॥ ५१॥ धानबस्ती पर कोमल की बातें ॥ ५१॥
पायडया पेट के बल लेटा था। आँख दूर पर गड़ी हुई थी। एकटक।
वहाँ बाँस में दो बाँस बांध कर त्रिकाटी झोंपड़ी बनाई हुई थी।
झोंपड़ी के उस पार चमकती हुई नदी।
वर्षा की घों घों करती हवाएँ पानी में हिलोरें ला रही थीं।
पायडया के पीछे पैरों की आहट हुई। उसने मुड़कर नही देखा। न हिला। बाई अब पीछे से सामने आकर बैठ गई।
पायडया एकटक उसे देखता रहा।
बाई के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दीख रही थीं। मानों वहाँ किसी ने एक जाल बुन दिया हो।
आँखों में आँसू।
पायडया उठ बैठा।
एक हाथ से बाई का कंधा दबाकर पूछा-
कोमल के लिए?
हाँ।
पायडया ने गर्दन हिलाई। शून्य चेहरे से वह दूर देखने लगा।
बाई रोती रही।
यह बस्ती......यहाँ के पिलू.....कोमल का पिलू.....
मेरे अब चार ऋतु बचे होंगे। फिर आगे?
आगे की कोई और देख लेगी।
बाई ने गर्दन हिलाई।
नही, बाई होने जैसी कोई नही
है।
यही है जो पिलू जनकर भी
जीवित बची। इसे समझ है। सोचती है। वही अगले पिलू भी जन सकती है- हर वर्षा ऋतु में
एक।
वह......वही बाई है मेरे
बाद।
क्या वह अकेली है? और भी कई
सूएँ हैं। पायडया ने कहा।
नही। बाई ने निश्चयपूर्वक
गर्दन हिलाई।
वह अकेली ही थी बाई बनने
लायक।
तो अब? पायडया ने झल्लाकर
पूछा।
अब ..... कदाचित जानवर खा गए
उसे।
बाई हताश हो चली थी।
कहाँ गई होगी?
गई होगी कहीं। पायडया अब चिढ
कर बोला। टोली का नियम है, अपनी शिकार आप ढूँढने का। आसपास मिली नही होगी शिकार तो
दूर निकल गई होगी। इसमें नई बात क्या है?
या तू सोचती है कि उसे यहीं
बैठाकर शिकार ला देनी चाहिए थी?
तेरी पिलू है इसलिए?
बाई ने अपने आँसू रोककर एक
लम्बी सांस छोड़ी। पायडया सच कहता था। यही हो रहा था और यही होने वाला था।
पायडया ने उसका कंधा
थपथपाया।
उठ। तू तो बाई है.....
सावली। तू ही भरमा जाएगी, रोती रहेगी तो हुकुम कौन चलाएगा?
बहुत काम पड़े हैं अभी तेरे
लिए।
बाई संभली। उठकर चली गई।
पायडया पीछे से उसे जाते हुए
देखता रहा। फिर घुटनों में सिर डालकर कोमल को सोचने लगा।
क्या उसे जानवर खा गए? वह बुदबुदाया।
उसकी छाती में कुछ हिलने
लगा। आँख की कोर में पानी आ गया।
फिर टोली में क्यों रहना?
उसने सिर हिलाया।
बाई भी आखिर सू ही है। रो ही
पड़ी।
मैं आदमी होकर भी आँसू
निकालता हूँ। वह तो सू ही है।
उसने थूक निगला।
लकुटया और दूसरे चार आदमी थे
कोमल के साथ। फिर भी बाघ देखकर डर गए।
कोमल उधर..... ये इधर....।
वाह।
फिर थोड़ा बहुत ढूँढा उसको।
फिर कूल्हे मटकाते वापस आ
गए। घबराए बंदरों की तरह।
कहा- यही नियम है टोली का।
मरने वाला मर जाएगा।
जो बच सकता है, उसे भाग कर
अपने को बचा लेना है।
क्यो बचाना है?
किसी दूसरे दिन इसी तरह से
मर जाने के लिए? एक क्षण वह सुन्न बैठा रहा। फिर तपाक् से उठकर अपनी झोंपड़ी की ओर
चल पड़ा।
सामने चार आदमी बांस ढोकर ला
रहे थे। कई झोपड़ियों में नए वाँस लगाने थे। औत भी कितने काम।
हरेक का अपना सूर्य उगता था-
डूबता था।
धीमे पैरों से वह वापस लौटा।
उन चारों के सामने आ गया।
उधर......। उसने काम की दिशा
में अंगुली उठाई।
नई झोंपडियाँ बनाने के लिए
खुली जगह।
लयबद्ध डग भरते हुए चारों
उधर निकल गए।
पायडया झोंपड़ी में वापस आया।
कोमल की याद में फिर आँसू
बहने लगे।
उसका शरीर गदगदाता रहा।
आँधी भरी हवा घों घों करती
नदी के उपर बहती रही।
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