॥ ५७॥ फेंगाडया की अच्छी-बुरी सोच ॥ ५७॥
फेंगाडया दौड़ता चला जा रहा था।
अब रुक गया।
बहुत दूर आ चुका था उन आदमियों के झुण्ड से।
हाँफते हुए बैठ गया।
सारी बातें फिर से दीखने लगीं।
वह टोली तेज तेज चालवाली थी। और सावधान भी।... मानों सामने कोई शिकार हो। लेकिन वहाँ जानवर तो कोई नही था।
फिर वह तेज चाल? वह सावधानता?
उदेती की दिशा में। क्या धानबस्ती की ओर?
वह पीछे के पत्थर से टेक गया।
सिहर उठा।
यह हलचल। यह भी मनुष्य की हलचल।
दूसरे मनुष्य को मारने के लिए। बली देने के लिए।
बली?
किसे चढाते हैं? क्या देव को?
उसने मनुष्य को सांस दी। जीवन दिया- मनुष्य को.... सू को।
तो मनुष्य देव को क्या दे?
बली का नियम? मरण?
क्या यह उसे अच्छा लगेगा?
पेड के पत्ते मुझे सरसराहट सुनाते हैं।
मैं उसी की डाल तोडूँ? उसी के नीचे रखूँ और कहूँ - ले ये बली?
फेंगाडया चकरा गया।
आज शिकार नही। भूख.... बढ रही है।
गुफा में आदमी राह देख रहे हैं।
और तू यहाँ बैठा है सोच लेकर?
बली जाने वालों का दुख लेकर?
अपने को भूखा रखकर?
फेंगाडया, तू एक बात कर सकता है।
यहाँ से गुफा को मत जाना।
यह कर सकता है तू।
फिर से अकेला हो सकता है तू।
अपनी भूख भर शिकार कभी भी मिल सकती है।
उसे लगा- भाग जाऊँ यहाँ से.... दूर।
वह थरथरा गया।
यह जो सोच रहा है, क्या ये सही है?
उसे एक रात की याद आई जब पत्त्िायों की सरसराहटसे उसे हरषाया था।
भाग जाने का अर्थ होगा-- उस
सरसराहट से अलग हो जाना।
फेंगाडया ऐसा नही करेगा।
देव ने उसे सरसराहट से
होनेवाले आनंद की लहर दिखाई है। उसे छोड नही सकता।
एक हुंकार भर कर वह उठा।
उसे लुकडया का विचार आया।
लम्बूटांगी का आया। गहरी आंखों वाली कोमल का आया।
देवाच् तू ही है पत्त्िायों
की सरसराहट।
तू ही है मेरी आवाज।
तूने फेंगाडया को उठाया और
पेड की डाली से चिपकाया।
अब फेंगाडया की भूख तेरी है।
वह उठा और दौङता हुआ गुफा की
ओर चल दिया।
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