॥ ३३॥ फेंगाडया और लम्बूटांगी का झगड़ा ॥ ३३॥
सुबह हुई।
लुकडया को हगने के लिए बाहर लाया था। वह हो गया तो फेंगाडया उसे कंधे पर डाल कर वापस गुफा में ले आया।
लुकडया कराहा।
फेंगाडया उकडूँ बैठा। लुकडया के पैर में बेलें कस कर बांधीं।
लुकडया की चीख निकली।
फेंगाडया की बांहे मजबूत थीं।
उसने नीचे से मोटी टहनी का आधार देकर लुकडया की दोनों टांगे सीधी फैला दीं।
लुकडया ग्लानि में डूब गया।
फेंगाडया ने उसके पैर पर मिट्टी, झाडपाला और पानी का लेप दिया।
फेंगाडया गुफा के मुहाने पर आ बैठा। बगल में लम्बूटांगी।
अब लुकडया चिल्लाया- फेंगाडया, जानवर है तू। मार मुझे.... मार डाल।
उसका गला बैठ गया। रात भर चीख रहा था।
फेंगाडया सनक गया।
तडाक् से उठा और लुकडया के पास जाकर सण्ण् से जोरदार थप्पड़ उसके मुंह पर मारी।
लुकडया बिलबिलाया। जोरदार थप्पड से चुप पड गया।
लम्बूटांगी यह सब देख रही थी। वह उठी। पीछे से फेंगाडया को पकड़ने लगी।
फेंगाडया गुरगुराया। झटके से उसे ढकेल कर लाठी हाथ में ले ली। गुफा के मुँहाने पर जाकर बोला- मैं जाता हूँ, तू यहीं रह जा।
लम्बूटांगी तडाक् से उठ गई। उसकी आंखें चमकीं। चेहरे की नसें तन गईं।
मैं रह जाऊँ? यहाँ?
हां।
क्यों?
फेंगाडया ने उंगली दिखाई। थूकते हुए बोला- तू और मैं दोनों चले गए और यहाँ कोई जानवर आ गया- चीता या तेंदुआ..... फिर?
लम्बूटांगी एक छलांग में गुफा के बाहर हो गई।
फेंगाडया ने उसे धर लिया। अंदर ढकेल दिया।
मैं दिन में कभी गुफा के अंदर नही रुकी।
आज रुकोगी।
नही।
फेंगाडया ने लाठी उठा ली।
लम्बूटांगी सावधान हो गई। झट
से पीछे हटी।
फेंगाडया ने भी लाठी घुमाते
घुमाते रोक ली।
मेरी शिकार? मेरी भूख?
लम्बूटांगी ने पूछा।
मैं लाऊँगा।
लम्बूटांगी अचानक समझ गई।
वह चिल्लाई-
यह.... इसके मरने तक? मैं
अकेली.... रोज यहाँ..... अकेली बैठी रहूँगी? इसके मरने तक? हां। फेंगाडया ने भारी
स्वर में कहा।
वह थूकी।
क्या मैं पत्थर हूँ, कि बैठी
रहूँगी? मैं भी बाहर जाऊँगी। तुम्हारे साथ। हम दोनों शिकार करेंगे। जुगेंगे। इसे
मरने दो यहाँ।
हम दोनों दूसरी गुफा ढूँढ
लेंगे। मैं यहाँ नही रहूँगी।
लंबूटांगी उसके पास आ गई।
फेंगाडया फिर तन गया।
कल इसे लाया था तब? तू हरषा
गई थी। फेंगाडया फेंगाडया कह कर मुझसे लिपट गई थी।
मैं भरमा गई थी। लंबूटांगी
बुदबुदाई।
यह अपना है, यह लुकडया हमारा
अपना है। इसे मैं उठाकर लाया।
फेंगाडया ने आकाश में हाथ
फेंके।
क्यों नियम तोड़ा? लंबूटांगी
चिल्लाई- मर जाता। साथी भी तो मर गया।
कल तू..... फिर मैं भी.....
ऐसे ही मरना है?
फेंगाडया ने पूछा।
लंबूटांगी चुप रही।
लेकिन फिर, मैं हर दिन
अकेली- यहाँ बैठी रहूँगी? उसने पूछा
फेंगाडया हंसा- मैं शिकार
करूँगा- शिकार लाऊँगा। तेरे लिए, लुकडया के लिए और अपने लिए। फिर तू क्यों नही
रुकेगी?
लम्बूटांगी विचित्र हंसी।
फिर..... पहली शिकार मेरी...... फिर लुकडया की और बची तो तुम्हारी।
ठीक है। फेंगाडया ने कहा।
और किसी दिन मैं चाहूँ तो तू
रुकेगा यहाँ लुकडया के पास और मैं जाऊँगी शिकार के लिए।
ठीक है। उस दिन पहली शिकार
मेरी होगी और आखिर में तेरी। फेंगाडया ने लम्बूटांगी की आंखों में देखकर कहा।
लम्बूटांगी ने भी आंखे गडाकर
उसे देखा।
नियम था- जो शिकार लाएगा,
पहले उसीकी। बची तो दूसरे की।
लेकिन आज वे दोनों अलग नियम
बना रहे थे।
अब शिकार में तीन जनों के
लिए करनी थी।
दो रहेंगे गुफा में। केवल एक
ही बाहर।
फेंगाडया का शरीर तन गया।
उसने लंबूटांगी को देखा जो
हंसकर उसे चिढा रही थी।
देवाच् लुकडया को ले आया
इसलिए मुझे भूखा रखेगा तू?
एक नियम तोडा तो दूसरा भी
तुडवाएगा तू?
ठीक है, मैं भूखा भी रह
लूँगा।
लंबूटांगी को बोला- रुक तू,
मैं चला।
लंबूटांगी का चेहरा फीका हो
गया।
झट से घूमकर फेंगाडया निकल
गया। क्षणभर में ओझल हो गया।
लंबूटांगी गुफा के मुँह पर
खडी रही देर तक।
फिर मुडी, अंदर आई।
लुकडया के कंधे पकड कर उसे
जोर से हिला दिया।
वह चीखने लगा।
लंबूटांगी रोने लगी।
रोते रोते उसने अपना शरीर उसपर
झोंक दिया।
एक विचित्र उन्माद में दोनों
थरथराते रहे।
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