॥ ५८॥ पंगुल्या और उंचाडी धानबस्ती की ओर ॥ ५८॥
दो दिन, दो रातें निकल गईं।
पंगुल्या ने उंगलियों पर गिना।
हम कल निकल चलेंगे। उसने उंचाडी से कहा। उंचाडी उस छोटी सी गुफा में रात के उजाले के लिए लकड़ी सजा रही थी।
लो। पंगुल्या ने पत्तों में छिपा कर रखे दो चकमक पत्थर निकाल कर उसकी ओर बढा दिए।
उंचाडी ने अपार श्रद्धा से उसकी ओर देखा।
बड़ा डीलडौल नही..... खुरदुरी छोटी दाढी, बाल कम, कमर से ऊपर का शरीर लकडी के बड़े टुकडे जैसा, हाथ विचित्र ताकत से भरे हुए, एक पैर कमजोर, आँखें भिरभिराती.....।
अच्छा हुआ तू चकमक पत्थर साथ लाया। उंचाडी ने पत्थरों को लकडी से ऊपर रगडते हुए कहा।
आग की लपटें निकलने लगीं।
पंगुल्या ने एक मरा हुआ खरगोश उसकी ओर फेंका। उंचाडी ने उसे आग में धकेला।
आग की लपटें। गुफा में उजाला।
पंगुल्याने हड्डियों की पोटली निकाली।
ये....ये..... हड्डियाँ। उंचाडी ने डरकर पूछा।
मंतराई हैं?
पंगुल्या ने गर्दन हिलाई। उत्साह से हड्डियाँ फैला दीं।
ये भैंसे की हड्डी, ये कबूतर की, ये आदमी के सिर की, ये हाथ की, ये जाँघ की.....।
तूने कब देखी? उंचाडी ने घबराकर पूछा
रोज...... बली देते हुए। पंगुल्या हंसा।
क्यो हंसे?
कुछ नही, ऐसे ही......। वह हँसता रहा। भरमा गया।
उंचाडी थरथरा गई। पंगुल्या का यह भरमाना है या कुछ और?
मैंने एक पेड भी देखा। पंगुल्या ने भर्रा कर कहा।
उगते सूरज में उस पेड़ को रोज देखा।
उसकी छाया, छाया की रेखा...... रोज देखी।
वह पावस ऋतु में अलग, ठण्डी में अलग, गर्मी में अलग जगह पर आती है। पंगुल्या ने उत्साह से कहा।
उंचाडी का चेहरा निर्विकार।
पंगुल्या चुप हो गया।
अब खरहा भुन गया था। उंचाडी ने आग में से निकालकर उसकी ओर फेंका। उसने वापस दे दिया।
वह हंसा...... । यह तूने
मारा था...... तेरा है।
और तू?
मेरे लिए भूखा रहना नई बात
नही है। वह कडुआहट में भरकर बोला। उंचाडी गपागप खाने लगी। फिर रुक गई।
ये ले बचा हुआ...... तेरे
लिए।
पंगुल्या ने तमक कर उसे
देखा।
उंचाडी के दांतों में मांस
अटका था। वह थूकी। खा ले। तू साथमें चकमक पत्थर ले आया इसलिए ले ले। नही तो आज
कच्चा ही खाना पडता।
पंगुल्या ने हाथ आगे बढाया।
उंचाडी ने बचा खरगोश उसके हाथ में डाल दिया।
क्या उदेती की बस्ती सच में
है? उंचाडी ने पूछा।
हाँ।
तूने देखी है?
नही..... पंगुल्या हड्डी
चबाते हुए बोला। बापजी ने देखी है।
वह बस्ती..... वहाँ के लोग,
तुझे बली दे देंगे। उंचाडी फुसफुसाई।
मैं नही चलती।
मैं यहीं ठीक हूँ।
तू जा।
पंगुल्या का चेहरा तन गया।
तू अकेली। यहाँ?
लाल्या छोडेगा? पकड़ कर ले
जाएगा।
तेरे साथ भी वही होगा।
उंचाडी ने कहा।
नही। पंगुल्या के स्वर में
निश्चय था। उंचाडी ने सोचा-- आज इसका स्वर बदला हुआ है। वे तुझे रास्ते में ही घेर
लेंगे।
मुझे रास्ता मालूम है-
पंगुल्या ने कहा।
तू भी यहीं रह। उंचाडी बोली।
तू और मैं दोनों। बस्ती
क्यों चाहिए?
उंचाडी ने उसकी सूखी जांघ पर
अपना मस्तक गडा दिया।
पंगुल्या ने नीचे देखा।
उंचाडी पहले औंधी, फिर सीधी
लेट गई।
उसने उंचाडी के थान सहलाए।
जुगो मुझे। उंचाडी ने भारी
स्वर में कहा।
पंगुल्या ने सिर हिलाया।
यह पांव? ऐसा सूखा पांव लेकर
बस्ती के बिना मैं कैसे जिउँगा?
मैं अकेला जंगल में जी नही
सकता। मैं मर जाऊँगा।
उंचाडी ने हताशा से गर्दन
हिलाई।
तू भी चल मेरे साथ......।
वहाँ बस्ती है। पंगुल्या ने फिर कहा। वहाँ बाई है, धान है।
और उसका मंत्र? उससे जुगने
वाला शैतान?
उससे बतियाने वाले मृतात्मा?
उंचाडी ने पूछा।
पंगुल्या जोर से हँसा।
हंसता है तू? क्यों?
वह मंत्र झूठ है। साफ झूठ।
कैसे?
बापजी ने झूठ बोला था।
क्यों?
मैं नही जानता। लेकिन मंत्र
की बात झूठ कहता है।
फिर?
वहाँ धान है। धान है माने
शिकार कम है। शिकार कम हो तो.......
आदमी के बल की गरज कम है।
वहाँ, यह सूखा पैर भी चलेगा।
केवल वहीं चलेगा।
धान के पास।
सू भी वही टिकेंगी।
पिलू भी वहीं बढेंगी।
भूख भी वहीं मिटेगी।
पंगुल्या पुटपुटाया।
उसे वही प्रकाश फिर दिखा।
छाती में एक झरना बहने लगा। झरने से प्रकाश फूटने लगा।
मैं जाऊँगा। तू भी चल। तेरे
और मेरे लिए अच्छी सुबह वहीं होगी। यहाँ केवल मरण।
उंचाडी ने गर्दन झटकाकर ऊपर
देखा। उसके बाल चेहरे पर बिखर गए थे। बालों के बीच से पंगुल्या की चमकती आँखें
देखीं। खिला हुआ चेहरा देखा।
यह चेहरा अलग है। वह
बुदबुदाई।
आतुर होकर उसने दोनों हाथों
में वह चेहरा ले लिया। उसे अपने ऊपर खींच लिया।
उसके केशों में पंगुल्या की
साँसें फिरने लगीं। वह बोला-- वहाँ हम दोनों एक दूसरे के लिए रहेंगे। बिना खोए,
बिना मरे।
अपनी ताकदवर बाँहों में उसे
लपेटते हुए पंगुल्या अपार आवेग में आ गया।
उन बाँहों में जकडकर उंचाडी
खिलखिलाती रही।
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