॥ ४॥ धानवस्ती में पायडया
कथा कहे॥ ४॥
साँझ घिरने लगी।
औंढया देव के पेड से पायडया वस्ती में वापस जाने के लिए
मुडा।
आज हवा में ठण्ड नही है।
वस्ती में जगह जगह अलाव के उजियारे।
बाई बैठी है अपनी झोपड़ी से बाहर। सूओं से घिरी हुई।
धान की जमीन है नीचे की तरफ नदी किनारे।
और सामने दूर तक जाती हुई
घरघर बहती नदी।
पायडया ने छाती भरकर साँस
खींची।
उसे लगा.... भ्रम हुआ...
कि इस समतल जमीन पर धान खड़ा
है।
धान.... हवा में डोलने वाली
बालियाँ।
अब पक कर पीली हो गई हैं।
अब उन्हें तोड़ना है, कूटना
है और कई कई दाने इकट्ठा करने हैं।
सामने वाली झोंपड़ी से कुछ
आवाजें आई।
चाँदवी दौडी चली आ रही थी
उसके पास।
उसने पायडया की कमर में
बाँहे डाल दी और झूलने लगी।
पायडया भ्रम से बाहर आया।
अभी तो गरमी की ऋतु है। इससे
आगे पानी बरसेगा। तब कहीं धान बोया जायगा।
तब ठण्ड की ऋतु आते आते उसे
काटा जा सकेगा।
पायडया ने चांदनी को देखा।
एक नन्ही सी कली।
छोटा गोल चेहरा।
भरे भरे गालों से बचपन अभी
उतरा नही है।
लेकिन छाती... वहाँ कुछ कुछ
ऊँचाई आने लगी है।
धान के पकने जैसी।
यह सू पिलू थी।
यह भी रक्तगंध से महकेगी।
धान की बालियों जैसी हो
जायगी।
बालियों में धान निकलेगा।
उसे मिट्टी में फेंको।
फिर नए अंकुर उगेंगे।
वह भी थरथराएंगे।
हवा में नाचेंगे, डोलेंगे।
हवा को पीकर, चांदनी को पीकर
फिर बालियाँ निकलेंगी।
फिर धान..... फिर मिट्टी पर।
यह चांदवी.... अब इसके भी
बालियों के दिन आएंगे।
पायडया ने फिर से लम्बी साँस
ली। समय को सूँघा।
समय नदी की तरह बहता जाता
है।
चांदवी भी नदी की तरह बहती
है।
वह भी पिलू जनेगी। फिर मर
जायेगी।
पायडया की आँखों में नमी आई।
चांदवी ने देखा।
उदासी को देखकर वह भी रुआँसी
हो आई।
ए पायडया, चलो ना, कहानी
सुनाने।
पायडया चला। बाई के पास।
जहाँ सूओं का जमावड़ा लगा हुआ था।
बाई पुरानी, पकी धान की
बालियों जैसी।
यह कोई मामूली सू नही। यह इस
बस्ती की मुखिया है।
जो कहेगी, वही होगा।
जिस आदमी को वह चाहेगी, वही
उससे मिलेगा।
वह भी था..... आज भी है.....
उससे मिलने वालों में।
लेकिन अब वह थक चला है। यह
भी तो थक चली है।
बाई ने उसे देखा।
वह हँसी। सारे पिलू उसके आजू
बाजू में हँसने नाचने लगे -- कहानी, कहानी।
पायडयाने कहानी शुरू की।
वही, धानबस्ती की कहानी।
सामने सारे पिलू,
चांदवी, नक्षत्र जैसी चमकदार उनकी आँखें।
सब में कौतूहल।
पिलू होच्, यह कथा है
धानबस्ती की।
यह बस्ती शुरू की थी पहली
बाई ने।
इस बाई की माय की माय की
माय....।
उससे पहले बस्ती नही थी।
सू, आदमी, पिलू, सब टोली में
रहते थे।
गुफा में सोते थे।
जंगल से जंगल भटकते थे।
एक रात ऐसी आई।
पूर्ण चंद्र की रात।
औंढया देव पहली बाई के पास
आया।
उसे नींद से जगाया, कहा --
उठ, उदेती की दिशा में चली
जा।
वहाँ नदी मिलेगी।
वहीं मिलेगी जमीन।
समतल।
उसमें झूम रहा होगा धान।
बालियों भरा। पका हुआ धान।
पीली बालियाँ।
जा।
खुद देव ने आकर बताया। फिर
क्या, बाई उठी, चल पड़ी।
पीछे पीछे टोली से कुछ आदमी,
कुछ सू, कुछ पिलू।
बाई आगे दौड रही है। पीछे वे
सारे।
लगा, बाई को किसी भूत ने पकड़
लिया है।
बाई दौड़े जा रही है। सरसराते
पवन जैसी तेज लय में।
वह सीधे आकर यहाँ पहुँची।
सामने नदी थी।
समतल जमीन थी।
और लहलहाती धान की बालियाँ
थी। नाच रही थीं। हवा को पी पीकर डोल रही थीं।
जीवंत।
साँस लेने वाली।
हिलने डोलने वाली।
उस पूर्ण चंद्र की रात में
झूम झूम कर चांदनी पी रही थीं।
पुष्ट हो रही थीं।
औंढयादेव ने यहाँ धान फेंका
था? चांदवी ने बड़ी बड़ी आँखों में अपार आश्चर्य भर कर पूछा।
और क्या? उसी ने तो। एक दिन
उसने मुट्ठी भर धान लिया और उछाल दिया।
वह सब ओर बिखर गया -- आकाश
में, धरती पर...सब जगह।
किसी के पेड़ बन गए।
किसी के धान।
किसी के जंगली भैंसे, बाघ,
रीछ, वराह।
किसी के पक्षी।
थोड़ा धान तो आकाश में अटक
गया। उसी से बन गए नक्षत्र। जो आकाश में चमचमाते हैं।
फिर बाई ने क्या किया?
हाँ- च् । वह पहली बाई
मानों, पगला गई।
वह धान के अंदर घुस गई। उसने
बालियों को छुआ, सहलाया।
कुछ को तोड़ कर मुँह में
डाला। वह मीठा लगा।
वह वहीं बैठ गई।
सबने पूछा क्या हुआ री?
उसने कहा
यह धान.... यह आज से अपना
है। अब हम यहीं रहेंगे। आज से... यहीं पर...
एक ही जगह पर बंध कर रहेंगे?
किसी ने पूछा
हाँ, एक ही जगह पर।
यह जमीन, यह नदी, आज से
अपनी।
चांदवी अंदर से भर आई।
पूछा -- फिर?
फिर क्या। वह सू, वे सारे,
यहाँ रहने लगे।
बस्ती बनी। बस्ती बढ़ने लगी।
बाई के पास जीवन का मंत्र
था। उसने कई पिलू जने।
और सूओं ने भी कई पिलू जने।
सू पिलू और आदमी पिलू।
पिलू बढने लगे। बडे होने पर
शिकार करने लगे।
बाई ने धान को बढाया। फिर
कटनी की। पकाया। पिलूओं को खिलाया।
सूओं सिखाया- कैसे धान बोना,
कैसे उसे संभालना। कैसे पकाना।
फिर बाई मर गई।
दूसरी बाई बनी। फिर
तीसरी.......
फिर ये हमारी बाई आई।
यह भी यहीं जनमी थी।
यह भी पिलू थी।
बाई पिलू थी?
सब हँसने लगे। बाई भी हंस
दी।
तभी लकुटया और सोटया भागते
हुए आए। पायडया चुप हो गया।
नरबली टोली वाले.....। आये
थे...... परले वाले मोड पर से नीचे चले गये। सोटया ने हाँफते हुए कहा।
हाथ में लाठियाँ थी। मैंने
देखा। लेकिन हम लोग चुप रहे। जब वे दूर चले गये तो हम आ गये।
अब और चुप्पी लग गई।
बाई उठी।
वे इधर नहीं आयेंगे।
अब तक नही आये।
अब क्यों आयेंगे?
वे भटकने वाले लोग हैं।
एक ऋतु में एक जगह। अगली ऋतु
में अगली।
जा रहे होंगे कहीं।
हर नचंदी की रात उन्हें
चाहिए एक बली। उन्हें धान नही चाहिए। एक ठिकांना नही चाहिए।
उधर डूब डूब दिशा में उनकी
टोली है।
आज मानुसबली खोजते हुए आ चले
होंगे इधर।
लेकिन हमारी बस्ती तक नहीं
पहुँच पायेंगे।
पायडया ने गर्दन हिलाई।
जानवर हैं वे। नरबली देते
हैं।
नरबली। रोष से वह थूक दिया।
पथरीली नजरों से बाई ने उसे
देखा।
वह सिहर गया।
कड़ी आवाज से बाई ने कहा-
'हरेक टोली का अपना नियम।'
क्या हमारे नियम नही हैं।
धान उगने के बाद कटाई से
पहले हम भी भैंसे की बली चढ़ाते हैं।
बली देनी पड़ती है।
बस्ती को चलाए रखना है तो
रक्त छिड़कना पड़ता है।
बाई चुप हो गई। मुड़कर चली
गई।
फिर से एक बार चर्चा का शोर।
फिर एक एक कर सब चले गए।
पायडया फिर भी बैठा रहा।
अकेला, दूर को तकता हुआ।
स्तब्धता उसे चुभने लगी। वह
थरथराया।
होंठों से एक सीटी निकली।
धीमी धीमी। बेसहारगी दिखाने वाली धुन।
चांदवी ने सुनी। वह भागकर
आई।
पायडया के गलबहियाँ डाल दीं।
सीटी बंद हो गई।
पायडया च्। चांदवी ने
पुकारा।
हाँ च्च्
मानों अगर भैंसा नही मिल
पाया किसी दिन तो?
क्या हम भी मानुसबली देंगे?
पायडया ने गर्दन हिलाई। चुप
कर .... वह चिल्लाया।
रक्त छिडके बगैर कुछ नहीं
पैदा होता। धान नही। पिलू नही। बस्ती नही। क्यों?
वह उठा। झोंपड़े की ओर चल
दिया।
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आज हवा में ठण्ड नही है। वस्ती में जगह जगह अलाव के
उजियारे।
बाई बैठी है अपनी झोपड़ी से बाहर। सूओं से घिरी हुई।
धान की जमीन है नीचे की तरफ नदी किनारे। और सामने दूर तक
जाती हुई घरघर बहती नदी।
पायडया ने छाती भरकर साँस खींची।
उसे लगा.... भ्रम हुआ...
कि इस समतल जमीन पर धान खड़ा है।
धान.... हवा में डोलने वाली बालियाँ। अब पक कर पीली हो गई
हैं। अब उन्हें तोड़ना है, कूटना है और कई कई दाने इकट्ठा करने हैं।
सामने वाली झोंपड़ी से कुछ आवाजें आई। चाँदवी दौडी चली आ रही
थी उसके पास। उसने पायडया की कमर में बाँहे डाल दी और झूलने लगी।
पायडया भ्रम से बाहर आया। अभी तो गरमी की ऋतु है। इससे आगे
पानी बरसेगा। तब कहीं धान बोया जायगा। तब ठण्ड की ऋतु आते आते उसे काटा जा सकेगा।
पायडया ने चांदनी को देखा।
एक नन्ही सी कली। छोटा गोल चेहरा। भरे भरे गालों से बचपन
अभी उतरा नही है।
लेकिन छाती... वहाँ कुछ कुछ ऊँचाई आने लगी है।
धान के पकने जैसी।
यह सू पिलू है। यह भी रक्तगंध से महकेगी।
धान की बालियों जैसी हो जायगी।
बालियों में धान निकलेगा। उसे मिट्टी में फेंको। फिर नए
अंकुर उगेंगे। वह भी थरथराएंगे। हवा में नाचेंगे, डोलेंगे। हवा को पीकर, चांदनी को पीकर फिर
बालियाँ निकलेंगी।
फिर धान..... फिर मिट्टी पर।
यह चांदवी.... अब इसके भी बालियों के दिन आएंगे।
पायडया ने फिर से लम्बी साँस ली। समय को सूँघा।
समय नदी की तरह बहता जाता है।
चांदवी भी नदी की तरह बहती है।
वह भी पिलू जनेगी। फिर मर जायेगी।
पायडया की आँखों में नमी आई।
चांदवी ने देखा।
उदासी को देखकर वह भी रुआँसी हो आई।
ए पायडया, चलो ना, कहानी सुनाने।
पायडया चला। बाई के पास। जहाँ सूओं का जमावड़ा लगा हुआ था।
बाई पुरानी, पकी धान की बालियों जैसी।
यह कोई मामूली सू नही। यह इस बस्ती की मुखिया है। जो कहेगी,
वही होगा। जिस आदमी को वह चाहेगी, वही उससे मिलेगा।
वह भी था..... आज भी है..... उससे मिलने वालों में।
लेकिन अब वह थक चला है। यह भी तो थक चली है।
बाई ने उसे देखा।
वह हँसी। सारे पिलू उसके आजू बाजू में हँसने नाचने लगे --
कहानी, कहानी।
पायडयाने कहानी शुरू की।
वही, धानबस्ती की कहानी।
सामने सारे पिलू, चांदवी,
नक्षत्र जैसी चमकदार उनकी आँखें।
सब में कौतूहल।
पिलू होच्, यह कथा है धानबस्ती की।
यह बस्ती शुरू की थी पहली बाई ने।
इस बाई की माय की माय की माय....।
उससे पहले बस्ती नही थी।
सू, आदमी, पिलू, सब टोली में रहते थे।
गुफा में सोते थे।
जंगल से जंगल भटकते थे।
एक रात ऐसी आई। पूर्ण चंद्र की रात।
औंढया देव पहली बाई के पास आया।
उसे नींद से जगाया, कहा --
उठ, उदेती की दिशा में चली जा। वहाँ नदी मिलेगी। वहीं
मिलेगी जमीन।
समतल। उसमें झूम रहा होगा धान। बालियों भरा। पका हुआ धान।
पीली बालियाँ।
जा।
खुद देव ने आकर बताया। फिर क्या, बाई उठी, चल पड़ी।
पीछे पीछे टोली से कुछ आदमी, कुछ सू, कुछ पिलू।
बाई आगे दौड रही है। पीछे वे सारे।
लगा, बाई को किसी भूत ने पकड़ लिया है।
बाई दौड़े जा रही है। सरसराते पवन जैसी तेज लय में।
वह सीधे आकर यहाँ पहुँची।
सामने नदी थी।
समतल जमीन थी।
और लहलहाती धान की बालियाँ थी। नाच रही थीं। हवा को पी पीकर
डोल रही थीं।
जीवंत।
साँस लेने वाली।
हिलने डोलने वाली।
उस पूर्ण चंद्र की रात में झूम झूम कर चांदनी पी रही थीं।
पुष्ट हो रही थीं।
औंढयादेव ने यहाँ धान फेंका था? चांदवी ने बड़ी बड़ी आँखों
में अपार आश्चर्य भर कर पूछा।
और क्या? उसी ने तो। एक दिन उसने मुट्ठी भर धान लिया और
उछाल दिया।
वह सब ओर बिखर गया -- आकाश में, धरती पर...सब जगह।
किसी के पेड़ बन गए। किसी के धान। किसी के जंगली भैंसे, बाघ,
रीछ, वराह। किसी के पक्षी। थोड़ा धान तो आकाश में अटक गया। उसी से बन गए नक्षत्र।
जो आकाश में चमचमाते हैं।
फिर बाई ने क्या किया?
हाँ- च् । वह पहली बाई मानों, पगला गई।
वह धान के अंदर घुस गई। उसने बालियों को छुआ, सहलाया। कुछ
को तोड़ कर मुँह में डाला। वह मीठा लगा। वह वहीं बैठ गई।
सबने पूछा क्या हुआ री?
उसने कहा-- यह धान.... यह आज से अपना है। अब हम यहीं
रहेंगे। आज से... यहीं पर...
एक ही जगह पर बंध कर रहेंगे? किसी ने पूछा
हाँ, एक ही जगह पर। यह जमीन, यह नदी, आज से अपनी।
चांदवी अंदर से भर आई।
पूछा -- फिर?
फिर क्या। वह सू, वे सारे, यहाँ रहने लगे।
बस्ती बनी। बस्ती बढ़ने लगी।
बाई के पास जीवन का मंत्र
था। उसने कई पिलू जने।
और सूओं ने भी कई पिलू जने।
सू पिलू और आदमी पिलू।
पिलू बढने लगे। बडे होने पर
शिकार करने लगे।
बाई ने धान को बढाया। फिर
कटनी की। पकाया। पिलूओं को खिलाया।
सूओं सिखाया- कैसे धान बोना,
कैसे उसे संभालना। कैसे पकाना।
फिर बाई मर गई।
दूसरी बाई बनी। फिर
तीसरी.......
फिर ये हमारी बाई आई।
यह भी यहीं जनमी थी।
यह भी पिलू थी।
बाई पिलू थी?
सब हँसने लगे। बाई भी हंस
दी।
तभी लकुटया और सोटया भागते हुए
आए। पायडया चुप हो गया।
नरबली टोली वाले.....। आये
थे...... परले वाले मोड पर से नीचे चले गये। सोटया ने हाँफते हुए कहा।
हाथ में लाठियाँ थी। मैंने
देखा। लेकिन हम लोग चुप रहे। जब वे दूर चले गये तो हम आ गये।
अब और चुप्पी लग गई।
बाई उठी।
वे इधर नहीं आयेंगे।
अब तक नही आये।
अब क्यों आयेंगे?
वे भटकने वाले लोग हैं।
एक ऋतु में एक जगह। अगली ऋतु
में अगली।
जा रहे होंगे कहीं।
हर नचंदी की रात उन्हें
चाहिए एक बली। उन्हें धान नही चाहिए। एक ठिकांना नही चाहिए।
उधर डूब डूब दिशा में उनकी
टोली है।
आज मानुसबली खोजते हुए आ चले
होंगे इधर।
लेकिन हमारी बस्ती तक नहीं
पहुँच पायेंगे।
पायडया ने गर्दन हिलाई।
जानवर हैं वे। नरबली देते
हैं।
नरबली। रोष से वह थूक दिया।
पथरीली नजरों से बाई ने उसे
देखा।
वह सिहर गया।
कड़ी आवाज से बाई ने कहा-
'हरेक टोली का अपना नियम।'
क्या हमारे नियम नही हैं।
धान उगने के बाद कटाई से
पहले हम भी भैंसे की बली चढ़ाते हैं।
बली देनी पड़ती है।
बस्ती को चलाए रखना है तो
रक्त छिड़कना पड़ता है।
बाई चुप हो गई। मुड़कर चली
गई।
फिर से एक बार चर्चा का शोर।
फिर एक एक कर सब चले गए।
स्तब्धता उसे चुभने लगी। वह
थरथराया।
होंठों से एक सीटी निकली।
धीमी धीमी। बेसहारगी दिखाने वाली धुन।
चांदवी ने सुनी। वह भागकर
आई।
पायडया के गलबहियाँ डाल दीं।
सीटी बंद हो गई।
पायडया च्। चांदवी ने
पुकारा।
हाँ च्च्
मानों अगर भैंसा नही मिल
पाया किसी दिन तो?
क्या हम भी मानुसबली देंगे?
पायडया ने गर्दन हिलाई। चुप
कर .... वह चिल्लाया।
रक्त छिडके बगैर कुछ नहीं
पैदा होता। धान नही। पिलू नही। बस्ती नही। क्यों?
वह उठा। झोंपड़े की ओर चल
दिया।
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