Wednesday, 23 November 2016

॥ ३४॥ वाघोबा टोली में बापजी की बली ॥ ३४॥

॥ ३४॥ वाघोबा टोली में बापजी की बली ॥ ३४॥

धपधप करती छातियाँ। तेज चलती साँसे।
चढाई, उतराई।
लय में चलते पाँव।
उनकी पीठ पर लदा बापजी।
कहाँ ले जा रहे हैं मुझे? बापजी मन ही मन बोला- नीचे बस्ती में?
उसकी छाती धड़की।
बापजी, खतम हुआ तू। इतना जी लिया, पर अब कुछ ही देर में सब खतम। मरेगा तू। बली दिया जायेगा। उसके विचार चल रहे थे।
मैं था बापजी।
कहीं अकेला पिलू दिखा, अकेली सू, अकेला आदमी।
कि मैं पेड़ बन जाता था- आधार देने वाला, छाँव देने वाला।
उसे फेंगाडया याद आया।
एक सुकुमार, छोटा सा पिलू। थरथराता। लताओं की जाली के पीछे छिपने को धडपडाता।
इन्हीं हाथों ने उसे उठाया था।
जिलाया था।
तैयार किया। मानुसपन सिखाया।
उससे बना भैंसे सा मजबूत एक आदमी।
टहनियों की तरह पसरे हुए हाथ। जाँघें मानो पेड़ की मजबूत तने।
और आँखें नदी के डोह जैसी स्थिर। गहराई में झांकने वाली।
चौड़ी छाती। चाल भी वैसी ही डौल वाली जैसे भैंसे की।
फेंगाडया की आँखें मानों प्रकाश के पुंज।
केवल फेंगाडया ही नही। कितने सू, कितने पिलू।
देवा, कभी कहा नही मैंने कि यह आदमी, या यह सू मैं मारता हूँ, बली देता हूँ, रक्त पीता हूँ......तू मुझे बड़ा कर।
कहा था कभी? ना, कभी नहीं।
इतना बूढा बनने तक जिया। फिर भी कभी नही।
फेंगाडया को मानुसपन सिखाया।
लेकिन अभी और कितनी बातें बताना बाकी हैं।
कौन सी बातें थी? हाँ, वही, बस्ती बनाकर रहने वाले मानुसों की बातें।
उसे बताना है कि......
इन्हें चाहिए होता है बली। मेरे जैसा एक आदमी बली। क्यों?
इसलिए कि मैं इस बस्ती का नही।
देवा, सुन रहा है तू?


मैं उनकी बस्ती का नही, इसलिये मुझे मरण है। इस तरह टँगा हुआ मरण।
मैं मरूँगा। न किसी से हाथापाई, न जखम, फिर भी मैं मरूँगा।
क्यो? केवल इसलिए कि इस नरबली टोली ने कहा।
इस जंगल में दूसरा कोई इस तरह नही मरता।
बाघ नही, रीछ नहीं। चार भैंसे एकत्र होकर पाँचवे भैंसे को यों टाँगकर नही ले जाते।
लेकिन मानुस जब बस्ती में रहने लगता है, तब वह.....
देवा, तब वह जानवर हो जाता है।
मानुस जब अकेला रहता है, छोटे गुट में रहता है, तब नही कोई किसी को इस तरह मारता।
लेकिन बस्ती में रहने पर मारता है। देवाच्च्....
एक चढाई खतम हुई। अब उतराई शुरू हुई।
उसके शरीर में बंधी हुई बेलें अब चुभ रही थीं। बापजी वेदना से कराहा।
पेट भूख से बिलबिलाता। कण्ठ प्यास से सूखा।
अब बांधेंगे उसे खंभे से।
पहले खिलाएंगे उसे सूअर का भुना हुआ मांस।
फिर नाच...... उसके चारों ओर।
हुंकार,गर्जना......।
फिर धकेलेंगे उसे आग में।
चारों ओर आग की लपटें।
भूनेंगे उसे। भूरा होने तक। स्वादिष्ट पक जाने तक। फिर नोचकर खाएंगे सब।
बापजी सुध खोने लगा।
जब आँख खोलीं तो उसे लादने वाले वाघोबा बस्ती तक आ पहुँचे थे।
दो बाँसों की टिकटी। उन पर टंगे हुए नरमुण्ड।
उन्हीं के नीचे से बापजी गुजरा।
उसकी आँखें उपर को उठी हुईं।
बीचों बीच एक बंदर टंगा था। मरकर सूखा हुआ।
उसकी आँखें बापजी की आँखों से मिलीं।
मानों कह रही हों- कल तेरा मुण्ड भी लटकेगा बाकी मुण्डों के साथ। मेरे बगल में।
बापजी पर पागलपन चढ़ आया। वह हँसा।
ठठाकर हँसता रहा। उन्माद में भरकर।
हँसी सुनकर उसे ले जाने वाले थमक गये।
उनके हाथ ढीले पड़े।
जिस बाँस पर बापजी बंधा था, उसे घबराकर झाड़ियों में पटक दिया।
बापजी का सारा शरीर झनझनाया। कंटीली झाडियाँ उसे नोचती हुई झुक गई।
गहरी वेदना की सनसनाहट से आँखें अँधियाईं।
थोडी देर में सुचित्त हुआ तो बापजी ने देखा, वह अकेला ही था।
अब भी उसी मजबूती से बंधा हुआ।
छूट पाने का कोई उपाय नही।
उसकी छाती धडकी। देवाच्च्च्...।
एक किरण दीख रहा था....आशा का...जगने की आशा।
वही किरण पकड़ कर वह सावधानी से विचार करने लगा।
शिकार अब पलट गई थी।
भैंसे की तरह निरर्थक टक्कर देने वाला बापजी नही। शिकार पलटना ही सबकुछ है। सोच, बापजी, सोच।



उसे लादकर लाने वाले अब बस्ती में पहुँच गए थे।
पाषाण्या के सामने खड़े थरथर काँप रहे थे।
बली हँसा। हाँफते हुए उन्होंने कह सुनाया।
पाषाण्या की छाती धक्‌ से रह गई।
यह कैसा असगुन है? आज तक कभी ऐसा नही हुआ।
उसने लाठी उठाई। ले आओ, वह चिल्लाया।
चारों वापस मुडे। फिर चले।
बापजी ने पैरों की चाप सुनी। वह फिर से हँसा। ठठाकर जोर से हँसा।
डरते हुए वे उसके पास आए। बापजी को कंधे पर लाद लिया। दौड़ते हुए उसे ले चले।
बापजी को खम्भे से बांध दिया। जय वाघोबा का घोष गूंजने लगा।
बापजी ने आँखें खोलीं। वह भी चिल्लाया- जय वाघोबा।
सब फिर थमक गए। बुढिया आगे आई।
यह शैतान......। वह चिल्लाई। यह बली नही है।
सब चिल्लाये- नहीं।
पंगुल्या आगे आया- सूरज अब डूबेगा। वह चिल्लाया।
सारे फिर चुप हो गए।
बली तो देनी ही होगी।
बली का शिकार हँसे तो उसे बली नही दो, यह किसने कहा है?
बापजी फिर चिल्लाया- जय वाघोबा, और जोर से हँसा।
पाषाण्या डर से भरकर आगे आया।
नही, नही, हँसने वाला बली नही।
बली तो चाहिए ही- एक जन चिल्लाया।
फिर एक पिलू की बली दे दो। लाल्या चीखा।
बापजी थूका। फिर से जय वाघोबा का नारा लगाकर बोला-
उदेती में धानबस्ती है। वहाँ बाई है। उसे मंत्र.......!
उसने कहा- वाघोबा टोली का नाश हो।
अच्छा बली न हो तो टोली का नाश।
क्या चाहिए सर्वनाश?
यदि नही तो अच्छी बली देनी होगी।
आँखों की कोर से बापजी उन्हें आजमाने लगा।
सबके चेहरों पर भय की छाप।
लाल्या आगे बढा। उसे इशारे से रोकते हुए बापजी चिल्लाया--
आज बली नही दिया तो बाई के मंत्र फेंके पक्षी यहाँ आयेंगे। सब पर मंत्र फेंकेंगे। यहाँ सब मर जायेंगे।
वाघोबा को बली चाहिए। लाल्या उंची आवाज में चिल्लाया।
सब चिल्लाये- वाघोबा को बली चाहिए।
बुढिया जोर से चीखी- वाघोबा को बली चाहिए।
वाघोबा को बलीच्च्...
वह आगे आई। भीड में खड़े एक पिलू को खींचा और एक झटके में उसे लाल्या की ओर ढकेल दिया। लाल्या ने उसे उठाकर आग में फेंक दिया।
पाषाण्या आगे आया। बापजी की बेलें काटकर उसे अलग ले आया।
बापजी एक पत्थर पर बैठ गया। अपने थरथराते शरीर को भरसक संभालते हुए।
उसे घेर कर थे पाषाण्या, लाल्या.... इतर सब।



धानबस्ती पर बाई है? मंत्र है? पाषाण्या ने पूछा। सच है यह सब?
बापजी का तनाव जाता रहा।
बच गया तू बापजी। अब धानबस्ती की बाबत कुछ बताना पडेगा। बाई...मंत्र...
यदि तुझे जीना है, तो हर दिन बताना पडेगा।
इन जानवरों का ध्यान मोडना होगा धानबस्ती की तरफ। तभी उनका ध्यान तुझपर से हटेगा।
बापजी, बोल, कुछ भी बोल, पर बोल।
इनका भय बढा दे। बेवकूफ भैंसे बना दे इन्हें।
तभी तू जिएगा।
किसी ने देखी है वह बस्ती? उसने पूछा।
लाल्या आगे आया। मैं लाल्या, मैंने....।
बापजी हँसा। यह है उसका पहला भैंसा। आजसे बापजी इसे बिदकाएगा।
जो कहना है इसको कहेगा। यह बाकी सबको बताएगा।
बापजी हँसकर बोला- लाल्या, तू तो खुद इतना घूमने वाला। मैं क्या बताऊँगा। तू तो जानता ही है सब।
लाल्या का चेहरा अभिमान से भर गया।
लाठी तौलते हुए एक ही झटके में वह बापजी और पाषाण्या के पास पहुँचा।
धानबस्ती.....दूर....उदेती दिशा में।
आजतक....मैं बोला नही किसी से।
सोचा, हम यहाँ हैं, इस तरफ। वे उधर उस तरफ।
लेकिन अब समय आ गया है। वह बुदबुदाया।
अपनी वाघोबा टोली को बचाना है।
धानबस्ती को मरना पड़ेगा।
बाई को मरण। धानबस्ती को मरण।
सारे उसे देखते रहे।
आग से महक उठने लगी। बली अच्छी तरह भुना जा चुका था।
जय वाघोबा, जय बली। एक आदमी उन्माद में चिल्लाया।
दूसरा एक लाठी के छोर पर चुभाया हुआ माँस का टुकड़ा ले आया।
सब उठे। नाच आरंभ हुआ।
बापजी के पास माँस का एक टुकड़ा आया।
काँपते हाथों से उसने मुँह में डाला।
फिर लटपट चाल से वह दूर हट गया।
चारों ओर नाच की गति बढ रही थी। उन्माद फैल रहा था। ज्वालाएँ भड़क उठी थीं।
घबराकर बापजी बैठ गया। आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। उसी में स्पष्ट दीखीं उसे पिलू की आँखें। भय से बाहर निकलतीं।
वह थरथराया।
वह पिलू.....देवाच्
वह आदमी का ही पिलू था। मर गया। मैं बच सकूँ इसलिये मरना पड़ा उसे।
मिला होता मुझे जंगल में तो अपनी मुट्ठी में उसने मेरी अंगुली कसकर पकडी होती।
मैं उसे शिकार ला देता।
डोह के पानी में उसे तैरना सिखाता।
अलाव के पास बैठकर बतियाता।
इस बापजी की छाँव में पलता बढता वह।
आज वह मर गया। फेंगाडया हो सकता था- लेकिन मर गया।



गुफा में होता तो फेंगाडया बनता।
बस्ती में था इसी से मर गया।
मैं बच जाऊँ, इसलिए एक पिलू को मारा आज मैंने।
मैंने मारा? नही देवा। इस बस्ती ने मारा।
क्यों मारा? यही बस्ती का नियम है।
इन जानवरों का नियम।
हँसने वाले आदमी की बली नही चाहिए।
इसी से आज मैं बच गया देवाच्....
हँसा इसलिए बचा।
लेकिन अब मैं ऐसे नही मरूँगा।
मानुस को जानवर बनाने वाली, अपने ही पिलू को आग में धकेलने वाली इस टोली का मैं नाश करूँगा।
यही टोली नही देवा, हरेक टोली, हरेक बस्ती का मैं नाश करूँगा।
टोली मानुसपन खा जाती है। मानुस से जानवर बना देती है।
मैंने दो टोलियाँ देखीं है- केवल दो। उनका नाश करूँगा।
अगर तीसरी कोई बनी हो, उसका भी नाश करूँगा।
मानुस टोली में जाए, ऐसी टोली ही नही रहने दूँगा देवा, नही रहने दूँगा।
मुझे बल दो....।
वह उठा। एक आवेश में भरकर नाचने लगा। चिल्लाने लगा।
पाँव कांपने लगे तो गिर गया। फिर उठा.... सामने की झोंपड़ी में घुस गया।
लाल्या जोर से हंसा- भरमा गया है। पाषाण्या भी हँसा।
पंगुल्या आगे आया- सच है यह सब?
धानबस्ती.....बाई.....।
लाल्या ने क्रोध से उसे देखा- मैं झूठा?
पंगुल्या सटपटा गया। नही, लेकिन पहले कभी तूने...। वह पुटपुटाया।
नही बोला। राह देख रहा था। मुझे लगा था धानबस्ती वाले मंत्र नही करेंगे।
लेकिन नही। शैतान हैं वे।
धानबस्ती को देना है मरण। लाल्या चिल्लाया।
सब चिल्लाये- धानबस्ती को मरण।
झोंपड़ी में बापजी ने मुँदी आँखों से गर्जना सुनी। वह हँसा।
शिकार पलटी, बापजी, तेरी शिकार पलटी।
बगल में पैरों की चाप आई। काँपकर उसने आँखे खोली-
उसके पास बुढ़िया उकडूँ बैठी थी। हाथ में बली की एक हड्डी। चखते हुए मुँह से लार बही जा रही थी।
बापजी ने सन्न्‌ से उसे एक थप्पड मारी।
चीखते हुए वह बाहर निकल गई। सब हँसते रहे।
बापजी ने करवट ली। अंगूठा फिर झनझनाया।
आज पेट भरा हुआ है।
कितने दिनों बाद ये भरे पेट का दिन आया है।
नींद आँखों में उतर आई। वह खर्राटे भरने लगा।
नचंदी का दिन ढल गया। अंधेरे में नक्षत्र अलाव के अंगार की तरह चमकते रहे।
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