॥ ४८॥ पंगुल्या की
हड्डी-टोली ॥ ४८॥
झरने के किनारे पाषाण्या
अकेला बैठा था। आवाज सुनकर मुडा।
पंगुल्या था।
पाषाण्या के चेहरे पर हँसी
छलक आई।
उधर सूर्यदेव डूबने चले थे।
पंगुल्या सामने आया।
आज यहाँ अकेले ही? उसने
पाषाण्या से पूछा। शिकार पर नही गये?
पाषाण्या ने गर्दन हिलाई-
बापजी कहता है- टोली का मुखिया शिकार नही करता। पाषाण्या थूका- बापजी ने कहा तो
सभी ने कहा- हाँ, जय पाषाण्या।
पंगुल्या ने आँख गाडकर उसे
देखा। आगे आकर आवेश से पाषाण्या की कलाई पकड़ ली।
बापजी कहता है, लाल्या सुनता
है, आदमी सुनते हैं, सूएँ भी सुनती हैं।
पंगुल्या की आवाज तीखी होती
गई।
अब हमारी टोली में 'बापजी
कहता है'।......'पाषाण्या कहता है' नही।
पाषाण्या ने लम्बी साँस
खींची। तू क्या कहना चाहता है?
पंगुल्या थूका।
बापजी पहली बार मिला था, तभी
मैंने कहा था- इसकी बली चढा दे।
पाषाण्या ने हलचल की।
मान लो मेरी पाषाण्या। आज
भी..... मार डालो उसे।
पाषाण्या ने गर्दन हिलाई--
अब संभव नही।
पंगुल्या ने उसके कंधे पकडे।
झकझोरते हुए बोला-- कौन यह बापजी? कहाँ से आया? क्या चाहता है? पूछो उसे। इतना तो
पूछो।
पाषाण्या ने गर्दन हिलाई।
कम से कम इतना तो पूछना ही
पड़ेगा।
पाषाण्या ने फिर गर्दन
हिलाई। उसे छोड़कर पंगुल्या सामने कातल पर आ बैठा। नीचे झरना बह रहा था।
पाषाण्या, तू मुखिया है
हमारी टोली का।
पंगुल्या धीमी आवाज में कहने
लगा। तुझे ही क्यों, हर टोली के हर मुखिया को नए आदमी से सावधान रहना चाहिए। नए
आदमी की टोली में लेने से पहले मुखिया को पूछना चाहिए-- यह कौन है?
क्या करता है? इसे क्या
चाहिए?
जब तक ये प्रश्न पूछने का
समय है, तभी पूछने चाहिए। जो ये प्रश्न तब नही पूछ सकेगा, वह कभी नही पूछ सकेगा।
पाषाण्या उठा। थूक निगलते
हुए मुडा और चला गया।
पंगुल्या झरने की आवाज सुनता
बैठा रहा।
अनायास उसके हाथ बगल की घास
में खेलते रहे।
वहाँ एक हड्डी पड़ी थी।
चपटी, गोलाकार।
झुककर उसने हड्डी उठाई।
जंगली भैंसे की है....वह
बुदबुदाया।
कहाँ की?
शायद छाती की।
क्या मनुष्य की छाती की
हड्डी भी ऐसी ही होती है-- आधे गोल आकार की?
हड्डी के दोनों छोर उसने दो
मुठ्ठियों में जकड़ लिए।
हड्डी झुकाने की कोशिश करने
लगा।
अचानक एक छोर हाथ से छिटक
गया। सुंईच्च्च्च्..., एक तेज आवाज आई। उसका दूसरा हाथ झनझना गया।
डर कर पंगुल्या ने हड्डी को
फेंक दिया।
उसकी तरफ देखते हुए बोला--
मरी हुई हड्डी में भी इतनी ताकत होती है?
डरकर भी पंगुल्या उस हड्डी
से अपनी आँखें नहीं खींच सका। झुककर उसने फिर हड्डी उठाई।
फिर दोनों हाथों से तानी,
फिर छोड़ी।
दूसरा हाथ फिर झनझनाया।
सुँईच्च्च्च् की आवाज फिर भर गई झरने में।
कई बार पंगुल्या ने हड्डी को
आजमाया।
एक पंछी पेड़ पर से उड़ा, उसकी
बीट पंगुल्या के सिर पर गिरी।
थूकते हुए वह चिल्लाया-
तुझे भी मारूँगा एक दिन और
तेरी भी हड्डियाँ चुनूँगा।
पहले आदमी की हड्डियाँ, फिर
भैंसे की, फिर पक्षी की।
पंगुल्या अब तू अपनी हड्डी
टोली बना ले।
हड्डी टोली-- पंगुल्या हँसा।
भैंसे की हड्डी को फिर परखा।
इसका क्या उपयोग
है। बस्ती पर जो भैंसे से
मूर्ख हैं उन्हें डराना के लिए अच्छी है।
कहेंगे-- अब पंगुल्या भैंसे
की मृतात्मा से भी बात करता है।
पंगुल्या जोर से हँसा। थूका।
जहाँ पाषाण्या जैसे मूर्ख
नेता हों वहाँ हड्डी टोली जरूर चाहिए।
वह अपनी झोंपड़ी को चल दिया।
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॥ ४९॥ फेंगाडया और कोमल ॥
४९॥
सूरज उगने से पहले ही
फेंगाडया ने कोमल को कोंचा। वह चौंककर उठ गई। उसे कुछ समझ नही आ रहा था।
धीरे धीरे उसने समझा। वह
फेंगाडया की गुफा में थी। बाहर अलाव जल रहा था।
फेंगाडया उठा। सूअर की टांग
भूनने के लिए अलाव में डाल दी।
उसकी हलचल से लंबूटांगी जाग
गई। साथ साथ लुकडया।
फेंगाडया उसे उठाकर बाहर ले
गया।
थोडी देर में वापस गुफा में
डाल दिया।
पैर जमीन से लगा तो लुकडया
फिर चीखने लगा। फेंगाडया ने उसके पैर से बंधी बेलें फिर एक बार कस दीं।
हांफते हुए लुकडया उसे ठेलता
रहा।
कोमल अब सावधान हो चली थी।
आश्चर्य से उसकी आंखें चौडी हो गईं।
लम्बूटांगी आगे आई। जखमी
लुकडया का सिर गोद में लेकर सूअर की भुनी टांग उसके मुँह में डाली।
कोमल गाल पर हाथ रखकर सब देख
रही थी। वह उठी। जाकर लुकडया के जखमी पैर के पास बैठ गई। हलके से अपना हाथ उसके
पैर पर फेरा।
उसके स्पर्श से लुकडया ने
आंखें खोलीं।
कितने दिन..... रात। वह
चिल्लाया। मैं जखमी इस गुफा में। इसने यहाँ लाकर रख दिया। यह दुख- ये वेदना। वह
फिर कराहा। कोमल ने सिर हिलाया। बाहर आ रहे मांस को फिर उसके मुँह में ठूँसा। इस
बार वह खाने लगा।
भूख.... रोज भूख।
ये दोनों.... खाने के लिए ले
आते हैं। मैं थूकता हूँ। बार बार।
लेकिन पेट में भूख बढती है।
फिर खा लेता हूँ। जी लेता हूँ।
कोमल हंसी।
लुकडया ने पूछा- तुम्हारे
साथ कोई आदमी? नही। कोमल ने सिर हिलाया।
फिर? जंगल में अकेली कैसे?
मैं धानबस्ती पर रहती हूँ।
उदेती दिशा मे...... कोमल ने अपने माथे से केश पीछे किए और एक दिशा में इशारा
किया।
उसका चेहरा सौम्य।
चेहरे पर भोर का उजाला।
आंखों में चमक। उदेती? धान?
हाँ।
सुना है धान बहुत उगता है।
बढता है......।
फिर शिकार नही चाहिए?
शिकार तो चाहिए ही। लेकिन न
मिले तो धान।
हाँ। लुकडया ने चूसी हुई
हड्डी हाथ में ले ली। तुम्हारे यहाँ आदमी जखमी हो जाए जंगल में, तो उसे लाते हैं
जिलाने के लिए?
नही। कोमल ने सिर हिलाया।
मैं ले आया। इसे जिलाने के
लिए। फेंगाडया ने अंदर आते हुए कहा।
तू इसे जखमी, जंगल से ले
आया?
हां।
नियम तोड कर? क्यों?
फेंगाडया उकडूँ बैठ गया था।
एक छलांग में आगे आकर कोमल को केश पकड लिए। उसे हिलाते हुए बोला--
तूच् नियम तोडकर कल तुझे नही
उठा लाता तो?
बची रहती तू जंगल में?
मर नही जाती? यदि मैं नही
लाता।
कोमल हंसी। मुझे क्यों उठा
लाए?
लंबूटांगी उठी। दोनों के बीच
आ गई। कोमल का चेहरा छू कर बोली- तू अच्छी है।
लंबूटांगी उसे एकटक देख रही
थी।
कोमल को चेहरा भय से सफेद।
फेंगाडया के चेहरे पर भाव
बदलते हुए।
तुझे जुगने के लिये उठा
लाया। लंबूटांगी ने खिलखिलाकर कहा।
फेंगाडया ने फट् से
लंबूटांगी को थप्पड मारी। लेकिन उसमें जोर नही था।
लंबूटांगी फिर खिलखिलाई।
इसे.... इस सू को तू जुगने
के लिए उठा लाया।
और लुकडया को? इस आदमी को?
फेंगाडया ने चिल्लाकर पूछा। इसे क्यों लाया? जुगने के लिए? कोमल, लंबूटांगी और
लुकडया भी हंसने लगे।
फेंगाडया और चिढ गया। हाथ
पैर मारते हुए बोला- मैं उठा लाऊँगा। हर आदमी को, हर सू को।
जब तक ये कंधे हैं, हाथ हैं,
पांव हैं..... तबतक।
मैं उठा लाऊँगा।
क्यों?
क्यों कि मुझे लगता है कोई
अकेला जंगल में नही मरना चाहिए।
कोई अकेला जानवरों का ग्रास
न बने।
आदमी जनमता है, सू की जांघों
से।
क्या इस तरह मर जाने के लिए?
बापजी कहता था- एक दो.....
और दो...... कई पिलू मरते हैं, तब एक पिलू बचता है। ऐसे कई बचे हुए पिलू बढते हैं,
तब एक बचकर बडा होता है, आदमी बनता है। या सू बनता है।
फिर हंसता है, बोलता है,
शिकार करता है, जुगता है।
ऐसे आदमी को जंगल में छोड
देना?
नही।
फेंगाडया तडाक् से उठा।
उसके झटके से लंबूटांगी गिर गई। वह ताडताड् पैर पटकते हुए गुफा से बाहर चला गया।
लंबूटांगी और कोमल फिर
खिलखिलाईं।
लुकडया ने पूछा- तू वापस
जाएगी?
फेंगाडया ले आया है मुझे। वह
छोडेगा?
कोमल ने पूछा। भय से वह
थरथरा गई।
अगर सच ही फेंगाडया ने उसे
जाने के लिए कह दिया तो?
फिर उसे धानबस्ती पर अपना
पिलू दीखने लगा।
वह फिर से थरथराई।
धानबस्ती का नियम था। सात
दिन, सात रात का।
बस्ती से बाहर जाने वाला
आदमी या सू उतने दिन में वापस नही लौटे तो पायडया धान में उसकी आकृति बनाता था।
मंत्र पढकर औंढया देव बुलाता था। खोए हुए आदमी या सू को मृतात्मा बनाकर फिर से
नक्षत्र बनाकर आकाश में भेज देने के लिए।
आज तक धानबस्ती पर सात दिन
सात रातों के बाद कोई वापस नही आया था।
मुझे जाना होगा। कोमल रोते
हुए बोली।
तो फिर जाओ। लुकडया ने गर्दन
घुमा ली।
लेकिन फेंगाडया। वह कहेगा,
इसे चीते के सामने से अधमरी उठा लाया, खाने को सूअर का मांस दिया, अलाव दिया, गुफा
में रहने को जगह दी... और अब यह वापस चली।
कौन है ये, कोई सू या
मृतात्मा?
लंबूटांगी ने सिर हिलाया।
कोमल देर तक रोती रही।
मैं दूध भरे थानों वाली।
कोमल ने अपना थान दबाकर दूध दिखाया।
थान भर आए हैं। मेरा पिलू
उधर है और फेंगाडया इधर।
दोनों चाहिए मुझे।
मैं क्या करूँ?
गदगदा कर रोते हुए उसने अपना
सिर गुफा की दीवार पर टिका दिया।
लुकडया फिर चिल्लाया--
यह फेंगाडया बडा आदमी बना
फिरता है।
इसी ने किया है सब।
इसी ने जाल बनाया है।
बेलों की जगह हमें, फंसा
दिया है।
यह रुकेगा नही।
पहले मुझे ले आया- फिर तुझे।
फांस लिया जाल में।
यह तीन तीन के लिए अकेला
शिकार करता है। लाके पटकता है हमारे सामने।
वराह को मारता है अकेले-
केवल हाथ से- मानों कोई खरहा मार रहा हो।
इसी से इसका पागलपन। यह
भरमाना।
लेकिन सोचो, अगर यही नियम बन
गया कि कोई जखमी हो जाए तो उसे उठाओ, ले आओ और पोसो।
फिर यही फेंगाडया औंधा हो
गया।
जखमी हो गया।
मेरी जगह फेंगाडया जखमी हो
गया, तो लुकडया कैसे उठाएगा, कैसे पोसेगा?
और मेरी छोडो.....
इस सू को लगे कि जखमी
फेंगाडया को उठाओ, तो कैसे लाएगी, कैसे पोसेगी?
कैसे करेगी दो दो के लिए
शिकार?
नही, ऐसा नियम नहीं बनना
चाहिए। आज जो निमय है, वह नही टूटना चाहिए।
इसे अकेले को भरमने दो।
सुनने दो छाती के अंदर की आवाज। बापजी की आवाज.... देवा की आवाज।
लुकडया तिरस्कार से थूका।
उसे करने दो यह अकेले। मुझे,
तुम्हें पहला ही नियम चलाना होगा।
उसी को मानना होगा।
हमपर बारी आई जखमी फेंगाडया
को उठाने की, तो हमें वहाँ से भाग जाना होगा- उसे अकेले जखमी छोडकर।
लुकडया रोने लगा- मैं नही
चाहता कि कभी फेंगाडया को जखमी छोड़कर भागना पडे। उससे पहले मैं मर जाना चाहता हूँ।
फेंगाडया अंदर आया। समझ नही
पाया कि क्या हो रहा है। उसने लुकडया के माथे पर हाथ रखा।
लुकडया गदगदाया। लंबूटांगी
सिर झुकाकर नीचे देखती रही।
कोमल की आंखों में आंसू आ
गए।
उन्हीं में चमकती रही धान की
बालियाँ।
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