Wednesday, 23 November 2016

॥ ४१॥ फेंगाडया भरमाता है ॥ ४१॥

॥ ४१॥ फेंगाडया भरमाता है ॥ ४१॥

दोपहर का सूरज ढलने लगा था।
फेंगाडया शिकार के लिए बाहर गया था।
लुकडया की वेदना थम नही रही थी।
वह सरक कर गुफा के बाहर आ जाता था।
उसे कंधे से दबाकर वापस गुफा में खींचते खींचते वह थक गई। पास आकर बैठ गई।
कच्च्‌ से लुकडया ने उसकी बांह पर काट लिया। चीख कर उसने लुकडया को छोड़ दिया। सारा जी समेटकर लुकडया फिर गुफा के बाहर घिसटने लगा।
दहिना पैर मानों आग हो गया।
कराहते हुए वह आगे घिसटता रहा।
लंबूटांगी क्रोध में पागल हो गई। लकुडया की पीठ पर उसने जोर से वार किया।
वह थम कर रुक गया। बिना हिले डुले पडा रहा।

  
लंबूटांगी घुटनों में मुँह डालकर बैठी रही।
दो दिन और दो रात बीत चले थे। लुकडया बेकाबू हो रहा था।
अचानक गुफा के बाहर कुछ खुसफुसाया। एक उग्र गंध नाक में समा गई।
बाघ.....। लम्बूटांगी ने चीख चीख कर हल्ला मचा लिया।
थरथराती हुई वह चीखती रही......।
एक उलटी छलांग लगाकर वह जानवर चला गया।
क्या पता कैसे।
थरथराते हुए लम्बूटांगी बैठ गई। देर तक वैसी ही बैठी रही।
दमदार पैरों की आवाज आई। वह चौंक गई।
फेंगाडया अंदर आया। कंधे पर से हिरन उतार कर जमीन पर फेंक दिया।
लुकडया को यों पडा देख कर सन्न रह गया। लम्बूटांगी आगे आई। थरथराती उससे लिपट गई।
बाघ.... बाघ आया था।
फेंगाडया की आंखों में चिंता छा गई। उसने लम्बूटांगी को भींच लिया। उसकी नसें तन गईं।
अवश अवेग से लम्बूटांगी उसकी बाँहों में समा गई। चुंबनों की बौछार।
दोनों जुगने लगे। फिर शांत हुए।
कुछ देर में फेंगाडया उठा। लम्बूटांगी को अपने से अलग किया और अलाव जलाने लगा।
लम्बूटांगी हिरण भूजने लगी।
फेंगाडया चलकर लुकडया के सामने खड़ा हो गया।
लुकडया की आँखें भर आईं। मुँह फेर कर वह रोने लगा।
फेंगाडया को यह सब असह्य होने लगा।
ताडताड चल कर वह गुफा से बाहर पठार की कगार पर आ गया। उसके पेड़ के पास।
नीचे गहरी घाटी थी। घनी झाड़ी।
सूरज डूबा। घाटी पर एकाएक घना अंधेरा छा गया।
फेंगाडया बैठा रहा।
आकाश में इक्का दुक्का नक्षत्र चमकने लगे। फेंगाडया ने मुडकर देखा। दूर गुफा में हिरन भूँजा जा रहा था।
दहिनी ओर अपनी गुफा। बांई ओर यह गहरी घाटी। चारों ओर अंधेरा.... आकाश के नक्षत्रों को भी समेटने वाला।
वह नही था और बाघ आ गया।
फिर आया तो अकेली लम्बूटांगी क्या कर लेगी?
यह सारा नया था। बाघ के लिए भी।
दिनभर गुफा में कोई नही होता था- आदमी की गंध के सिवा।
लेकिन आज नया घटा है।
लुकडया का पाँव टूटा हुआ। वह अकेला कैसे रहेगा?
इसलिए लम्बूटांगी भी बैठी उसके साथ गुफा में।
लेकिन फेंगाडया कैसे बैठ सकता है?
उसकी भूख है। लम्बूटांगी की भूख है, लुकडया की भूख है। सब के लिए शिकार उसे ही लानी है।
इसलिए फिर फिर यही घटेगा। बाघ फिर आएगा। बार बार वापस नही जाएगा। किसी दिन दोनों को फाड़ कर खा लेगा।
उस रात वह वापस आएगा तो देखेगा-
मरी हुई लम्बूटांगी- फाड़ा हुआ लुकडया- आधा खाया हुआ।
उसने सिर हिलाया।
तो फिर उस दिन लुकडया को वापस लाकर क्या किया? एक लुकडया को क्यों बचाया? दो को मरवाने के लिए?
देवाच् वह चीखा।



देवा च् तुम्हारी आवाज क्यों सुनी?
ये, ये देखने के लिए?
उसने फिर एकटक गुफा की ओर देखा। गुफा में लम्बूटांगी। अंदर अलाव की चमक। लुकडया।
अचानक अलाव लहलहाया।
वह प्रकाश फेंगाडया की छाती में भर गया। उसकी आँखों में उतर आया।
उसकी आँखों ने साफ देखा- कई सारी सू..... कई पिलू.... कई आदमी। लुकडया अकेला नही था। उसे घेरकर आदमी बैठे थे- बतियाते हुए।
लम्बूटांगी अकेली नही- दूसरी सूओं के साथ नाच रही थी- धान फेंक रही थी।
पिलू इधर उधर दौड़ लगा रहे थे।
एक कातल पर बापजी बैठा था... पास के कातल पर फेंगाडया। दोनों हँस रहे थे। बातें कर रहे थे।
अलाव जल रहा था।
भैंसा भूना जा रहा था।
बड़ा भैंसा..... छोटा सूअर या हिरन नही।
अंधेरा भी इतना सुन्न करने वाला नही।
नक्षत्र भी इतने अकेलपन में नही।
पेड़ ऐसे पराए नही।
अलाव ऐसा शांत नही।
शोर है आदमी का, सूओं का, पिलूओं का। कोई चिल्ला रहा है। कोई भाग रहा है। बापजी हंस रहा है। फेंगाडया भी हंस रहा है। लोग नाच रहे हैं। अलाव के चारों ओर डोल रहे हैं।
कोई बुढिया झगड़ रही है। कोई खाँस रही है। यहाँ मुझे लुकडया की क्या चिन्ता? कुछ भी तो नही।
लम्बूटांगी की पुकार से फेंगाडया होश में आया। वह हाथ हिला हिला कर उसे पुकार रही थी।
हिरन....।
वह अलाव के पास गया। एक टांग उसके आगे रखकर लम्बूटांगी लुकडया को टुकड़े खिलाने लगी।
मांस उठाकर फेंगाडया बाहर आया। सर्वत्र देखा।
कोई नही था।
देवाच् मैं भरमा गया......।
मैं सो रहा हूँ या जाग रहा हूँ?
पहले छाती में कुछ हिला- लुकडया को अकेला, जखमी देख कर।
फिर छाती में कुछ बजा- उठा लिया उसको।
और आज ये अनदेखा देखना।
बस्ती ही थी वो। धानबस्ती।
बापजी जाने से मना करता था लेकिन बतियाता था इसी के बारे में।
सिर झटक कर वह वापस गुफा में गया।
लुकडया आज खा रहा था। लम्बूटांगी उसे खिला रही थी। लुकडया का विरोध बंद हो गया था। लेकिन फेंगाडया को देखकर वह तिरस्कार से थूका।
यही ना.....। कई ऋतु तक.... मैं ऐसे ही खाऊँगा- पडे पडे। फिर मर जाऊँगा।
फेंगाडया ने सिर हिलाया। लुकडया के दुखते पांव के पास वह उकडूं बैठ गया। धीरे से लुकडया की जांघ पर हाथ फेरा। लकड़ी के दोनों फट्टे ठीक किए। बेलों की गांठ को थोड़ा कस दिया। लुकडया कराह उठा। लेकिन इस तरह बांधने से जांघ की वेदना कम हो रही थी।
एक आवेश से फेंगाडया उठा।
तू चलेगा लुकडया। तू जिएगा.....तू चलेगा।
लम्बूटांगी चकित होकर उसे देखने लगी।



फेंगाडया चकित होकर उसे देखने लगी।
फेंगाडया का आवेश उफन रहा था। अपनी जांघ दिखाते हुए बोला- देखो.... भालू ने काटा था। कई ऋतु पहले की बात है। बापजी था तब। इतना माँस नोच लिया था- उसने मुट्ठी से इशारा किया।
लेकिन अब? है कोई गड्ढा? है कोई दुख?
नही।
भर गया यहाँ मांस?
फेंगाडया अब हांफ रहा था।
मांस भर जाता है। इतना बडा गड्ढा भर गया।
फिर हड्डी क्यों नही भरेगी?
भरेगी। लुकडया की हड्डी भरेगी।
लुकडया और लम्बूटांगी के चेहरे पर अविश्र्वास देखकर वह चिढ गया। उठकर लम्बूटांगी को कंधे से झकझोर दिया।
लेकिन उसका चेहरा वही निर्विकार।
चिढ कर फेंगाडया थूक दिया और ताडताड चलकर फिर आया पेड़ के पास। उसके तने से टिक गया।
सिर पर विशाल पेड़ फैला हुआ था- पत्ते, फूल, फल।
निश्चय से वह बुदबुदाया- हड्डी भरेगी।
वह उठा और एक डाली को बीच से तोड दिया।
ये डाली बढती है- तोड़ो तब भी बढती है। केवल जड़ का आधार मजबूत चाहिए। जड़ को निश्चय से टिके रहना चाहिए। डाली को संभालने वाला मजबूत जड़। और हाँ, साथ में वर्षा भी चाहिए।
देवाच् मैं मजबूती से खड़ा हूँ। मैं हूँ लुकडया का पेड। मेरी बांहे मजबूत हैं।
हिरन, सूअर, खरगोश की शिकार है, भूख के लिए ग्रास है।
लुकडया की हड्डी भरेगी।
हांफते हुए वह बैठ गया। सामने देखने लगा।
अलाव बुझ रहा था।
उसे लगा- थोड़ी देर पहले देखे वे सारे लोग अपनी अपनी गुफा में चले गए हैं।
कल सूरज उगेगा।
सारे बाहर निकलेंगे।
नया दिन निकलेगा।
लुकडया झोंपडी से बाहर आकर उसकी पीठ पर धौल मारकर उससे लिपट जायगा।
फेंगाडया हंसता हुआ उठा और गुफा में जाने लगा।
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