Wednesday, 23 November 2016

16+17+18 ॥ १६॥ फेंगाडया देखता है एक नया दिन ॥ १६॥ +

16+17+18
॥ १६॥ फेंगाडया देखता है एक नया दिन ॥ १६॥

रात भी आज गरम ही थी।
सारा दिन ढूँढकर भी उसे कोई शिकार नही मिली थी।
चढाई पार कर फेंगाडया समतल पठार पर आ गया।
छाती धपधप कर रही थी।
आज उपवास।
कानों ने एक हलकी सी आवाज सुनी। झाडियों में कुछ खुसफुसाहट।
वह तन गया। स्तब्ध खड़ा रहा। लाठी तौलते हुए।
चाँदनी चारों ओर पसरी हुई।
सारे जंगल को चमचमाती हुई।
हवा थमी हुई।
पत्ता पत्ता तक तनाव में था। स्तब्ध।
बड़ा जानवर नही था।
खुसफुसाहट हल्की सी थी।
साँप की नही थी। बंदर की भी नही।
हल्की सी गुरगुराहट।
वह धीरे से मुड़ा।
आँखों के कोने से बाँई ओर झाडियों की हलचल देखी।
वह आगे आया। बिना आवाज किये।
झाडियों में एक झटके से अपनी लाठी घुसेड दी।
टुण्ण्‌ से छलाँग लगाते हुए बाघ के दो बच्चे बाहर आये।
फेंगाडया चौंककर पीछे सरक गया।
प्रतीक्षा में पैंतरा लेकर खड़ा हो गया।
लेकिन बड़ा जानवर नही आया। बाघिन नही थी झाड़ी में।
केवल दो बच्चे। छोटे से। फिस्स्‌ फिस्स्‌ से उसे डराने वाले।
अब दोनों ने हल्के से गुरगुराना भी आरंभ कर दिया था।
फेंगाडया ने फिर से लाठी तौली।
आज भूख के लिए सूअर नही, हिरन भी नही.....।
आज बाघ।
वह हँसा।

उसकी नजर दोनों बच्चों पर।
दोनों का गुरगुराना जारी था।
दोनों की आँखे अपलक।
तीनों की नजरें मिलीं।
क्या बाघिन आदमी के पिलू को मारती है?
वह हँसा।
बच्चे देख उसकी छाती भर आई। कुछ बजने लगा वहाँ।
उसकी आँख के सामने आया भूख और डर से थर थर काँपता हुआ फेंगाडया और झाड़ी से उसे बाहर खींचकर, बाँहों में समेट लेने वाला बापजी।
उसने गर्दन हिलाई.....। नही।
बच्चे को मारना? क्यों?
क्या उनसे भूख मिटेगी?
वह थूक दिया।
फिर मुड़ा और दौड़ गया।
बाघिन होगी कहीं पास ही।
उसकी पहुँच से दूर आकर वह रूक गया।
दहिनी ओर नदी का कलकल शब्द। बाँई ओर नई उतराई।
उतराई में कहीं दूर से उठती हुई धुएँ की हल्की रेखा।
अलाव के धुएँ की रेखा।
लुकडया और लंबूटांगी गुफा में वापस लौट चुके थे।
हो हो हो च्च्च्
पेट सिकोडकर वह चिल्लाया।
उसकी हाँक चारों ओर फैल गई।
वह कान देकर सुनने लगा।
लुकडया की हाँक आई- ओ ओ ओ च्च्
फेंगाडया धप्प से उतराई की दिशा में कूद गया। उसके मजबूत, लम्बे पैर लय में दौड़ने लगे। दोनों हाथों से रास्ते की बेलों को दूर करते हुए वह जा रहा था।
चमकती आँखों में आशा भरी हुई।
अन्तिम छलाँग लगाकर वह गुफा तक पहुँचा।
लुकडया अलाव के पास नाच रहा था।
अलाव के अंगार लाल फूलों से चमक रहे थे।
लंबूटांगी खिलखिलाकर हँसती हुई औंधी पसरी थी।
लम्बी साँसों को संभालते हुए फेंगाडया उसके पास जा बैठा।
लुकडया भी नाच रोककर थमक गया।
आग में सूअर भुन रहा था।
सूअर? आज लुकडया ने सूअर मारा?
फेंगाडया हँसा। वाहेच्वाहेच्वाहेच्वाहेच्
वह खुशी से चिल्लाया।
लुकडया भी फेंगाडया के पास उकडूँ बैठ गया।
फेंगाडया नथुने फुलाकर भुने हुए माँस की सुगंध समेटने लगा।
अलाव के पास सरक गया।
लंबूटांगी उठकर दोनों के बीच आ बैठी।



नही। फेंगाडया की गर्दन हिली।
आज उसे कोई शिकार नही मिली थी।
लुकडया ने दोनों हाथ उँचे उठाये।
डूब डूब दिशा में एक जानवर.....। दौड़ता हुआ....सूअर।
थमक गया मेरे सामने आकर। मानों कोई मंत्र फेंका हो मैंने।
खड़ा हो गया....मार मुझे।
लुकडया ने एक बार आकाश की ओर देखा।
देवा। एक ही वार में मार गिराया मैंने उसे।
लुकडया हँस रहा था। उसकी खुशी थमने वाली नही थी।
फेंगाडया के पाँव थक गये थे। शरीर दूख रहा था।
भूख और थकान उसे डंख मार रहे थे।
आँखें मूँदकर वह औंधा लेट गया।
लपटों की गरमी शरीर में धँसने लगी।
एक हाथ उसकी पीठ पर फिरने लगा।
स्पर्श। उष्मा।
उसकी छाती में धड़धड़ हुई।
लुकडया का हाथ था।
पीठ पर लेटकर फेंगाडया ने उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं।
लुकडया उकडूँ बैठा हुआ।
तैयार। उसने कहा।
फेंगाडया की थकान उतर चुकी थी।
उसने उठकर लुकडया को बाँहों में भर लिया।
लंबूटांगी पास आई। सूअर की खाल छीलने लगी। दाँतों से फाड़ने लगी।
अलाव के प्रकाश में उसकी देह झिलमिला रही थी।
सफेद महकते फूलों की माला उसके थानों पर डोल रही थी।
उसकी हलचल पर उसके थान भी हिल रहे थे।
फेंगाडया की आँखें उनमें अटक गईं।
लंबूटांगी को उसकी ओर देखे बिना ही उसकी आँखें दीख गईं।
वह थूकी।
जो शिकार लाएगा वही उस रात पहले जुगेगा। यही है नियम।
पेंगाडया ने गर्दन घुमा ली।
लुकडया उठा। उसने लंबूटांगी को खींच लिया।
दोनों गुफा के मुहाने पर ही घास में पसर गए। आवेग से जुगने लगे।
अलाव के पास फेंगाडया अकेला। हाथ में भुने हुए सूअर की टांग। लुकडया के शिकार की।
उसने लंबूटांगी का खिलखिलाना सुना।
आँख उधर उठ गई।
वह तन गया।
लंबूटांगीने लुकडया को भींच लिया।
यह एक नियम। जो शिकार लाएगा सू पहले उसीकी। फेंगाडया बुदबुदाया।
लेकिन दूसरा नियम भी है.....। वह थूका।
जो लडकर जीतेगा सू उसकी ।
फेंगाडया तडाक से उठा।



बस एक डग आगे और लंबूटांगी उसकी।
लेकिन उसके पाँव नही उठे।
सामने दोनों खिलखिला रहे थे। जुग रहे थे।
फेंगाडया की पीठ पर लुकडया के उष्माभरे हाथ का स्पर्श। भूखसे बिलबिलाते पेट में उसकी लाई हुई शिकार।
अनजाने ही फेंगाडया घुटनों पर बैठ गया। आकाश में हाथ फेंककर बोला--देवा ---
लंबूटांगी और लुकडया रमे हुए थे।
फेंगाडयाकी आँखें शांत होतीं चली गईं। अब वह दोनों को कौतुक से देखने लगा।
अचानक सिहर  गया।
ऐसा भी दिन आ सकता है जब वह कौतुक से लंबूटांगी और लुकडया को देख सके?
लुकडया को मारने के लिए उसका एक ही वार चाहिए।.
और लंबूटांगी है सू। उसे वह कभी भी दबोच सकता है।
फिर यह कोई नई भाषा आज मुझे सिखा रहा है तू, देवा....।
हाँ नई भाषा.....
सू की पथरीली आँखों की भाषा.......
लुकडया के स्पर्श के उष्मा की भाषा...।
जो वह चाहता है उसे मना करने की।
सोचा था कभी कि ऐसा भी दिन आ सकता है?
अपने आप को ना कहने का?
वह थरथराता रहा।
बापजी, तूने सिखाया यह सब.....
यह मानूसपना।
जो छीना जा सकता है उसे ना कहनेवाला।
क्यों नही लेना? क्यों कि किसीको चाहिए।
यह अपने आप को समझाना.... ये है मानूसपना।
तू कहता था कठिन है ये मानूसपना।
एक भैंसा मारना सरल है लेकिन मानूसपना कठिन।
वहाँ वे दोनों जुग रहे हैं और यहाँ मैं थरथराता हुआ अपने आप को ना कह रहा हूँ।
दुखाता है ये मानूसपना।
वह गदगदाता रहा।
लुकडया की हाँक आई।
फेंगाडया च्च्....वह पुकार रहा था।
लंबूटांगी औंधी पडी उसकी राह देख रही थी।
चाँदनी में दोनों के शरीर साँप की तरह लहरा रहे थे।
जुगना... अलग हो जाना...।
यही है जीवन की हलचल।
क्या आदमी, क्या साँप। सबके लिए। फेंगाडया पुटपुटाया।
अलाव एक बार फिर धधकने लगा।
फेंगाडया उठा। ताडताड चलते हुए दूर अपने पेड के नीचे बैठ गया।
नहीं जुगना पथरा जानेवाली सू को।
वह शांत पडा रहा।
पैरों की चाप आई। लुकडया पास आया।
फेंगाडया के माथे पर हाथ रखा।
उठा और नाचने लगा।
लंबूटांगी दौडती आई।
झुककर फेंगाडया का माथा चूम लिया।
फिर हँसती, ताली बजाती वह भी नाचने लगी।
फेंगाडया की छाती में कुछ हिला।
उनका आनंद लहराकर उसे छू रहा था। आनंदित कर रहा था।
यह आनंद का बोझ उसकी छाती पर असह्य हो गया।
यह बोझ भी नया था। दूसरे की भावना का बोझ।
आ च् हा च्..... चिल्लाकर वह उठा।
लुकडया को एक हलकी चपत लगाई।
वह थोडा पीछे सरका। फिर नाचने लगा।
दोनों को हटाकर फेंगाडया अलाव के पास लेट गया।
दोनों उसके पीछे पीछे आए।
फेंगाडया.....फेंगाडया.....
दोनों नाचते रहे।
थक कर गुफा में चले गए।
रात गहराई। हवा चलने लगी। अलाव उसे तपाता रहा।
फेंगाडया अपनी ही साँस को सुनता रहा।
धीमी, शांत लय।
यह जो भावना थी, क्या थी।
सुख देनेवली...
यह सुख..... जो सू के साथ जुगने से आगे है....
भूख में सूअर खाने से भी आगे।
एक ही सुख इतना बडा होगा....
अगर आकाश से यह चाँदनी नदी को जुगे और अलग हो ले.......
हाँ, वही सुख इसके जैसा होगा।
वही साँस इतनी शांत होगी।
एक अपार ढीलापन उसके शरीर पर छा गया।
उसे गदगदाने लगा।
देवा च्च्..। उसकी सिसकारी निकल गई।
---------------------------------------
॥ १७॥ बाघोवा बस्ती पर पंगुल्या का जय लाल्या कहना ॥ १७॥

पंगुल्या चढाई चढ गया था। सीधा हो गया।
दहिना पैर घसीटते हुए चलने लगा।
पहाड़ पर एक बंजर, सपाट मैदान दूर तक फैला हुआ था और बीचों बीच था वह अकेला वृक्ष।
उसका वृक्ष... महारुख।
उसका महारुख देखना हो तो आकाश के पार तक ऊँचा देखना पड़ता है।
सूरज काफी ऊँचा चढ चुका था। पेड की परछाँई लम्बी पसरी हुई थी।
वह परछाँई तक पहुँचा।
आँखें चमकने लगीं।  
हैं, वहीं है। परछाँई उसी हिस्से में है जैसा उसने सोचा था।
यह हिस्सा है वर्षा ऋतु का।
तीन ऋतु घूम कर परछाँई वापस पाई है इस हिस्से में।
रोज दहिने जाने वाली परछाँई एक दिन रूक जाती है। वापस बाई ओर आने लगती है। आते आते इस वर्षा ऋतु वाले हिस्से में आ जाती है।
अब कुछ दिनों तक जंगल में झमाझम बारिश होगी।
पंगुल्या का मन खुशी से नाच उठा।
'सूरज एक तरफ एक टक देखो तो आँखें अंधिया जाती हैं।' वह सूरज को तकता हुआ बुदबुदाया।
आँखें अंधिया गईं। उसका सोचना ठीक था।
पैरों की चाप.....।
सामने लाल्या खड़ा।
उसने थाड् से एक थप्पड़ पंगुल्या को मारी। पंगुल्या भिन्ना गया। लडखड़ाने लगा।
लाल्या थूका।
मैं प्रमुख बनूँगा तो तेरी ही मानुसबली दूँगा।
पंगुल्या थरथराने लगा।
मंत्र पढता है...। क्या करता है यहाँ आकर?
पंगुल्या ने उसे छाँव का किनारा दिखाया।
यह छाँव....। सूरज के प्रकाश में रोज अपनी जगह बदलती है।
लाल्या छिटककर पीछे कूदा। जैसे साँप सूंघ गया हो।
उसने दोनों हाथों से लाठी तौली।
थू। पंगुल्या, इतने दिन चंद्रमा पर मंत्र डालता था। अब सूरजदेव पर? तू शैतान........।
एक दिन आदमी, पेड़, पक्षी, नदी, सब पर मंत्र फेंकेगा तू।
कहेगा- मैं, मैं ही प्रमुख।
लाल्या चिल्लाया। उसने लाठी ऊँची की। पंगुल्या कांप उठा। बोला --
मत मारो।
मैं मंत्र पढूँगा। तुम्हारे लिए।
पाषाण्या पर मंत्र फेंकूंगा।
उसने लाल्या के घुटने छुए और चिल्लाया- जय लाल्या।
लाल्या कुछ ढीला हुआ। लाठी नीचे झुक गई।
पंगुल्या हँसा। फिर चिल्लाया-
जय लाल्या।
अब कुछ ही दिनों की बात.....कुछ ही रातें।
फिर जय पाषाण्या नही। फिर होगा जय लाल्या।
पंगुल्या आगे आया।
भुँई पर लोटते हुए उसने लाल्या के पैरों पर माथा टेका।
लाल्या पीछे हटा। लाठी पर हाथ की पकड़ अब भी मजबूत।
पंगुल्या लडखड़ाते हुए उठा। लाल्या को देखता हुआ। छाती में धड़धड़।
मरेगा वह आज? या जियेगा?
लाल्या ढीला पड़ा। मरना है क्या तुझे?
थूककर वह चल दिया- ताड् ताड् .....!
थरथराते हुए पंगुल्या बैठ गया।
नहीं, आज मरना नही था।



वह पुटपुटाया -- कौन आदमी है जो जय कहने से खुशता नही है?
लाल्या कोई अपवाद है? लाल्या कोई अलग है?
वह पागलों की तरह हँसता रहा।
जानवर....लाल्या जानवर है।
मंत्र।
अरे, यदि पाषाण्या को मार डालने का मंत्र होता,
तो तुझे ही नही मार डालता मैं?
फिर मैं ही कहता -- जय पंगुल्या।
वह हँसता रहा।
ये आदमी सारे.......जानवर हैं सब।
वह थूका।
अपना उकेर पत्थर उठाया -- आगे की ओर तेज धार वाला।
पेड़ की छाँव पर उसने लकीर उकेरी।
फिर उसी लकीर को पकड़ते हुए पेड के तने पर लकीर उकेरी।
वैसी कई लकीरें पहले भी तने पर उकेरी थीं उसने।
आज भी लकीर की जगह से सफेद दूध निकलने लगा। वहीं और उकेर कर उसने बादल बनाया।
उसकी छाती की धड़कन बढ़ गई।
क्यों गिनती कर सकता है वह? क्यों आता है उसे दो और दो चार गिनना?
क्यों वही देख पाता है छाँव की जगह बदलने का खेल?
क्यों वही उकेर सकता है बादल को पेड़ के तने पर?
क्यों फूटता है यह झरना उसी की छाती से?
झरना... जिससे समझ फूटती है।
लेकिन झरने का इस तरह फूटना कौन देख पाता है? उसकी टोली में ऐसा कोई नही जिसे वह बता सके अपनी समझ।
यह झरना... मर जायगा यह पंगुल्या के साथ।
उसने गर्दन हिलाई।
नही, झरना नही मरेगा।
यह पेड़, ये लकीरें, यह तने पर उकेरा हुआ बादल... ये नही मरेंगे।
ऋतुओं के बाद ऋतु बीतेंगे।
पिलू के बाद पिलू जनम लेंगे।
कोई यहाँ आयेगा।
यह पेड़, ये लकीरें, यह बादल देखेगा।
उसकी छाती में भी झरना फूटेगा।
वह कहेगा- जय.......
पंगुल्या हँसा।
जय तो कहेगा, लेकिन कैसा जानेगा कि मेरा नाम पंगुल्या था?
फिर भी कहेगा जय....! कौन था वह जिसकी छाती में पहली बार झरना फूटा?
जय....।
अपनी तंद्रा में पंगुल्या बौरा गया।
सूरज जलाने लगा तो वह उठकर पहाड़ी उतरने लगा।
---------------------------------------------------------------------

॥ १८॥ धानबस्ती पर पायडया याद करे बापजी को ॥ १८॥

पायडया और लकुटया मोड तक आ गये।
यहाँ से चढ़ाई आरंभ होती है।
दोनों चुप थे।
इसी मोड़ पर रखवाली करने वाला बस्ती का एक आदमी कल रात भाग गया था। बस्ती छोड़ कर।
भागने वाला पकड़े जाने के लिये नही भागता है। लेकिन यह जानना होगा कि वह भागा है।
जखमी होकर आजू बाजू में हीं गिरा तो नहीं? यह जानना होगा।
पगडण्डी सँकरी हो चली थी। दोनों ओर से उँचा उठता हुआ पर्वत।
पायडया रुका। साँस साधने लगा।
सूरज ठीक माथे पर आकर तप रहा था।
पायडया ने पीछे मुड़कर देखा।
नीचे, बाँई ओर, पठार पर, नदी किनारे बनी हुई झोंपडियाँ।
धानबस्ती।
यहाँ से भागना हो तो दो ही रास्ते थे।
एक- इस उठते हुए पर्वत को पकड़कर ऊपर चढनेपर।
दूसरा--   बस्ती के पीछे से पर्वत श्रृंखला चढनेपर।
वह रास्ता उदेती की ओर जाता है। उधर कोई नही भागने वाला।
उधर जंगल सघन हो चला था। वे रास्ते धानबस्ती में किसी ने देखे नही थे।
शिकार के लिये धानबस्ती के लोग इधर, इस पठार पर ही आते थे। सारा इलाका उनका छाना हुआ था।
इधर से भागना कठिन नही था।
उस पर वह आदमी रखवाली के लिये रात में इधर ही आया था।
पायडया और लकुटया दूसरी ओर से उतर कर नीचे के मोड़ पर आये।
दूर दूर तक कोई नही दीख रहा था। कोई प्रेत नही। कोई दुर्गन्धि नही।
आकाश में मँडराने वाले कोई चील या गीध नही।
स्तब्धता।
थोड़ी दूर तक अंदाज लगाकर पायडया वापस लौटा। दोनों फिर एक बार निचले मोड़ से चढ़ाई चढकर ऊपरी मोड़ को जाने लगे।
केवल आदमी भाग जाते हैं- केवल आदमी। अब तक एक भी सू या एक भी पिलू नही भागे हैं बस्ती से। पायडया अपने आपसे कहने लगा।
हाँ, बाई की सत्ता चुभती है उन्हें।
आँ? लकुटया ने चौंक कर पूछा।
बाई का हुकम चुभता है। पायडया फिर चिल्लाया।
थू.... जानवर कहीं के।
भूलते हैं कि बाई.....सू......पिलू जनती है तब आदमी बनता है।
ये......ये.... आदमी।
माना ताकत है इनके पास। भैंसे जैसी ताकत।
लेकिन उपयोग क्या है?
बस्ती को बढाना है तो आदमी की ताकत का क्या उपयोग?
आदमी से बोलो-
जाओ, जाओ रे जानवर।
नदी के उस पार जाकर बस्ती बढाओ। निकाल पाएगा वह कोई पिलू अपनी जाँघों के बीच से?



उसके लिए आदमी के भैंसे सी ताकत किस काम की?
आँ? लकुटया ने फिर पूछा।
दूर जंगल की गहराई में देखता हुआ पायडया फिर बोला-
सू का सब कुछ निराला ही है।
लकुटया के कंधे पर पायडया के मजबूत हाथ आ पड़े थे।
औंढया देव खुश हो जाता है किसी सू से।
हर पूरे चंद्रमा की रात को चांदनी झरती है।
वह सू के पेट में समा जाती है।
वहाँ से नक्षत्रों को बुलाती है, पिलू बनने के लिए।
फिर रक्त का झरना फूटता है।
उसकी गंध से मृतात्मे आते हैं।
सू को अपनी भाषा सिखाते हैं। उसे पिलू जनने का मंत्र देते हैं।
किसी किसी सू पर मृतात्मे प्रसन्न हो जाते हैं।
उसे जीवन का मंत्र देते हैं।
फिर पिलू जनकर भी वह मरती नही है।
वह बाई हो जाती है।
क्या कोई आदमी बाई हो सकता है?
लकुटया ने गर्दन हिलाई। पायडया, तुझे यह सब कैसे मालूम है?
मेरी छाती से आवाज आती है- कहती है मुझे सुन। मुझे सुन।
फिर मैं सोचने लगता हूँ। तब ये बातें जानने लगता हूँ।
पायडया चुप हो गया। लेकिन जरा ठहर कर फिर आवेश में आया।
आदमी यह भूल जाते हैं। कहते हैं-
यहाँ बाई का ही हुक्म है।
मैं स्वाधीन नही।
मनचाही सू से जुग नही सकता।
बाई कहे वह काम करने पडते हैं। बस्ती के लिए जीना पड़ता है।
अरे, ये सूएँ मरती हैं बस्ती के लिए।
और इन भैंस से बिफरे आदमियों से जिया नहीं जाता बस्ती के लिए।
कहते हैं- ये जानवर कहते हैं- जंगल ही अच्छा है। और भाग जाते हैं।
पायडया ने फिर गर्दन हिलाई।
आदमी है ही जानवर।
बस्ती का सुख भी उसे चुभता है।
नियम नही चाहिए उसे। बाई के नियम नही चाहिए।
वह बापजी भी ऐसा ही था- जानवर।
मुझे.....मुझे जानवर कह कर गया।
बड़ी बाई पर थूक कर गया।
पायडया क्रोध से थरथराता रहा।
लकुटया उसे देखता ही रह गया।
फिर पूछा- बापजी? कौन?
था एक टोली वाला। यहाँ धानबस्ती में आकर रहने लगा।
कुछ ऋतु...... फिर भाग लिया।
पायडया फिर चुप हो गया। लकुटया ने पूछा-



अब कहाँ है? मर गया होगा अकेला।
पायडया फिर थूका-
नहीं ये बापजी मरते नही हैं।
वे केवल प्रश्न पूछते हैं...... प्रश्न पूछते हैं।
उन प्रश्नों के उत्तर माँगते हैं- दूसरों से।
वे कभी नही मरते ।
तुम्हें, मुझे मार कर भी वे बचे रहेंगे। नही मरेंगे।
बापजी तो बिल्कुल नही। मरा भी तो भूत बन कर आएगा।
पायडया उठा-
चलो, हमें काम करने हैं। पिलू के, सू के, धान के काम।
अरे, हमारे लिए बस्ती है।
अकेले, मनमौजी से जीने वाले बापजी हम थोड़े ही हैं।
पायडया अब भी क्रोध के आवेश से काँप रहा था।
उसे इतना गुस्से में लकुटया ने अब तक नही देखा था।
पायडया उतराई उतरने लगा। पीछे पीछे लकुटया भी।
--------------------------------------------------------------

No comments: