॥ २१॥ वाघोबा बस्ती पर फाटया
का मरना ॥ २१॥
दिनों की गिनती ठीक पूरी हुई
है ना? पाषाण्या ने पूछा।
सारे चुप रहे।
हां, दो, दो, दो और दो, और
दो। पूरे हुए। पंगुल्या ने आगे आकर कहा।
अब बुढिया आगे आई-- अरे,
नियम क्या कहता है?
फाटया तड़फडा रहा है। सूरजदेव
जितना तपा हुआ है।
हग रहा है। उलटी कर रहा है।
और तुम दिन गिन रहे हो?
वह जितना तडफडाएगा, उतनी
उसकी आत्मा हड्डियों में चिपकेगी।
मरण के समय निकलने में देर
करेगी।
फिर वे हड्डियाँ शैतान के
रहने की जगह बन जायेंगी।
बस्ती पर संकट छाएँगे।
उठो।
पाषाण्या ने हाथ उंचे उठा
दिये।
जमावड़ा हो गया बस्ती से दूर
बनाई उस झोंपडी के पास। जखमाए या बीमार आदमी को दस दिन तक उसी झोंपडी में छोड़ देने की रीत थी।
लाल्या ठिठक गया।
झोंपड़ी से इधर दो बांसों को
तिरछा जोड़कर उन पर एक नरमुण्ड लटकाया हुआ था।
प्रवेशद्वार-- झोंपडी तक
पहुँचने के लिये।
उसके नीचे से गुजरते हुए
लाल्या चिल्लाया-- जय बाघोबा।
भीड़ उन्मादित हो गई-- जय
वाघोबा।
फाटया घिसट कर झोंपडी के
बाहर आ पड़ा था।
उसने आँखें खोली। हाथ जोड़े।
मारो.... । उसने क्षीण आवाज
में कहा।
मृतात्मा बनकर हड्डियों से
नहीं चिपकोगे?
शैतान का घर नही बनोगे?
लाल्या ने पूछा--
नहीं ....नहीं...। फाटया
बुदबुदाया।
लाल्या आगे बढा।
मिट्टी में थूका।
वह मिट्टी फाटया के कपार पर
रगड़ दी।
बुढिया चिल्लाई।
मुक्ती दो..... मृतात्मा को
मुक्त करो।
झोंपड़ी के बाहर भीड उसी की
गूँज में हुंकारा भरने लगी।
जय वाघोबा च्च्
लाल्या ने लाठी उठाई।
गिर्र से घूम गया।
एक वार....एक चीख।
क्षणभर। फिर सब शांत।
बुढिया चिल्लाई-- मुक्त हुआ।
भीड ने दुहराया-- मुक्त हुआ।
गाड दो उसे-- सुलाकर। लाल्या
चिल्लाया।
थरथरी लिये वह बाहर आया और
तेज चाल से निकल गया।
पंगुल्या उत्साह में आगे
आया।
आओ रे.... उसने कहा।
सब गड्ढा खोदने में जुट गये।
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