गुफा के बाहर धवल चंद्रप्रकाश। उजाले में नहाई घाटी। दूर तक
फैली, गहराई में धँसती चली जा रही है। जगह जगह सिलवटों जैसी आकार लेती ऊँचाईयाँ,
नीचाईयाँ।
फेंगाडया ने बडे पेड़ के तने से पीठ सटाई और टांगे लम्बी
पसार लीं।
बगल में उकडूँ बैठा हुआ साथी।
चुप्पी लगाए। मानों वह भी कोई पेड़ हो।
यह बहुत कम बोलता है। हाँ, नहीं, बस।
फेंगाडया अपनी घनी दाढी में मंद मंद मुस्काया।
गुफा के मुहाने पर जल रहे अलाव को देखा।
लुकडया और लंबूटांगी गुफा से बाहर आ रहे थे।
गर्दन हिलाकर फेंगाडया ने साथी को इशारा किया।
पहले वही जुगा था लंबूटांगी के साथ। फिर लुकडया। अब इसकी
बारी थी।
जा तू...
साथी दूर के पहाडों को ताकता रहा... गर्दन हिलाई... अं..
नही।
लुकडया और लंबूटांगी पास आए।
लंबूटांगी ने हाथ से लपेट कर साथी को खींचना चाहा।
उसने शरीर सिकोड लिया।
लुकडया हँसा। बोला..
इसे लंबूटांगी नहीं चाहिए... यह एकदम तना हुआ।
फेंगाडया भी जोर से हँसा।
साथी की आँखों में जानवर छा गया। उसने लंबूटांगी को खींच
लिया।
फेंगाडया देख रहा था।
लंबूटांगी की नजर मानों पत्थर।
फेंगाडया ने सिर हिलाया।
ऐसी नजर हो किसी सू की तो कौन आदमी जुगेगा उसके साथ?
जुगना कोई ऐसा सहज खेल है?
जो ऐसी पथराई नजरवाली सू के साथ भी खेला जा सकता है?
वह तडाक् से उठ गया। लंबूटांगी को कंधों से पकड कर झकझोर
दिया।
तू ही नहीं जुगती..। साथी के साथ... । क्यों?
वही नहीं जुगता.. मना करता है.... उसके स्वर में भी थोडा
आश्चर्य था।
क्यों मना करेगा जुगने से? क्या वह मानुस नहीं?
क्या वह शिकार नहीं करता?
साथी उठा।
उसने फेंगाडयाको अपनी ओर खींच लिया.... जाने दो।
लंबूटांगी चुप।
लुकडया उसके पास सरका हुआ।
एक विचित्र चुप्पी।
फेंगाडया ने आकाश की ओर हाथ फेंके।
देवा... साथी नया है।
लेकिन अब हमारी टोली में आया है तो हमारा ही हुआ।
लुकडयाने समझने के इशारे से गर्दन हिलाई।
फेंगाडया कहने लगा --
पहले केवल मैं और बापजी थे।
फिर यह लुकडया मिल गया..... बाद में एक दिन लंबूटांगी......
और अब यह.... साथी
टोली बडी हो रही है।
यह जो लंबूटांगी है....
अब यह पिलू जनेगी। हाँ.... पिलू।
फिर टोली और बडी होगी।
सब हँसे।
पिलू...पिलू...पिलू...। फेंगाडया उठकर नाचने लगा।
साथी हँसा। फेंगाडया भी हँसा।
फिर ज्यादा शिकार लानी पडेगी..... मैं लाया करूँगा -- साथी
ने कहा।
लंबूटांगी का चेहरा खिल गया। बोली --
मेरा पिलू, मेरा पिलू.... मेरे लिए तू....
पिलू के लिए तू बडी शिकार लाएगा?
साथी ने गर्दन हिलाई। हाँ, लाऊँगा।
वह झट आगे आई।
हरषाकर बारबार साथी को चूमने लगी।
लंबूटांगी, और लुकडया गोल बना कर नाचने लगे।
साथी... साथी.... साथी ....।
साथी उठा। झूमते हुए गुफा की ओर चल दिया।
लंबूटांगी उसके पीछे भागी।
लुकडया थक कर बैठ गया।
फेंगाडया ने उसे देखा और गुफा को देखा।
उसकी छाती गदगदाई।
फेंगाडया एकटक आकाश की ओर देखने लगा।
उसे अपना बचपन दीखने लगा।
अंधियारा, परछाइयाँ, भूख......
अकेला, वह भी निपट अकेला था।
कितने ऋतुओं के पहले की बात है?
उसके पेट में आज भी एक गड्ढा बना देती है।
वह रात। अब भी आँखके सामने है।
पीछे से पैरों की हल्की सरसराहट।
छिपने की निरर्थक कोशिश करता वह।
बापजी की धूमिल से साफ होती जाती छवि।
भय से उसकी साँसें अटकी हुईं।
आखिर बापजी ने आगे बढ़कर उसे उठा लिया था।
अपने पेट से चिपका लिया था।
उस स्पर्श की ऊष्मा अब भी छाती में है।
बापजी उसे गुफा में ले आया।
जीवन में पहली बार उसका परिचय हुआ आग से।
गुफा में वही अलाव, वही भूनता हुआ सूअर, जाडे की ठण्ड को
बाहर धकियाती हुई ऊष्मा। और मंद हास्य से
आश्र्वस्त करता बापजी।
उसका हाथ फेंगाडया के सर पर।
तब मैं भी ऐसा ही था।
साथी जैसा।
आदत नहीं थी तब गुफा की, आदमी की, टोली की या सू की।
फिर बापजी बोलता था। खूब बतियाता था।
एक शब्द उसने सिखाया था- मानुसपना।
मैं तब भी अबोल था इसी साथी
जैसा।
लेकिन आखिरकार बापजी ने सिखा ही दिया मानुसपना।
फिर मैं भी खुल गया..... गाँठे खुल गई। फिर बोलने लगा।
बापजी कहता --
कोई अकेला आदमी दिखे,
अकेली सू दिखे, अकेला
पिलू दिखे, उसे अपनाना चाहिए। सबको साथ लाना चाहिए।
यह सारा जंगल, ये हिरन, ये सूअर --
यह नदी
यह बनाए हैं आदमी के लिए।
आदमी को आदमी का साथ चाहिए।
ऊष्मा चाहिए।
हँसने के लिए, जुगने के लिए.... आदमी को आदमी चाहिए।
याद करते करते फेंगाडया रुक गया।
दोनों बांहे ऊपर उठाते हुए कहा-
अरे साथी, तुम देखोगे।
अभी नए हो, तुम भी देखोगे।
यह टोली है फेंगाडया की, बापजी की।
तेरी भी गांठे खुल जाएंगी यहाँ। देखोगे।
फेंगाडया ने इधर उधर देखा।
आसपास कोई नही था।
लुकडया, लंबूटांगी, साथी.... सब अपने अपने व्यवहार के लिए
इधर उधर हो गए थे।
उसने लम्बी साँस खींची।
चहूँ ओर पसरी शांति की गंध उसके नथुनों में समा गई।
एक विचित्र सा नशा आने लगा।
उस शांति में गंध थी आदमी की - मानूसपने की।
यह सुख बर्दाश्त से बाहर था।
फेंगाडया की छाती गदगदा गई।
पूरी ताकत से अपनी खुशी जताकर चिल्लाया होच् होच् होच्च्
आवाज चतुर्दिक धूमने लगी।
जंगल में थरथरी जाग उठी। चॉदनी भी डोलने लगी।
पहाड़ों से टकरा कर आवाज अब वापस आने लगी।
बार बार... बार बार...।
फेंगाडया उठा और नाचने लगा होच् होच् होच्च्
प्रकृति के रंगमंच पर पुरूष का आदिम नृत्य।
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