Wednesday, 23 November 2016

॥ ८॥ धानवस्ती पर झिंजी पिलू जनती है ॥ ८॥

॥ ८॥ धानवस्ती पर झिंजी पिलू जनती है ॥ ८॥ अधूरा

बाई राह तक रही है। चारों ओर सू, पिलू, आदमी।
चांदवी ने आगे आकर पूछा-
झिंगी ने जना नया पिलू?
बाई ने गर्दन हिलाई।
नहीं, अब तक नहीं।
पायडया गया है -- उधर?
हाँ।
बाई ने आकाश की ओर देखा। सूरज डूबने में अभी थोड़ी देर है।
कल रात से ही झिंजी नदी किनारे गई है पिलू जनने।
दोपहर तक कोई खबर नही आई तो बाई ने पायडया को भेजा।
पायडया ने आजतक कितनी सूओं की मदद की है पिलू जनने में।
किसी सू को जब जचगी का दर्द उठता है, ठीक उसी समय पायडया की लात का हल्का सा झटका यदि उसके पेट पर पडा तो बच्चा तुरन्त फुरंत बाहर निकल आता है। धानवस्ती ने यह कई बार देखा था।


यदि वह लात भी पिलू को बाहर नही निकाल सकी तो बच्चा कभी बाहर नही निकल सकता।
इसी से बाई आतुर होकर पायडया की प्रतीक्षा कर रही थी।
दूर रास्ते पर पायडया दीखा।
चांदवी दौड गई। पीछे दूसरे आदमी, सू, पिलू।
कोलाहल छा गया।
पायडया राह बनाता हुआ बाई तक पहुँचा।
नये जन्मे पिलू को उसने बाई के हाथों में दिया।
सारे उनके चारों ओर जमा हो गए।
मर गई। पायडया ने बुदबुदाकर कहा।
बाई ने दुख से गर्दन हिलाई।
कोमल आगे आई। पिलू को संभाल लिया।
नीली, काली पड़ती देह। पिलू ने चार-पांच बार रुकती रुकती सी साँस ली और प्राण त्याग दिए।
कोमल सिहर गई। पिलू उसके हाथों से गिरते गिरते बचा।
बाई आगे आई। उसके इशारे पर पायडया ने पिलू को ले लिया।
बाई ने थूक निगलकर कहा -- वैसे भी उसे मरना ही था। झिंजी मर गई -- तो उसे थान किसका? दूध किसका?
मैं अब बूढ़ी हुई।
ये दो चार सू हैं -- पर थान में अधिक दूध नही है।
दोनों हाथ आकाश की तरफ उठाती हुई बोली -- हे औंढया देवा,
अब इस बस्ती को दूध भरे थानों वाली एक सू चाहिए।
तभी नए पिलू बचेंगे।
तभी ये धानवस्ती आगे चलेगी।
कोमल धीरे धीरे आगे बढ़ी।
मैं बनूँगी। मैं बनूँगी वह सू।
बाई पायडया की तरफ मुड़ी। दोनों कंधों से पकड़ कर हिलाते हुए पूछा --
झिंजी तो कोमल की तरह नाजुक नही थी। वह ऊँची थी। मजबूत थी।
पिलू भी बाहर आ चुका था।
फिर वह कैसे मरी?
पायडया ने सिर हिलाया।
नाल अंदर ही रह गई।
रक्त बहा। नदी की धार जैसा रक्त बहा।
वह फीकी पड़ी।
हाथ जोड़कर चली गई।
बाई ने उसके कंधे छोड़ दिए।
जाओ। उसे गाड़ के आ जाओ। सम्मान के साथ पूरी ऊँचाई में सीधा गाडना। पिलू जनते हुए मरी है -- कोई साधारण मरण नही मरी।
वह मुड़ी। औंढया देव के पेड़ के नीचे अपने पत्थर पर जाकर बैठ गई।
सारी बस्ती झिंजी के शव को गाड़ने के लिए दूर चली गई।
बाई गदगदा कर रोने लगी। आँधी में फँसे पेड़ की भाँति उसका शरीर हिचकोले खाता रहा।
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