॥ ६॥ धानवस्ती पर बाई जाग
रही है ॥ ६॥
बाई सो नही पाई।
वैसे भी अब नींद कम हो चली
है।
वह उठी। बालों को सिर से
पीछे किया।
फिर झोंपड़ी के बाहर आई।
ठण्डी हवा से शरीर में सिहरन
दौड़ गई।
औंढया देव के आगे अलाव जल
रहा था।
वहाँ जा बैठी। शरीर को तापा।
थोड़ा अच्छा लगा।
फिर उठी और साथ वाले कातल पर
जा बैठी।
वह उसका पत्थर था।
सामने नीचाई पर पसरी हुई
वस्ती पर नजर डाली।
सर्वत्र नींद का साम्राज्य।
पीछे की ओर पहाड़ी सीमाएँ
फैली हुई...... दूर दूर तलक।
आगे वस्ती। फिर धान की जमीन।
फिर कलकल जाती हुई नदी। जो दाहिनी
ओर एक डोह में समा गई है।
वहाँ से आगे नदी का रास्ता
किसी ने नहीं देखा।
उसे देखने के लिये पूरा पहाड़
चढ़ कर परली पार उतरना पडेगा।
बाई ने क्षणभर आँखें मूँदी।
उसे पुरानी बाई याद आई।
वह भी ऐसी ही जागती थी।
धप्प सफेद केश। झुर्रियाँ
पड़ा चेहरा।
कहती थी- बाई की जिन्दगी
कठिन है।
बहुत लम्बी होती है बाई की
जिन्दगी।
हर दिन की जिन्दगी। जहाँ रोज
जिन्दा रहना पड़ता है।
इतने पिलू जनकर भी बाई मरती
नहीं है।
वह आसानी से, एकदम नहीं मरती
है।
वह धीरे धीरे बुझकर मरती है।
बूढ़ी हड्डियाँ ढोकर।
बाकी जल्दी छूट जाते हैं।
बाई के कंधों पर सबका
बोझ.....।
पुरानी बाई भी ऐसी ही मरी
थी।
मेरा चेहरा अपने थानों में
दुलारते हुए। मरते हुए बोली --
अब यह बस्ती तेरी।
फिर मैं बाई हुई।
कितने ऋतु गए? कौन गिने?
कितने पिलू हुए। कितने मर
गए। कितने जिन्दा बचे।
औंढया देवा का अलाव बुझने का
आया। वह आगे आई।
सूखी लकडियाँ उठाकर आग में
डाली।
अलाव के पास पायडया सो रहा
था।
रोज रात औंढया देव के अलाव
की रखवाली का जिम्मा उसी का है।
पायडया को देख बाई के मन में
टीस उठी- यह मुझसे पहले धरती पर आया। लेकिन मैं इससे पहले थक गई। पिलू जनते जनते
थक गई।
आग लहलहाई तो गरमी से पायडया
उठ बैठा।
सावली? वह बुदबुदाया।
बाई हँसी -- बाई की रीत
संभालते कितने ऋतु बीत गए, लेकिन यह अबतक कभी कभी पुराने नाम से पुकार लेता है।
उसके सर पर धीरे से हाथ
फेरते हुए बोली- सो जाओ। मैं जाग रही हूँ अलाव के पास।
पायडया ने गर्दन हिलाई और
दूसरी तरु मुँह करके सो गया।
मेरा बाई होना अब खतम हुआ।
उसका भी। अब दोनों ही शांत।
जैसे जाड़ों की नदी। भरी भरी
लेकिन शांत।
औंढया देव की कृपा.......
इतने दिन।
लेकिन अब?
आज नरबली टोली यहाँ तक आ
पहुँची।
वह कँपकँपाई।
कितनी पास आ गई थी टोली।
मैं चिल्लाई थी -- वे यहाँ
तक नही आ सकेंगे।
लेकिन क्या ये सच है?
क्या वाकई वे नही आ सकेंगे?
कैसे संभव है उनको रोकना?
पहाड़ी के माथे पर आ गया है
चंद्रमा -- किरणें बिखेर कर पहाड़ को उजाले से नहलाते हुए।
दहिनी ओर से पहाड़ पर चढ़ती
हुई पगडण्डी को पकड़ कर उसकी नजर ऊपर चढने लगी।
एक दिन वहाँ से दर्रा पार कर
उतर गई थी वह सीधे नदी के डोह तलक।
आधा दिन लग गया था। चढ़कर
उतरने में।
औंढया देव ने धानवस्ती के
लिए पठार बाकी ऐसा दिखाया जहाँ तक पहुँचना दुश्र्वार है।
पठार के एक कगार पर विस्तृत
फैली नदी।
और दूसरी ओर ऊँचे चढ़ते हुए
पर्वत।
दहिनी ओर नदी का डोह और डोह
में पैर पसार कर बैठी कई पर्वत श्रृंखलाएं। लेकिन पठार तक आने के लिये खोजना होगा
वह दर्रा.... संकरे गलियारे जैसे। डोह से बिल्कुल सटकर।
बाँई ओर का पहाड़ भी सीधे नदी
में धुसता चला गया है।
उसने उधर से पठार को बंद कर
दिया है।
किसी को पठार तक आना हो तो
दो ही रास्ते हैं। या तो यह पिछवाड़े के दुर्गम पर्वत लांघकर या फिर दर्रे की ओर
से।
पगडण्डी पर चढते हुए फिर एक
बार उसकी नजर जा टिकी जहाँ पगडण्डी बाँई ओर मुड गई थी।
वहाँ दो छोटे धब्बे। पास ही
जलता हुआ अलाव। लकुटिया और सोटया। दोनों जागकर पहरा दे रहे थे।
आगे पीछे हिल रहे थे।
जंगली जानवर आयेंगे तो उसी
ओर से।
इसलिये वहाँ कुछ झोंपडियाँ
थी।
बाई ने फिर लम्बी साँस
खींची।
आज नरबली टोली वाले पास से
गुजर गए।
लकुटिया और सोटया के साथ दो
जनें और रखने पडेंगे।
उसकी छाती तनाव में धड़धड़ाती
रही। काफी देर बाद वह थोड़ी ढ़ीली हुई।
दूर झोंपडी में कोई पिलू रो
रहा था।
वह जल्दी जल्दी चलकर झोंपड़ी
तक पहुँची।
पिलू नींद में ही रो रहा था।
पेट फूला हुआ हाथ पैर सूखी लकड़ी।
उसकी माँ दूर छिटककर सो रही
थी। बेखबर।
बेवकूफ कहीं की।
बाई ने पिलू उठाया और उसकी
माँ के थानों पास रख दिया।
शरीर की गर्मी से पिलू को
राहत मिली। वह शांत हो गया।
बाई वापस अपने पत्थर पर बैठ
गई।
वहाँ से बस्ती को देखती रही।
------------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment