॥ २६॥ बापजी और बंदर ॥ २६॥
बापजी अपने आप ही हँसता रहा।
आज सुबह धूप खिली हुई थी। पत्तों के पीछे सूरज की किरणें चमचमा रही थीं। आज बुखार भी नही। अंगूठे की टीस भी कम है। एक छोटा सूअर भी वह पकड़ चुका है।
आज कहीं भटकना नही है। शिकार करनी नही है।
शांति। ऐसा दिन कितना अच्छा होता है।
गुफा के सामने पडे पत्थर पर पाँव पसारकर बापजी बैठा रहा।
आगे एक छोटी उतराई। फिर जंगल। यह जंगल कभी खतम नही होगा। यह जंगल है इसलिये हरिण, सूअर और खरहे हैं। बापजी अपने आपसे बातें करता रहा।
इन्हीं से मनुष्य का पेट भरता है।
मान लो जंगल नही होता तो क्या होता?
सामने बंदरों की टोली आई। बंदरियों के पेट से चिपके बच्चे लटक रहे थे।
उसे धानबस्ती याद आई।
वहाँ भी कई बंदरियाँ थीं।
बाई की बंदरियाँ। वह थूका।
थान से चिपके पिलू और खप्परों में धान।
मनुष्य को बंदर बनाकर रखती थी बाई।
बिना पूँछ का बंदर।
बाई ने बुलाया तो जुगना।
बाई ने लौटा दिया तो वापस आ जाना।
बस्ती पर आदमी जायगा तो बंदर हो जायगा।
आदमी के लिये बस्ती नही है।
आदमी के लिये जंगल है।
आदमी के लिये शिकार है।
बस्ती पर नियम है।
वह हंसा।
शिकार के लिये भी जाना हो तो
पायडया से पूछो।
वह धान के ढेर पर कोई आकृति
बनाएगा।
फिर कहेगा-- औंढया देव कहता
है, आज डूब डूब दिशा में।
फिर सब जायेंगे डूब डूब दिशा
में शिकार के लिये।
एक सिहरन बापजी के अंदर दौड
गई। वह बाई........प्रमुख। वह शैतान है।
इतनी सूएँ मरती हैं पिलू
जनते हुए।
लेकिन बाई नही मरती।
वह जी जाती है।
मरण आदमियों को है। बाई को
नही।
सावली से बापजी नही जुगेगा।
क्यों।
क्यों कि बाई को चाहिये
बापजी।
बाई जो आदमी चाहेगी, उसे
मिलेगा।
बस्ती पर उसी का शब्द। उसी
के नियम।
क्यों कि वहाँ धान है। बाई
का धान......।
बाई मुट्ठी में भरकर धान
फेंकेंगी तभी उगेगा। पिलू की तरह।
वह फिर से सिहर गया। उसे
लगा-
धान उग आया है।
उस पर लटकती लम्बी बालियाँ
पक चली हैं।
कटाई के दिन आ गए।
बाई कहती है- भैंसा लाओ। बली
के लिये जीवित भैंसा पकड़ो।
सारे आदमी दौड पडे।
सबसे आगे पायडया और बापजी।
पीछे अनेकों।
जंगली बेलों को एकट्ठा करके
उससे बनाई रस्सियाँ और फंदे।
भैंसा जंगल में अपनी मस्ती
में।
मुक्त-- बापजी जैसा
बलवान-- फेंगाडया जैसा।
अपनी मौज में चरता हुआ।
अचानक ठिठक जाता है।
आदमी आगे बढते हैं। उसे घेर
लेते हैं।
ओच्होच् की गूँज।
भैंसा बिदका है। भड़क जाता
है। उसके सामने दो तीन आदमी आ जाते हैं।
उन्हें कुचल देता है।
उसकी भारी भरकम नसें,
टाँगे......गर्दन.......।
वह फुरफुरा रहा है।
कभी भैंसा चर रहा हो, अकेला
बापजी सामने आ जाय, अकेला फेंगाडया पास से निकल जाय, तो भैंसा उन्हें
नही देखेगा। अपनी मस्ती में
चरता रहेगा।
निकल जायगा।
आज वह नही समझ रहा कि क्यों
इतने आदमी उससे भिड रहे हैं।
भैंसे की आँखें क्रोध मे
लाल।
फंदे से छूटने की तड़फड़। आदमी
कई हैं और उनके फंदे भी मजबूत हैं। फिर भी दो तीन को मारकर ही भैंसा फंदे में
फंसता है।
यूं ही आसानी से नही।
भैंसे के सिर पर लाठी का
भरपूर वार पड़ता है। उस पर मूर्च्छना छा जाती है। वह हतबल हो जाता है। पड़ा पड़ा
क्रोधित आँखों से देखता रहता है। फुरफुराता रहता है।
फिर आदमी उसे खींचते हैं।
जमीन से उसका धड़ टकराने से आवाज आती रहती है-- फटर, फटर, थप्प, थप्प।
चढाई पर उसे खींचते हुए साँस
फूल जाती है।
इस बार भैंसा पकड़ते हुए जो
जख्मी हो जाते हैं उन्हें भी वापस लाते हैं।
बाकी दिन नही लेकिन आज के
दिन लाते हैं।
जखमाए मानुसों का रक्त भी
औंढया देव माँगता है। धान.....।
धान भी रक्त माँगता है?
भैंसे का, मानुसों का?
क्यों? क्या तभी वह उग सकता
है? पिलुओं के जैसा।
पिलू भी सू का रक्त पीकर आते
हैं। धान को भी पीने के लिए रक्त चाहिए।
यह बाई का नियम है। बस्ती का
नियम है।
भैंसा बस्ती पर लाते हैं।
केवल सूएं नाचती हैं उस दिन।
सारे आदमी थरथराते हुए बैठे
रहते हैं।
फिर पायडया उठता है। लाठी
पेलता है।
फिर एक वार भैंसे पर।एक ही
वार में भैंसा र्मूच्छित हो जाना चाहिए।
उसकी गर्दन चीरते हैं। रक्त
का सोता फूट पड़ता है।
जख्मी मानुसों का रक्त--
भैंसे का रक्त।
बाई अंगुलियाँ डुबाती हैं उस
रक्त में। नाचते हुए जाती है धान के पास।
रक्त की बूँदे धान की
बालियों पर।
साथ में नाचती हुई सूएँ।
फिर आदमी आगे बढते हैं। रक्त
के सोते को मुँह लगाते हैं। चाटते हैं वह रक्त।
बाई नही, सूएँ भी नही- केवल
आदमी पीते हैं रक्त।
फिर भैंसे को भूँजते हैं।
साथ में धान की बालियाँ भी।
अब सारे खाते हैं।
नाचते हैं सूओं के साथ। भान
भुलाकर।
जख्मी आदमियों को खींचकर दूर
नदी किनारे झोंपड़ी में डाल आते हैं। मरने के लिए।
फिर बाई उठती है। जुगने के
लिए बापजी को बुलाती है।
और सावली जुगती है पायडया के
साथ।
बापजी आज भी क्रोध में
हुंकारने लगा।
उठ गया।
आकाश में दोनों हाथ फेंककर
बोला--
भैंसा मारते हैं-- बली के
लिए-- भूख के लिए नहीं।
धान उगता है। उस पर बली
चढ़ाने के लिए।
बाई के लिए।
बाई की बस्ती के लिए।
देवाच् ।मानूसपना नही जानते
बस्ती के मनुष्य।
टोली का महत्व है।...... धान
का महत्व है......
बाई का महत्व है।
बापजी को, सावली को.......
अकेले आदमी को, अकेली सू को क्या चाहिए कोई नही पूछता।
यह सारा झूठापन धान में है,
धान में। वह चिल्लाया।
देवाच् टोली में आदमी बंदर
बन गए।
अचानक पीछे की झाड़ी में खुसफुस
सुनाई पड़ी।
बापजी ने झटके से लाठी तौली।
बंदर थे।
बापजी का भान लौटा।
भरमा गया था मैं। वह
बुदबुदाया।
आज तो टोली में नही है तू
बापजी।
अब तू अकेला है।
थोड़ा सूअर पेट में है-- बचा
हुआ गुफा में।
आज भूख का डर नही।
आज का दिन केवल देखने के
लिए, सूंघने के लिए।
वह उकडूँ बैठ गया।
सूरज धीरे धीरे ऊपर चढ़ता
रहा।
जंगल शांत होने लगा। बंदर कब
के निकल गए थे। वह एकटक जंगल को देखता रहा। भूख लगने तक। फिर उठा। भुना हुआ आधा
सूअर पडा था। उसकी टांग चबाने लगा।
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