॥ २८॥ धानबस्ती की राह पर
उंचाडी ॥ २८॥
घनी झाडियाँ उजाले को रोक
रही थीं।
उंचाडी रुक गई।
आज कोई शिकार नही मिली थी।
झिंग्या को आगे लेकर वह खडी
रही।
झिंग्या ने अस्थिर आँखों से
देखा। चेहरे पर भूख।
वह हँसी। झिंग्या को खींच
लिया।
उससे लिपट कर वह उंचाडी के
थान चूसने लगा।
अरे, हर बार कहाँ दूध
मिलेगा। रुक।
वह रोने लगा। उंचाडी ने उसके
आँसू पोंछे।
उसे नीचे उतार दिया।
सामने एक पेड पर फल लटक रहे
थे।
उंचाडी झटपट पेड पर चढी।
कुछ फल तोड़ कर नीचे फेंके।
पेड पर पंछी फडफडाए। उंचाडी धप्प से नीचे कूद गई।
दोनों ने फल ही खाए। खट्टा
तीता रस मुँह पर चिपका रहा।
झिंग्या शांत हो गया। उंचाडी
को गोद में सोने लगा। उंचाडी ने उसे अलग किया और खडी हो गई।
अब दिन थोडा सा बाकी था।
कोई गुफा, कोई पत्थर के
कंदरा ढूँढनी थी।
वह दौडने लगी। फिर रुक कर
पीछे देखा।
आज झिंग्या दौड़ नही पा रहा।
वह वापस मुडी।
आज पेड पर ही।
वह झिंग्या के सामने बैठ गई।
झिंग्या उसकी पीठ पर बैठ गया।
झिंग्या को लेकर संभलती हुई
फिर उसी पेड़ पर चढ गई।
ऊपर.... और ऊपर।
पंछी फिर फडफडाए।
एक दो बंदरों ने किच किच की।
उंचाडी ने पेड की शाखों को
समेट कर बेलों से बांध दिया।
उन्हीं बेलों से अपनी कमर भी
बांध ली।
बेलों का आधार लेकर थोड़ी सी
जगह बना ली।
एक तने से टिककर पाँव पसार
कर बैठ गई।
झिंग्या को दोनों टांगों के
बीच सुला दिया।
वह पिलू तुरंत सो गया।
एक चील कहीं से उड़ती हुई आई
और पेड़ पर बैठी।
उंचाडी ने पूछा- तू उदेती की
दिशा से आई है ना?
तो बता, धानबस्ती है?
साथी पहुँचा है वहाँ?
चील फिर उड गई। उंचाडी जागती
रही।
पूरा अंधेरा छा गया। टिटहरी
ने आवाज की।
वर्षा की ऋतु आ चली थी।
कई पेडों पर जुगनू नक्षत्रों
की तरह चमचमाने लगे।
जंगल पर रात पूरी फैल गई।
शांती की चादर पसर गई।
कोई बड़ा जानवर पेड के नीचे
आया।
फिर चला गया।
उंचाडी जागती रही।
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