Wednesday, 23 November 2016

॥ ३७॥ फेंगाडया और लम्बूटांगी गुफा में लुकडया के साथ ॥ ३७॥

॥ ३७॥ फेंगाडया और लम्बूटांगी गुफा में लुकडया के साथ ॥ ३७॥

फेंगाडया अपने पेड के नीचे बैठा था। नीचे गहरी घाटी।
बाईं ओर गुफा में लुकडया और लंबूटांगी।
पेट में भूख।
दो दिन, दो रात..... कुछ भी नही ला सका था।
लंबूटांगी दौड़ती हुई बाहर आई।
लुकडया मर गया। वह चिल्लाई।
फेंगाडया तडाक्‌ से उठ गया। दौडकर गुफा में आया।
झुककर लुकडया की छाती पर कान लगाया।
छाती मे धडधड चल रही थी।
उसने चमककर गुफा के मुँह को देखा।
वहाँ लंबूटांगी खडी खिदक रही थी।

नही मरेगा। तू चाहता है ना कि वह जिए?
वह जिएगा।
तू भूख से मरेगा। मैं भूख से मरूँगी। लेकिन लुकडया जिएगा।
वह थूकी।
दो खरहे मिले दो दिन में।
एक मुझे, एक उसको।
तू मरेगा भूख से।
उसकी हंसी बढती गई। उन्माद बढता गया।
फेंगाडया उठा। उसे झकझोर दिया।
भरमाई है तू।
नही..... तू भरमाया है।
क्यों लाया उसे उठाकर?
इस सड रहे आदमी को?
मैं गुफा में रहूँगी। इसके साथ।
तू अकेला जाएगा शिकार पर।
क्या मिलेगा फिर?
पहले एक बापजी भरमाया। अब तू।
यही है तुम दोनों का मानुसपना? यों भूख से मारने वाला?
वह रोते हुए बोली।
मैं निकल जाऊँगी।
अकेली।
मुझे जीना है। भूख से नही मरना।
फेंगाडया का शरीर ढीला पड़ गया।
वह लंबूटांगी के सामने खड़ा हो गया। उसकी आँखें हँसती हुईं।
लंबूटांगी.... तू मुझे छोड देगी? मुझे?
उसने पूछा। फिर हल्के हाथों से लंबूटांगी को अपने पास खींच लिया।
उसके स्पर्श की ऊष्मा से लंबूटांगी थरथराई। उसके पास आ गई। फेंगाडया का हाथ उसकी पीठ पर पसर गया।
लुकडया जब ऐसा जखमी नही था, तब भूख नही थी?
बता, कभी ऐसी भूखी नही रही?
भूख तब भी थी। थी ना?
शिकार नही मिली- ऐसे भी दिन थे।
लेकिन बडी शिकार मिली ऐसे भी दिन थे।
तुम्हारे, उसके जुगने के दिन थे।
नाचने के दिन। अलाव के सामने बतियाने के दिन।
भूल गई वे दिन? इतनी सी भूख से?
भरमा गई तू। इस भूख से।
इसी से लुकडया को छोडेगी? मुझे छोडेगी?
उसकी आवाज धीमी से धीमी होती चली गई।
लंबूटांगी ने जोर जोर से सिर हिलाया। नही, नही।
वह फेंगाडया से चिपट गई।
फेंगाडया हँसा।
यह है मानुसपना, समझी?



यह स्पर्श, यह ऊष्मा, यह एका।
दोनों और चिपट गए।
जुगने लगे। फिर शांत हो गए।
गुफा के अंदर आकर लेट गए।
छत को देखते हुए फेंगाडया बोला-
बापजी ने बताया.... समझाया मुझे।
कहता था- देव ने आदमी को बनाया है।
साथ साथ रहने को।
हंसने को। बातें करने को।
भूख.... जखम.... मरण। वह तो सब को है।
आदमी की भी। जानवरों को भी।
आदमी अलग है मानुसपने के कारण।
आज बापजी होना चाहिए था।
लंबूटांगी ने हुंकार भरा। बोली--
मैं पिलू जनूंगी। उसके लिए भी तू शिकार लाएगा?
हां, हां।
वह हंसी।
पिलू होते हुए मैंने कभी नही देखा। तूने देखा है?
मैने नही। लेकिन बापजी ने देखा है। वह बताता था- पिलू जनमता है, जी जाता है लेकिन सू मर सकती है। सू मरती है तब पिलू भी मर जाता है क्योंकि उसे दूधभरे थान नही मिलते।
वह उसकी ओर मुडा।
तू पिलू दे... और मर मत। फिर देखना।
तू, मैं, लुकडया और पिलू।
लुकडया? वह भी?
हां, क्यों नही?
वह तो मर जाएगा।
नही मरेगा। फेंगाडया चिल्लाया।
लंबूटांगी हंसी- अब सचमुच भरमा गया है तू।
फेंगाडया हंसा। उसने अपनी टांगों पर हाथ फेरा।
यह हड्डी - देख, सीधी है।
उसकी टूटी है। लेकिन जुटेगी।
हड्डी फिर से जुटेगी?
लंबूटांगी ने अपने को उसके शरीर पर झोंक दिया। उसे मथते हुए बोली-
अब तू सचमुच भरमाया है। भरमाया है।
फेंगाडया हँसने लगा।
तभी गुफा के बाहर कुछ खुसफुसाया।
फेंगाडया ने नाक फुलाकर सूंघा।
सूअर.... देवाच्.. । वह पुटपुटाया।
दोनों ने उठकर लाठी संभाली।
दबे पांव से दोनों गुफा के बाहर आ गए।
--------------------------------------------------------------------------


No comments: