Wednesday, 23 November 2016

॥ ५६॥ धानबस्ती पर चर्चा लाल्या की टोली की ॥ ५६॥


॥ ५६॥ धानबस्ती पर चर्चा लाल्या की टोली की ॥ ५६॥

बडा अलाव। चारों ओर गोल बनाकर बैठी धानबस्ती।
बाई, पायडया..... लकुटया...।
सामने एकआंखी। रोकर थककर अब शांत हुई थी।
लेकिन क्यों? बाई ने पूछा।
एकआंखी ने फिर सिर हिलाया।
कहा है-- सारी सूओं को जुगेंगे। सारे आदमी मार देंगे।
भय की लहर दौड गई।
यह सच है तो फिर हमारी भी तैयारी होनी चाहिए। लकुटया ने कहा।
कैसी तैयारी?
उन्हें मारने की।
मारने की?
हां।
बाई ने सिर हिलाया।
वह भरमाए होंगे। बिना कारण कोई किसी को मारने की बात क्यों करेगा?
सब अपनी अपनी बात कहने लगे। कोलाहल छा गया।
एकआंखी फिर रोने लगी।
मेरा क्या? देखो थान पर ये घाव, यह रक्त।
लकुटया उठा। थूका। कहा-- उनके लिए मरण।
मरण। सब चिल्लाए।
बाई ने फिर सिर हिलाया।
मरण? नही, नही। वह बुदबुदाई।
फिर कोलाहल बढा। देर तक। फुसफुसाहट।
अलाव बुझ गया।
बाई घुटनों पर जोर देती हुई उठी और झोंपडी को चली दी।
पायडया पीछे पीछे आया। वह कांप रहा था- क्रोध से।
ये मरण माँग रहे हैं-- मरण। वह तिरस्कार से थूका।
लेकिन यह टोली कौन है? क्यों?
कुछ समझ नही आता।
बाई का सिर फिर हिला।
मरण? क्या उनका अकेले का ही होगा?
यह तो अपना भी मरण होगा।
आजतक शिकार करते आए जानवरों की। लेकिन अब आदमी की, सू की शिकार?
भय की सिहरन उसके शरीर पर दौड गई।
उसने पायडया से कहा-
पायडया, हम दोनों बूढे हुए। थक गए। अब दिन भी दूसरी तरह के आएंगे। आंधी में टूटकर उडने वाले पत्तों की तरह टोलियों को उडा ले जाएंगे।
आंधी घिर रही है। ये नए पेङ.... हम नही समझेंगे इन्हें।
जमीन में जडें पकडना भूलकर ये नए पेड मरण क्यों मांग रहे हैं?
पायडया हताश झोंपडी में पैर पसार कर बैठ गया।
आज पहली बार ऐसा हुआ था कि बाई कोई निर्णय लिए बिना उठ गई थी।



बाई के पास जाकर वह उसके कंधे, पीठ सहलाने लगा।
बाई इस नई घटना को समझती पडी रही।
बाहर कोलाहल चलता रहा।
---------------------------------------------




No comments: