॥ २०॥ धानबस्ती पर कोमल और
लकुटया ॥ २०॥
अंधेरी रात में कोमल चौंक कर
उठी।
शरीर पर कोई हाथ फिर रहा था।
आँखें चौड़ी कर उसने देखा।
लकुटया पास ही उकडूँ बैठा
था।
उसके हाथ कोमल के पेट
पर......थान पर.....।
एक सिहरन उसके शरीर में दौड़
गई।
गये नही तुम ऊपर वाले मोड़
पर? उसने पूछा।
चला जाऊँगा।
क्या सोटया आगे चला गया?
हाँ।
क्यों आए?
लकुटया का चेहरा खिल गया।
क्या जुगने के लिए? कोमल ने
पूछा
हाँ!
कोमल ने उसके हाथ दूर किए।
नियम मालूम है ना? जब पिलू
पेट में समाता नही हो तब जुगना नही है।
लकुटया ने गर्दन हिलाई।
जुगने के लिए एकआँखी है, और
भी सूएँ क्या कम हैं? कोमल ने पूछा।
लकुटया का शरीर काठ हो गया।
चेहरा पथरीला।
वह थूका।
यह सारे नियम बाई ने.... सू
ने बनाये।
मुझे तू ही चाहिये। बस।
कोमल ने गर्दन फेरी।
नही।
फिर?
लकुटया चुप हो गया।
झोंपड़ी के बाहर घना अंधेरा।
नक्षत्र चमचमा रहे थे।
शरीर को तोलते हुए कठिनाई से
कोमल उठी।
उसने लकुटया को पीछे से लपेट
लिया।
उसका फूला हुआ पेट लकुटया की
पीठ पर दबने लगा।
वह सिहर गया।
कोमल ने उसके चेहरे पर हाथ
फेरा।
चल आ।
दोनों बाहर आये।
लकुटया चुप था।
क्यों रे? चुप है?
हाँ।
मुझसे चिढ कर?
लकुटया ने गर्दन हिलाई। वह
बहुत कुछ कहना चाहता था।
जुगने को आया था।
हाँ भी और नही भी।
मुझे तू चाहिए कोमल।
तेरे पास रहना है। हमेशा के
लिए।
तेरे ये अंतिम दिन, ये आखरी
रातें।
वह तेरा पिलू....... उसे मैं
मार डालूँगा। वह चिल्लाया।
तुझे मार कर जनमने वाले पिलू
को मैं मार डालूँगा।
आवेग से कोमन को खींचकर वह
उसे चूमने लगा।
कोमल की छाती में कुछ हिला।
एक ही सू पर इतना जी नही
लगाते। वह पुटपुटाई।
मैं लगाऊँगा।
मैं और तू। दोनों के बीच में
जो भी आयेगा उसे मैं मार डालूँगा।
लकुटया फिर से चिल्लाया।
हम दानों कितना जुगे। जंगल
में फिरे। फल खाए। अलाव के पास तपे। बातें की।
और अब तू मर जायेगी।
कोमल सिहर गई।
मरण किसको चाहिए? क्या मुझे?
क्या मैं नही चाहती और जीना?
और जुगना?
क्या मैं नही चाहती
हँसना.......? या नाचना?
लेकिन हम सू हैं मानों धान।
उगते हैं, धान की बाली की
तरह पकते हैं, फिर आकाश में गड़ जाते है, फिर उगते हैं।
और हम आदमी? क्या हमारा कोई
काम नही? लकुटया चिल्लाया।
हम सू नही। हम पिलू नही। तो
हम कुछ नही?
क्या हम जंगली भैंसे हैं? या
बन्दर? या पेड़? या पत्थर?
यह झूठ है। झुठलाना है। तुम
सूओं का बनाया हुआ।
कोमल हँसने लगी तो लकुटया भी
ढीला पड़कर हँसने लगा।
ऐसा क्यों कहते हो तुम? आदमी
की ताकद है। धान की कटाई में, शिकार में, बस्ती पर पहरा देने में यही तो काम आती
है।
सू का, पिलूओं का आधार बनती
है।
यदि सभी धान हो गए तो?
फिर धान के दाने चरने वाले
पक्षी कौन?
यदि धान चरने वाले, उस पर
जीवन जीने वाले पक्षी न हों तो धान भी क्यों उगे? क्यों बढे?
लकुटया ने गर्दन हिलाई।
कुछ भी हो......लेकिन......
एक काम तू करेगी।
उसने कोमल का कंधा हिलाते
हुए कहा।
बोलो, मैं करूँगी।
पिलू देने के लिए जब नदी
किनारे जाने लगोगी, तब तू मुझे हाथ हिलाना।
मैं ऊपर वाले मोड़ से देखता
रहूँगा।
कोमल हँसी। हाँ, हाँ, जरूर
करूँगी।
लकुटया ने लाठी उठाई।
हरिण की गति से, एक लय, एक
वेग से वह दूर तक दौड़ गया। चढाई से उस पार हो गया।
कोमल की छाती में फिर कुछ
हिला।
कल से मेरे लिये यह सब नही
बचेगा।
नही कैसे?
यह सब मेरा ही रहेगा। लेकिन
मैं रहूँगी आकाश का नक्षत्र बनकर।
कोमल के रूप में नही। वह
पुटपुटाई।
हाथ से जमीन को धकेलते हुए
कष्ट से उठी।
नदी की शांत उठती लहर की तरह
चलकर झोंपडी में आई।
पेट में कुछ हिलने डोलने
लगा। थोडा सा दर्द उठा। वह हँसी।
आ जा मेरे पिलू, अब जल्दी से
बाहर जा जा।
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