॥ ०१॥ बिछडना बापजी और फेंगाडया का ॥ ०१॥
विशाल काली शिला पर पैर पसार कर बैठा है बापजी।
ये काली, कठिन शिलाएँ इस पहाड़ की विशेषता हैं। उनका नामकरण भी हो चुका है- कातल। इस पर दूब तक नहीं उग सकती।
दूर है फेंगाडया। एक जंगली भैंसे सा मजबूत।
बापजी हँसा। उसे याद आया, वह फेंगाडया- दुबला पतला, आधे पेट वाला।
दुखते अँगूठे की टीस मस्तक तक जा भिडी तो वेदना से बापजी अंधिया गया। वापस साँस रोककर उसने फेंगाडया पर आँखें गडा दीं।
उस तमतमाये वराह को फेंगाडया ने कंधे पर झेल लिया था।
बापजी फिर उठा। टीस फिर सनसनाई। फिर बैठ गया।
फेंगाडया के मजबूत हाथों की पकड़ अब वराह की गर्दन पर थी। लेकिन शक्तिशाली वराह उसे खींचता हुआ ले गया। मिट्टी का एक गुबार उड़ा। फिर बैठ गया।
वराह पांव झाड़ते हुए धंसता गया। भयानक चीत्कार।
फेंगाडया भी उसी के साथ धूल में औंधा।
लेकिन गर्दन पर पकड़ अब भी मजबूत।
वराह की साँसे अटकती हुई। धीरे धीरे वह ठंडा हो गया।
फेंगाडया उठा। मिट्टी झाड़ते हुए। एक हाथ में उठाया हुआ वराह।
वह बापजी के सामने आया।
बापजी की गर्दन डोली।
फेंगाडया, तू ही..........
फेंगाडया ने दो चकमक पत्थर रगड़े, घास जलाई। वराह को भूनने के लिए आग पर रख दिया।
फिर बापजी के सामने उकडूँ बैठ गया। दोनों चुप।
उधर सूरज डूब रहा था। ठंडी हवा बह चली। बापजी सिहरने लगा।
उसने सामने बैठे फेंगाडया को देखा।
ऊंचा, भरापूरा, जैसे एक जंगली भैंसा।
दुखते अंगूठे से फिर एक टीस उठी।
बापजी की नजर में अब भी धूल का गुबार है जो अब तक पूरा नहीं थमा है।
वराह के चीत्कार की आवाज अब भी कानों में गूँज रही है।
बापजी ने थूक दिया।
यही वराह लेकर गुफा में गया-- लुकडया और लंबूटांगी ने देखा.....
तो वह क्या बतायेगा?
कि अकेले फेंगाडया ने मारा...... और मैं खड़ा देखता रहा?
बापजी का शरीर सनसना गया।
आज तक ऐसा एक बार भी नहीं हुआ था.....नहीं हुआ था.....।
बापजी के सामने कोई शिकार कर रहा हो और बापजी खड़ा देख रहा हो..... बिना कोई मदद किये।
नहीं बापजी, अब गुफा तेरे लिये नहीं।
टोली भी तेरी नहीं। अब टोली है फेंगाडया की।
तेरे अब बाल पक गये।
धुँधलाई आँखों से उसने फेंगाडया को देखा।
आज अलाव यहाँ खुले में? उसने पूछा
फेंगाडया ने भुन रहे वराह को पलटा और कहा- हॉ, क्या तुझमें ताकद है? यह पहाड़ चढ़ने की?
या फिर दूसरी गुफा खोजने की?
हमारी गुफा तो अब भी दो रातों की दूरी पर है।
बापजी चुप हो गया। अपना टीसता अंगूठा देखता रहा।
फिर से उसका शरीर थरथराया और छाती में गहरे कुछ घरघराने लगा।
फेंगाडया ने सिर हिलाया। पूछा- अब भी दिखी नहीं वह मानुसबली टोली की बस्ती।
अभी दूर है- डूब डूब की तरफ ही है, लेकिन दूर है।
उधर उदिता में जैसे धानबस्ती है, इधर डूब डूब दिशा में ये मानुसबलि बस्ती।
फेंगाडया ने जमीन पर थूका।
एक अजीब आक्रोश में पूछा- लेकिन क्यों देखना चाहता है तू मानुसबलि टोली को? क्या बस जाना है उसमें?
बापजी हँसा। मैं? मैं तो धानवस्ती में भी नही बसा।
सुन रखो फेंगाडया, सुन रखो। तेरे मेरे जैसे आदमियों के लिए बस्ती नहीं है। अरे, इतना बड़ा वराह अकेले मार गिरा सकता है तू। तेरे लिए बस्ती नहीं है।
तो फिर सफेद बालों वाले बापजी की यह खोज किसके लिए है?
बापजी चुप्प रहा।
फेंगाडया हँसा। मेरा ही बापजी है तू.......
तुझे भी लगता है।
यह जंगल क्या है? रात में झिलमिलाने वाले ये अनगिनत तारे किसके हैं? किसने बनाए हैं?
हम यहाँ क्यों? यह अलाव यहाँ क्यों? पेट में यह भूख क्यों?
छाती में हर प्रश्न पर उठती खलबली क्यों?
यह जो साँस आ जा रही है....... क्यों?
तुझे भी बार बार यही लगता है... मेरी तरह... है ना?
बापजी गदगदा गया।
है, एक तो है जो मेरी भाषा समझता है। मेरे भावों को जानता है।
इसके अंदर की आवाज वैसी ही है जैसी मेरे अंदर की। यह अकेला ही.........
बापजी की आँखें अब लबालब तालाब की तरह भर आईं।
यह फेंगाडया...... इतना सा था।
अब बढकर हो गया है एक वृक्ष। पोषण करने वाला। बापजी को खिलाने वाला।
बापजी को।
बापजी ने फिर एक लम्बी साँस खींची। छोड़ी।
लेकिन बापजी क्यों खाए? वृक्ष की छाँव में खाली बैठे रह कर?
क्यों?
विचारों में डूबे बापजी की आँखों की कोर ने दूर झाड़ियों में हो रही हलचल को छू ही लिया। फेंगाडया के पीछे........
धूल का एक हल्का सा गुबार बन रहा था।
सारा प्राण अंतडियों में समेटकर बापजी चिल्लाया- फेंगाडया, भाग, भैंसे।
पहाड़ पर चढ़ जा, भाग, भाग।
बिजली की तेजी से फेंगाडया उठकर पहाड़ की दिशा में भाग चला। पलक झपकने तक वह आँख से ओझल होने लगा था।
हाँफते, दौड़ते, पठार से दूर...दूर, ऊँचाई पर, जंगलों में।
बापजी भी उठने लगा। और अँगूठे पर फिर लडखड़ाया।
वेदना से फिर चकराया। लेट गया। पूरे वेग से जंगली भैंसों का झुण्ड दनदनाते हुए चला आ रहा था।
अपने शरीर को पलटियाँ देते हुए बापजी लुढकने लगा- पठार से नीचे की ओर...........।
घाटी में ऊँची घास उग आई थी। उसी में जा गिरा। पडा पडा प्रतीक्षा करने लगा।
ऊँचाई पर दौड़ते हुए फेंगाडया के कानों ने टटोला।
सब कुछ शांत हो चुका था। नीचे पठार पर भैंसों के टापों की गूँज बंद हो गई थी।
अब कोई खतरा नहीं था।
वह उकडूँ बैठ गया।
हाँफती साँसे सँभालते सँभालते उसे ध्यान आया।
बापजी तो पीछे छूट गया। उसके अँगूठे की चोट.... और वे भैंसे।
हो ...हो....हो...., उसने आवाज दी।
फिर पलटकर तेजी से पहाड़ उतरने लगा। घाटी तक आया।
धडधडाती छाती से उसने देखा- बापजी कहीं नहीं था।
सर्वदूर भयावह शांति। कोई नहीं. भैंसे नहीं, बापजी नहीं।
अंधियारा आकाश, बुझने की तैयारी में धुसफुस करता अलाव, उसपर अधपका वराह उसी तरह।
मानों कुछ हुआ ही न हो।
वह था। शिकार था। अलाव था। नहीं था तो एक बापजी।
उसने एक लम्बी हाँक दी। फिर एक बार।
बापजी ने सुना। धडपडाकर उठते हुए उसने पुकार लगानी चाही। और रुक गया।
साँस रोककर, शरीर को सिकोड़कर वैसे ही पड़ा रहा।
तुम्हारे दिन समाप्त हुए बापजी। अब फेंगाडया के दिन शुरू।
तेरी टोली अब फेंगाडया की हुई। तेरी नही रही।
क्यों जाना अब उस टोली में वापस? यह टीसता अंगूठा लेकर, खाली बैठकर शिकार खाने के लिए?
फेंगाडया अच्छा है....। हाँ अच्छा है।
तुम्हीं ने बढाया है उसे।
सुनता है अंदर की आवाज को।
लेकिन.....
अब उसकी ताकत ज्यादा है। बाल भी काले हैं।
और तुम? तुम अब थक चुके। सफेद बाल वाले।
मत दो पुकार।
आज से फेंगाडया अलग-
उसकी नदी अलग। तुम्हारी नदी अलग।
आँखे मींच कर वह चुप पड़ा रहा। सर्वत्र अंधियारी शांति।
फेंगाडया थरथराता हुआ खड़ा रहा। जाने कितनी देर।
अब अंधेरा पूरी तरह घिर गया। आकाश में नक्षत्र झिलमिलाने लगे।
आज नचंदी की रात।
ठण्डी हवाएं बहने लगी।
देह पर सरसराने लगी। कानमें बजने लगी।
फेंगाडया का हृदय गदगदा गया।
कितने ऋतुओं का मेरा साथी........
मेरा बापजी। खो गया।
भैंसों ने उसे रौंद दिया? मार डाला?
घसीटते हुए ले गए अपने आवेग में?
फेंगाडया अब अकेला। फिर एक बार अकेला। और कितने ऋतुओं तक?
अथाह दुख से उसने आक्रोश किया होच्च्च्
पहाड़ों से टकराकर वही आक्रोश गूँजने लगा- हो च्च्च्
उसे लगा- वह अकेला नही है।
और एक फेंगाडया है साथ देने के लिए। सामने की पहाड़ी में।
वह झुका।
एक झटके के साथ भुनी हुई शिकार को उठाकर कंधे पर लाद लिया। और ताड् ताड् कदमों से डींगे भरता हुआ फिर से पहाड़ चढने लगा।
चुपचाप पडा बापजी उसके दूर जाते कदमों की आहट सुनता रहा।
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