कगार से नीचे झुककर
देखा।
नीचे घाटियों की गहराई में
एक सू तेजी से जा रही थी।
वह भरे पूरे ऊँचाई की थी।
गठी हुई बलिष्ठ देह की।
अकेली? बापजी बुदबुदाया।
उसे लगा- आवाज दे उस सू को।
लेकिन वह थमक गया।
कैसे निश्च्िात हो कि वह
अकेली है?
कहीं वह नरबली टोली की हुई
तो?
उसने दुबारा नीचे झाँका।
एक पिलू बंदर की तरह टणाटण
कुलांचे भरता हुआ उसके पीछे चल रहा था।
बापजी की छाती कसमसाई।
वह बैठ गया।
गए, बापजी। वे दोनों ही गए।
बीते ऋतुओं की बात थी। बापजी
ऐसी अकेली सू को, अकेले पिलू को अकेला नही छोड़ता। उन्हें सहारा देता।
लेकिन अब बापजी बूढ़ा हुआ।
अब ताकत कहाँ है?
अब कैसे पुकारे उनको?
फेंगाडया आज होता, तो यह हो
सकता था।
आज वह भी नही है। तूने ही
छोड़ा है बापजी उसे।
अपने आपसे बातें कर लेने पर
बापजी कुछ शांत हुआ।
देर तक वैसे ही शून्यता से
बैठा रहा।
अंधेरा घिरने लगा तो वह उठा।
करौंदे के अनेक झुरमुट थे।
उन्हीं में एक जगह उसने
ढूँढी -- जहाँ चारों ओर कटीले करौंदे थे लेकिन अंदर थोड़ी साफ जगह थी।
वहीं जगह बनाकर वह लेट गया।
उसे फिर वह उंचाडी सू याद
आई। वह और उसका पिलू -- जा रहे होंगे धानवस्ती की तरफ। हाँ धानवस्ती की तरफ।
वह थूका। अपनी ही कल्पना से
खुश हो गया। धानबस्ती को जानेवाला हर प्राणी क्षुद्र था उसकी आँखों में। और वह
स्वयं -- श्रेष्ठ।
अकेली सू, साथ में उसके पिलू।
कितने ऋतु इस जंगल में अकेले रह सकते हैं?
यह अपनी बात भी खरी है।
वह फिर हँसा।
बापजी हमेशा खरी बोलता है।
खरी सोचता है।
इसी लिए बूढा होकर भी मरा
नही अबतक। वह कह सकता है, मैं बस्ती में नहीं जाऊँगा। अकेला रहूँगा।
आज तक उसका अपने आप से संवाद
हमेशा चलता रहता है।
यह संवाद चलता है, तब तक
बापजी है।
यह बुझेगा उस दिन बापजी भी
खतम हो जाएगा।
बापजी पलटा, पीठ के बल पड़ा
रहा।
ऊपर आकाश। पत्तों की
चित्रकारी और टुकड़े टुकड़े बँटा आकाश।
बादल चले जा रहे थे।
पवन चल रही है। उसका अंगूठा
अब भी टीस रहा है।
गर्दन के पीछे एक लकड़ी और
कुछ पत्तों का उभार भी तकिए का काम करा है।
गर्दन के नीचे छाती में एक
जानवर रहता है जो बोलता है -- धक् धक् धक् धक्।
एक छाती में ऐसे कितने जानवर
एक साथ रहते हैं और बजते हैं?
बापजी हँसा।
उसके मन में उठने वाले
अनगिनत प्रश्न।
लेकिन बतियाने को आज
फेंगाडया साथ नही है।
उसने आँखें बंद कीं।
फेंगाडया की कमी। टीसता
अंगूठा। दर्द जैसे हजार कांटे बन कर पूरे शरीर में चुभने लगा।
फेंगाडया च्च् हो। उसने हांक
लगाई।
वह भरमाया -- शायद फेंगाडया
यहीं है।
अपने पास बैठा है।
उसके विशाल कंधे.....बलिष्ठ
शरीर..... चमकीली आँखें।
उसके शरीर की ऊष्मा मानों
आसपास ही है।
बापजी जब जवान था -- वह भी
तो फेंगाडया ही था।
उसे एक बार जंगल में एक बूढ़ा
मिला।
उसने बूढे का उठाया.... गुफा
में ले आया...... शिकार दी खाने को।
बाद में बूढ़े में ताकत लौट
आई।
वह फल ढूँढकर और खरगोश मारकर
खाने लगा। अपने को जिंदा रखने लगा।
बूढ़ा बापजी से पूछता --
बेटे, पता है मानुस बनना
क्या होता है?
मानुस बनना? क्या होता है
यह?
कभी परमात्मा की आवाज सुनी
है?
बापजी सिर हिलाता।
अच्छा, यह आकाश की नीलाई
देखकर छाती में कुछ होता है?
या सू देखकर?
या पिलू का रूदन सुनकर?
वह छाती का भर आना ही मानुस
बनना है। वही है परमात्मा की आवाज -- अपनी छाती में। परमात्मा की आवाज, हर मानुस
में नही होती। लेकिन तेरे पास है। तू बापजी है।
हर टोली में एक बापजी होता
है।
होना ही पड़ता है।
वही सहारा देता है सू को,
पिलू को।
बूढे की बातें याद करते करते
बापजी फिर पलटा- एक बाँह पर सोने लगा।
यह मानुस बनना.....
फेंगाडया, तुझे बताया था एक दिन।
लेकिन अभी बहुत कुछ बताना
बाकी रह गया था।
वह बूढ़ा मर गया।
अब मैं बूढ़ा हो चला।
मैं बापजी हुआ। अपना झुंड
बढाया। और अब छोड दिया।
बापजी कराह उठा। अंगूठा अब
भीषणता से टीस रहा था।
बूढ़े ने कहा था -- यह मानुस
बनने की बात आगे तक पहुँचानी होगी।
नया बापजी ढूँढना -- तभी
मरना।
बापजी धडपडाते हुए उठा।
करौंदे की जाली से बाहर आया।
थरथराते हुंए खड़ा रहा।
खाने के लिए कुछ ढूँढना
होगा। अपने को जिलाए रखना होगा।
धीरे धीरे चलकर वह एक झरने
के पास पहुँचा।
फेंगाडया...! मैं जिऊँगा।
तुझे छोड़ दिया था तब। लेकिन अब फिर तुझसे भेंट करूँगा। तभी मरूँगा।
आकाश की तरफ हाथ फेंकते हुए
वह बोला -- बस्ती आदमी के लिए नही है फेंगाडया।
वह है सू के लिए। पिलू के
लिए।
आदमी को छोटा झुंड ही चाहिए।
वरना उसका मानुस बनना रूक
जाता है।
वह निरा जानवर रह जाता है।
अपने अंदर की आवाज न सुन
सकने वाला जानवर।
बस्ती में आदमी के लिए है
केवल जिंदा रहना, जुगना, खाना और मर जाना।
अंदर की आवाज सुनने का मौका
नही है -- न अनुमति।
यह तुझे बताना है फेंगाडया।
यह बताऊँगा, तभी मरूँगा।
धीरे धीरे वह पलटा।
सामने घास चरता हुआ खरहा।
देवा.....। वह पुटपटाया।
एक ही छलांग में उसने खरगोश
को पकड़ लिया। फिर उकडूँ बैठकर एक पत्थर से पीट पीट कर खरहे
को मार डाला।
अंगुली चाटते हुए उसने खून
में लथपथ मांस का एक टुकड़ा जीभ पर रख्खा।
उसके स्वाद में डूब गया।
धीरे धीरे चबाकर, चखकर वह
पूरा खरगोश खा गया।
फिर झरने पर झुककर पानी में
मुँह लगाया।
सुख से भरकर उसने गर्दन ऊपर
उठाई। आकाश में नक्षत्र चमचमा रहे थे।
वह वापस करौंदे के झुरमुट
में आया।
पीठ के बल पडा रहा।
यह ऐसी रात देखो, आपस में
बतियाते नक्षत्र देखो
तो लगता है कि वह अकेला नही
है।
वह बुदबुदाया --
दूर नही है बापजी, सुन।
यहीं कहीं तेरे पास...
किसी गुफा में ही होगी वह
उंचाडी।
अकेली होगी।
और अपनी गुफा से वह भी
इन्हीं नक्षत्रों को देख रही होगी।
उसने एक लम्बी सांस छोड़ी।
जाने दो..... देखने दो उसे
नक्षत्र...या खा जाए कोई बाघ उसे।
एक ओर मुडकर उसने आँखें मूँद
लीं।
नींद आने तक हवा का भिन्नाना
सुनता रहा।
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