॥ ५०॥ वाघोबा टोली को बापजी भड़काता है ॥ ५०॥
रात आई। आकाश में चंद्रमा उदित हुआ। मंद हवा चलने लगी।
बापजी के सामने कई आदमी बैठे थे। लाल्या पाषाण्या भी थे।
उदेती की टोली...... अच्छी थी।
बापजी ने कहानी आरम्भ की।
लोग धान बोते थे, काटते थे, खाते थे।
बापजी ने अधखुली आँखों से देखा। लोग एकाग्र होकर कहानी सुन रहे थे।
कभी कभी मेरे जैसा अकेला आदमी भी वहाँ जाता था।
पंछी की तरह उसे बुलाते थे। धान के दाने खाने को दे देते थे। खाकर हम वापस लौट आते।
तुम गए थे वहाँ?
हाँ।
कब?
बहुत ऋतु बीत गए। बापजी ने
कुछ विचारते हुए कहा।
फिर?
बहुत ऋतु बीते। वहाँ एक नई
बाई प्रमुख बनी। उसे जुगने वाला एक आदमी भी था।
.....................
उसने कई हड्डियाँ इकट्ठी
कीं। एक हड्डी थी शैतान के जानवर की।
सुनने वाले थर्रा गए।
तबसे वह टोली बदल ही गई।
बापजी ने अपने पांवों की
अदला बदल की। फिर भी सामने बैठी सभी स्तब्ध।
पंगुल्या खिद खिद कर हंसा।
हड्डियाँ रखने से शैतान बस
में होता है?
मेरे पास हैं ढेर सी
हड्डियाँ। छोटी, बड़ी, टूटी हुई और साबुत भी। क्या मैं तुम्हें शैतान दीखता हूँ?
बापजी ने साँस रोक ली। मन ही
मन कहा- अब पंगुल्या का मरण पास आ गया।इसके प्रश्न रुकते नही हैं।
फिर आगे कहने लगा-
इसके लिए क्या करना पड़ता है?
नचंदी की रात को एक जुगने
वाला रीछ पकडना पडता है।
उसे मार कर उसका मांस खाओ।
हड्डियाँ चबाओ फिर मंत्र पढते हुए नाच करो। मंत्र से मृतात्मा का आह्वान करो।
तब शैतान बस में आता है।
सबने गर्दन हिलाई। सबकी
आँखों में एक भय.... एक उन्माद।
पंगुल्या फिर खिद खिद हंसा।
सारे चौंक गए।
चार आदमी उठे। पंगुल्या को
घेर लिया।
एका ने उसे उलटे हाथ से
थप्पड़ मारी। पंगुल्या की आंखों के सामने अंधेरा छा गया।
माथा टेक........। लाल्या
गुरगुराया।
पंगुल्या थरथराने लगा।
घिसटते हुए बापजी के पैरों में माथा टेककर कूल्हे घिसटते हुए दूर जा बैठा।
बापजी ने लाल्या की ओर देखा।
गर्दन हिलाई।
लाल्या उठा। लाठी संभालता
हुआ बढा।
जैसे बिजली चमके, ऐसे एक बार
उसकी लाठी कौंध गई।
पंगुल्या औंधा गिरा और
निष्प्राण पडा रहा। सारे कांप गए।
पाषाण्या उठा। उसकी
मुठ्ठियाँ भींची हुई थीं और आँखें लाल।
वह दौडता इससे पहले बुढिया
सामने आ गई।
टोली के शंकालुओं के लाड
करना छोडो। वह अपनी कर्कश आवाज में चिल्लाई।
बापजी ने हाथ उठा दिया।
लाल्या फिर आगे आया। उंची
आवाज में बोला-
बापजी हमारा गुरु है......
आज से।
वह बोलता है, मृतात्माओं के
साथ.......। वह ठीक कहता है। कोई उसके आडे नही आएगा।
यदि आया तो उसे मार डालूँगा।
पाषाण्या मानों अपनी जगह पर
चिपक गया।
बापजी हंसा।
जाने दो..... ये सारे छोटे
हैं....... पिलू हैं।
मैं बड़ा हूँ तो समझाने का
काम भी मेरा ही है।
गला खँखार कर एक बार फिर
उसने कहानी आगे बढाई।
वह बाई....... प्रमुख हुई और
शैतान भी हुई।
फिर उसने आज्ञा की--
वाघोबा टोली का मरण।
वाघोबा टोली की हरेक सू को
जुगो। अपनी टोली में लाओ। और हर आदमी को मरण।
पूरे चंद्रमा के दिन रक्त
माँस से जमीन लथपथ कर दो।
फिर धानबस्ती को धान मिलता
रहेगा। धानबस्ती कभी नही मरेगी।
मृतात्मा उसे सदा जीवित
रखेंगे। हमें मंत्र मिलेगा।
फिर जानवर, शिकार अपने आप
चलकर हमारे पास आ जाएंगे।
फिर भूखा नही रहना होगा। फिर
मरण भी दूर रहेगा।
लेकिन यह होना हो तो वाघोबा
बस्ती का मरण चाहिए। उसके आदमियों की बली चाहिए।
सारे फिर थर्रा गए।
लाल्या ने लाठी उठाई। उसके
चार साथी खडे हुए। एक कोने में थरथराती उंचाडी को सामने खींचा।
वह चीखी। इतर सूएँ हँसने
लगीं।
बापजी कडुआहट से भर गया। यही
सू उस दिन देखी थी...। जंगल में.. उसके पिलू के साथ।
आ गई इनकी पकड में। और इसका
पिलू?
वह काँप गया।
यह धानबस्ती की है। जुगो
इसे। लाल्या चीखा।
हमारी सूओंको जुगने की बात
करते हैं।
लाल्या उसके मुँह पर थूका।
धर लो इसे।
आदमी चारों ओर जमा हुए।
बुढिया ने उंचाडी का माथा दबाकर रख्खा।
लाल्या उससे जुगने लगा।
एक सू खिदखिदाई।
बापजी को भ्रम हुआ...
चंद्रमा, मंद हवा, जंगल और यह सू।
उसका सर धूम गया।
एक ही क्षण। फिर संभल गया।
यह टोली भी मरनी चाहिए। मैं
मारूँगा...
बापजी घुटने में सिर देकर
थरथराता रहा।
लाल्या अलग हुआ।
उसके बाद कई। एक एक करके।
उंचाडी की चीखें उसके कानों
तक आती रही।
देख बापजी देख.....। आदमी
टोली में रहा तो कैसा जानवर बन जाता है।
आदमी के मन में एक पेड़ पनपने
लगता है।
उस पेड का नाम - मैं।
फिर इस 'मैं' का पेड बड़ा या
उस 'मैं' का बड़ा।
फिर दोनों की टक्कर। आदमी को
आदमी के रक्त का स्वाद।
कष्ट से बापजी उठा और धीरे
धीरे चल दिया।
बेसुध औंधे पडे पंगुल्या से
उसका पैर टकरा गया। एक करुणा बापजी की छाती में भर गई। वह बुदबुदाया--
पंगुल्या यों बापजी के आडे
आए?
कितना समझाया--
तेरे पास दिमाग है। आँख कान
हैं। तू सोचता है।
इन जानवरों जैसा नही है तू।
लेकिन फिर भी नही माना
पंगुल्या।
अरे, तू भी तो एक पिलू ही
है। और मुझसे भिड़ गया?
तू कोई फेंगाडया है? ताड
जैसा उंचा तगडा? कि तू मुझे आडे आए? इतना सा विचार नही किया तूने?
जीभ बहुत चलती है तेरी। कहा
था, दबाकर रख उसे .. नही तो मारा जायगा।
बापजी आगे बढा।
झोपडी के पास थमक गया।
बांस से बांस टिकाकर बनाई गई
झोंपडी। उस पर सूखे पत्ते और कीचड़ का लेप।
वह अंदर घुसा। औंधा पड गया।
बाकी टोली की चाहे जो
बुराइयाँ हों- लेकिन टोली में ही झोंपडी है- झोंपडीकी गर्मी है। वह हँसा।
भरमा गया तू बापजी.... भरमा
गया।
कई दिन.... कई रात। तू भी इस
तरह बैठ कर खाता रहा.......
तो पूरा भरमा जायगा तू।
अब भी झटपट कुछ कर। वह जोर
से बोला।
नही तो पता है क्या?
बापजी को टोली अच्छी लगनी
लगेगी।
और जाके जुग लेगा उस बुढिया
से।
कहेगा- क्या बुरा है?
वह हँसा। देखता रहा अपना
भैंसे जैसा ताकदवर जीवन।
वहाँ नही थे नरबली...... नही
था उंचाडी से क्रूर जुगना। उसकी चीखें ।
देर तक बापजी जागता रहा।
बाहर ठण्डी हवा बहने लगी तो
हाथ पांव सिकोड़कर, सूखे पत्ते शरीर पर लेकर बापजी सो गया।
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