Wednesday, 23 November 2016

॥ ३५॥ उंचाडी को धानबस्ती की चाह ॥ ३५॥


॥ ३५॥ उंचाडी को धानबस्ती की चाह ॥ ३५॥

प्रचंडता से वर्षा की मार पडने लगी।
यदि वर्षा की ऋतु आ जाए तो फिर मेरी धानबस्ती यहीं होगी। और मरण भी। उंचाडी बुदबुदाई।
उसने शिकार या फल ढूंढना छोड दिया।
झिंग्या को छोडकर वह दूर आ गई थी।
वैसे बहुत दूर नही। दो हांक के अंतर पर।
लेकिन घना जंगल और भारी वर्षा।
ऐसा ही एक दिन था जब साथी खो गया था।
आज भी गुफा में झिंग्या अकेला है।
अपने भींगे केश हाथ से पीछे ढकेलती वह गुफा की ओर चल दी।
अब भी थोड़ा उजाला था। यदि रात घिर गई तो हांक के अंतर पर भी झिंग्या खो सकता है। और वह भी रात में कहाँ रहेगी।
दौडती हुई उसने दोनों हाथों से झाड झंखाड हटाए और छलांगती चली।
गुफा तक आ पहुँची।
केशों को निचोड़ दिया। शरीर से भी जितना पानी झटका जा सकता था, झटक दिया और गुफा में घुस आई।
वर्षा का जोर बढ रहा था।
हवा घों घों बहने लगी।
झिंग्या अब भी ग्लानि में पडा था। एक करवट से।घास का एक ढेर पेट के पास लेकर।
वह उसके पास पसर गई।
गुफा की छत इतनी नीची थी कि वह खडी नही रह सकती थी। लेकिन पानी की मार गुफा के अन्दर नही थी।
गुफा का मुँह छोटा था।
थोड़ी देर के बाद गुफा में पानी भरने लगा।
पत्थर पडे थे। उंचाडी उन पर चढ गई।
झिंग्या वैसा ही गहरी नींद में।
बाहर घुप्प अंधियारा।
न चंद्रमा था, न कोई नक्षत्र।
साथ लाई पत्त्िायाँ उसने मुँह में डाल लीं।
चबाने लगी।
पेट में भूख।
धानबस्ती.... और कितनी दूर?
क्या वह सच भी है? या झूठ? वह सोचने लगी।
भरमा गई है वह।
साथी कहता था धानबस्ती है।
क्या वह सच कहता था?
धानबस्ती.....बाई.......।
बाहर बिजली कडकी।
उसकी देह दुख रही थी। शरीर अब भी गीला था।
केश झटक कर उसने फिर एक बार पानी निचोडा।
बाहर का जंगल, पेडों पर बन्दर.......सभी शांत, चुप थे।
यह वर्षा कभी रुकेगी भी? या आ गई है वर्षा की ऋतु?
उसका धैर्य टूटने लगा। झिंग्या को गोद में दबाकर वह रोने लगी।



बिजली के उजाले में उसकी देह चमकती रही।
धानबस्ती.... वह बुदबुदाई।
फिर झिंग्या के पास लेट गई। बेल की तरह पत्थरों से लिपट कर सो गई।
--------------------------------------------------------




No comments: