॥ ५९॥ फेंगाडया खाली हाथ लौटता है ॥ ५९॥
आज का दिन बुरा है। फेंगाडया बुदबुदाया।
गुफा अभी दूर है। रात घिर चुकी है।
दो दिन, दो रात.... बडी शिकार कोई नही मिली।
सर्रच् से पत्त्िायाँ खडकीं। एक भैंसा था।
फेंगाडया की बांहों में फुरफुरी। भूख तिलमिलाई। लेकिन क्षणभर, फिर वह संभला।
यह शिकार अकेले के करने की नही।
भैंसों का झुण्ड निकल गया। एक के बाद एक। वह देखता रहा।
बड़ा झुण्ड था। सारे पिलू बीच में।
फिर एक बार तन कर वह चलने लगा।
भूख.... लंबूटांगी, लुकडया.... सभी भूख से व्याकुल।
आज भी फेंगाडया दो तीन खरहे ला पाया था।
राह कटी। गुफा अब सामने थी।
गुफा में अलाव। लंबूटांगी और कोमल। उसे देखकर खडी रही। लेकिन खाली हाथ देखकर फिर बैठ गई।
आज भी कुछ नही।
लंबूटांगी ने अलाव में एक कबूतर भुनकर खा लिया। फिर दूसरा डाला।
लुकडया ने गर्दन उठाई। कराह कर बोला-
अब क्या सोचता है? पहले मुझे उठा लाया। फिर इस कोमल को।
अब मैं भूख से मरूँगा। तभी मर जाता तो........।
फेंगाडया ने एक थप्पड मारकर उसे चुप किया। अलाव से कबूतर निकाल कर उसके मुँह में ठूँस दिया।
आज उसने ग्रास थूका नही।
चबाकर गपागप निगल गया। फेंगाडया को देखकर बोला- और।
फेंगाडया ने दूसरा ठूँसा....
फिर तीसरा......चौथा।
कबूतर खतम हो गए।
लुकडया खिदिक खिदिक हंसा।
बोला- और।
कोमल आगे आई। फेंगाडया के
हाथ ने उसे रोक दिया।
एक खरहा भी उसके आगे कर
दिया।
लुकडया रोने लगा।
लंबूटांगी आगे आई। उसने
फेंगाडया को पकड कर हिला दिया।
फेंगाडया चुप हो गया। फिर
लुकडया के पास बैठकर लंबूटांगी उसे सहलाने लगी।
फेंगाडया ने आंखें बंद की।
पांव पसार कर बैठ गया।
गहरी सांस खींचकर उसने थूक
निगला। भूख से पेट गुरगुराने लगा था।
कोमल का हाथ उसके माथे पर।
उसका स्पर्श....। उसके दूधभरे थान।
कोमल उस पर झुक कर उसका माथा
चूम रही थी।
फेंगाडया ने जीभ बाहर
निकाली। दो बूँद दूध चाट लिया।
फेंगाडया रोमांचित हो उठा।
कोमल हँसी। फेंदाडया का माथा अपने थानों पर दबा लिया।
आँखें खोल कर वह पलटा। औंधा
हो गया। जानवर की तरह चिल्लाया।
सारी थकान.... निराशा......
भूख.... क्रोध..... उस आक्रोश में था।
कोमल ने उसके केशों पर हाथ
फेरा। उसे शांत होने दिया। फिर उसे पलट दिया।
उसका चेहरा दोनों हाथों मे
ले लिया।
फेंगाडया ने उसकी आंखों में
देखा। गहरी...स्वच्छ शांत आंखें।
उसकी छाती में कुछ हिला। यह
सू चाहिए। मुझे यही सू चाहिए। सदा के लिए।
कोमल ने उसका चेहरा पढा। वह
हंसी। हाथों से उसका माथा सहलाती बोली-- मेरी एक बात सुनो।
अंच्
चलो उदेती की बस्ती में।
वहीं रहने के लिए।
कोमल का निश्चय भरा चेहरा।
मैं कल जाऊँगी। मेरा पिलू
है, बाई है। लकुटया, पायडया, चांदवी, सोटया.....। मेरी धानबस्ती है।
फेंगाडया ने सिर हिलाया।
नही, तू नही जाना।
मैं जाऊँगी। कोमल उसके गले
से लिपट गई। और तू भी चलेगा। वह पुटपुटाई।
लुकडया, लंबूटांगी, तू....।
वह हंसी।
सभी चलेंगे।
फेंगाडया ने आश्चर्य से
देखा।
सब चलेंगे? लिया जाएगा हमें
धानबस्ती में?
हाँ।
यह जखमी लुकडया भी- जिसे मैं
उठा लाया हूँ?
यदि लुकडया उठाकर लाया हुआ
है, तो मैं भी उठाकर लाई हुई हूँ।
मैं जा सकती हूँ, तो लुकडया
भी जा सकता है। लंबूटांगी भी। तू भी। मैं कहूँगी।
देर तक चुप्पी लगी रही।
फेंगाडया सोचता रहा।
बाई?
वह बहुत अच्छी है। मैं उसे
बताऊँगी।
लेकिन मैं? मेरा यह बरतना?
जखमी साथी मैं उठा लाऊँगा-- मरने के लिए पीछे नही छोडूँगा। यह भी चलेगा?
अं...हं....। आज नही। लेकिन
धीरे धीरे चलेगा। मैं देखूँगी। अगली बाई तो मैं ही हूँ। कोमल निश्चय से बोली।
यह बरताव ही ठीक है। सबको जीवन
जीना है तो यही होगा। पुराने नियम को बदलना पडेगा।
और तू?..... तूने जो किया है
फेंगाडया...... अकेले ने? वह और कोई नही करता। नही कर सकता। यदि जखमी को पोसने का
नियम करना हो, तो अकेला आदमी नही कर सकता। केवल बस्ती पर ही यह हो सकता है।
फेंगाडया कुछ नही बोला।
तू लुकडया को उठा लाया। ठीक
है लेकिन यदि तुझे ही सांप ने काट लिया, और तू मर गया?
यह लुकडया जी रहा है इतने
दिन। टूटी टांग लेकर भी मरा नही है अब तक।
लेकिन कल तू ही मर गया तो?
यह भी मरेगा। पर तू चाहता है
यह जिए।
नही, इसका जीना तेरे अकेले
पर नही होना चाहिए।
तू मर जाए, फिर भी इसे जीना
चाहिए।
इसीलिए इसे बस्ती चाहिए।
तभी उसे उठा लाना खरा है।
नही तो क्यों उसे उठा लाना?
फेंगाडया का चेहरा आनंदित हो
गया। कौतुक से कोमल का चेहरा देखता रहा।
उठकर कोमल को हिलाते हुए
बोला- सच। सच कहती है तू।
एक बार ले आया घायल लुकडया
को; तो आगे की बात भी अटल है। मेरा...... हम सबका टोली में जाना।
मुझे अच्छा नही लगेगा। मैं
अकेला रह सकता हूँ।
फिर भी इस तरह टोली के साथ
अपने को बांध लेना अटल है।
उसने कोमल के गाल पर हाथ
रखा।
आज मुझे अकेला भैंसा दीखा
था।
उसे अकेला कैसे मारता?
लेकिन अगर टोली के साथ होता
तो मार लेता। फिर एक क्यों? चार घायल लुकडया की भूख मिटा देता।
कोमल ने उसे थपकाया- तू
चलना।
फेंगाडया की छाती में धडधड
हो आई।
देवाच् क्या करूँ?
यह अटल है।
बापजी कहता था- बस्ती अच्छी
नही है। जिनकी बाँहे पिचपिची हैं, जो अकेले लड नही सकते, उनके लिए है बस्ती।
मैं नही। मैं अकेला अपने में
पूरा हूँ।
लेकिन यह लुकडया? यह कोमल?
यदि कई लुकडे मैं उठा लाऊँ
तो?
नही बापजी, यह विचार तूने
नही किया।
तू कभी किसी मरते आदमी को
उठाकर नही लाया।
बस्ती चाहिए।
यदि घायल लुकडया को उठा लाना
मानुसपना है, तो इस मानुसपने को चलाए रखने के लिए फेंगाडया को बस्ती चाहिए।
एक गहरी शांती से उसने कहा-
चलेंगे।
कोमल हंसी। उसकी छाती भर आई।
बहुत अच्छी है धानबस्ती।
वहाँ धान उगता है। बहुत....।
ऐसे मुठ्ठी में भर भर फेंकते हैं। फिर उसमें बालियाँ आती हैं, दाने भरते हैं, पकते
हैं। फिर ठण्डी ऋतु आते आते उसे काटते हैं।
सू तो एक ही पिलू जनती है।
लेकिन धान की बाली में कई कई धान पिलू निकलते हैं। कई।
हम सबके लिए।
खप्पर में पानी रखकर उसमें
धान डालते हैं। पानी बजता है तब धान भी रटरटाता है।
उसे पीते हैं। भूख रुक जाती
है। मीठा लगता है।
हम सब वहाँ एक साथ रहेंगे।
मैं, तू, मेरा पिलू, लुकडया,
लम्बूटांगी।
पायडया धुन बजाता है, होठों
से। तू सुनना।
फिर हम नाचेंगे।
पूरे चंद्रमा की रात होगी।
मेरी झोंपडी... तेरी झोंपडी।
धानबस्ती पर आधार है। पावस,
गर्मी, ठण्डी सभी ऋतुओं में।
हम वहाँ रहेंगे।
मेरे कई पिलू होंगे।
लंबूटांगी के होंगे।
बस्ती बढेगी।
औंढया देव की किरपा।
उसकी आंखों से आंसू टपकने
लगे।
फेंगाडया ने उसका चेहरा अपने
हाथों में ले लिया। हाँ री, हाँ, हाँ।
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