॥ ३०॥ पायडया बनाए धान में आकृति ॥ ३०॥
कई आदमी ओर सू गए थे शिकार करने।
और कई सूएँ गई थीं दूर नदी किनारे--
गीली मिट्टी से खप्पर थापने।
खप्पर थापने की ऋतु बस कुछ ही दिनों में बीत जायगी। फिर बादलों भरा आकाश और बारिश की ऋतु।
पायडया अकेला औंढया देव के पेड के नीचे बैठा सोच रहा था। कितने पिलुओं को वह कहानी सुना चुका है। खप्पर के ऋतु की कहानी।
खप्पर थापने के गरम ऋतु में नरम चिकनी मिट्टी को हथेली पर थाप थाप कर खप्पर बनाते हैं। फिर उन्हें धूप में सुखाते हैं। फिर अलाव में भुनते हैं और झोंपडों में रख देते हैं। बड़े खप्पर में धान भूनकर उसे कूट लेते हैं। उसका छिलका उतर जाता है। फिर थोड़ा थोड़ा कूटा धान छोटे खप्पर में पानी के साथ अलाव पर रख देते हैं। रट-रट की आवाज के साथ धान पकता है। उसे पीते हैं।
पायडया ने देखा--
अब हवा थम गई थी।
उसने डूब डूब दिशा में देखा। सूरजदेव वहाँ तेजी से उतरने को है।
पायडया ने धान का ढेर फैलाया। उसकी अंगुलियाँ फिरने लगी ढेर में।
देखते देखते धान में एक आकृति बन गई। उसे मिटाया। फिर दूसरी...... इस बार झोंपड़ी की.... साथ में बादल...
वर्षा की बूंदें।
अंगुलियाँ फिरती रहीं।
फिर एक सू की आकृति। उसका
पेट उभरा हुआ। उसने पेट का आकार और बड़ा किया।
उसकी जाँघे फैला दीं।
एक पिलू वहाँ से बाहर निकलने
लगा.....
हवा का झोंका आया। धान उड़ने
लगा। आकृति बिखर गई।
पायडया उदास हो गया।
आज कोमल-- फिर चांदवी।
पायडया-- तू निरा पत्थर है।
मालूम है तुझे। फिर भी हर बार दुख.....। हर बार आंखों में पानी।
उसे लगा-- हम सभी धान में
बनी आकृति की तरह हैं।
सारे आदमी-- सू।
हवा आई तो बिखर जायेंगे...
उड़ जायेंगे।
कौन फूँकता है ये हवा?
यह नाक में जाने वाला
श्र्वास..... यह छाती की धड़कन?
यह सदा चलते रहते हैं। फिर
एकाएक बंद हो जाते हैं..... मरण।
कोई पिलू आता है, रोते रोते
मर जाता है।
सू बढती है.... पिलू देती है
और मर जाती है।
आदमी भी बढता है... फिर मर
जाता है।
बाई एक बार बच जाती है, फिर
बचती है..... फिर बचती है... कई बार।
लेकिन एक दिन वह भी मर जाती
है।
भैंसे, वराह..... सब मर जाते
हैं।
फिर क्या बस्ती रहती है? ये
आदमी, ये सू......
ये खरे हैं या खोटे?
यह मैं जाग रहा हूँ, या भरमा
रहा हूँ?
उसने होंठ सिकोड़े। जोर से
सांस खींची।
एक धीमी धीमी धुन होठों से
बजने लगी।
वह थरथराया।
यह आवाज कैसी? यह धुन कहाँ
से आई? किसे निमंत्रण देती है? मरण को।
वह काँप गया।
धुन बजती रही..... धानबस्ती
पर फैल गई।
अलसाई हुई कोमल ने धुन सुनी।
एक सूक्ष्म टीस उसके पेट से उठ रही थी। रह रह कर। धुन अच्छी लगी।
हवा बढने लगी। धुन रुक गई।
हवा अब जोरों से बहने लगी।
घूच्घूच् करती बस्ती पर शोर
करने लगी। फिर शांत हुई। थम गई।
एक स्तब्धता, अलस फिर बस्ती
पर पसर गया। कोमल की छाती धडधडाई।
उसे लगा मरण का जानवर उसके
एकदम पास आ गया है। दबे पांव। ओट लेकर बैठा है। कभी भी आने को।
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