Wednesday, 23 November 2016

॥ ७॥ फेंगाडया और साथी शिकार पर॥ ७॥

॥ ७॥ फेंगाडया और साथी शिकार पर॥ ७॥

पेड़ के पीछे दोनों सेंत लगाकर दुबके हुए।
सर्वत्र अंधियारा.....
एक तरफ फेंगाडया। दूसरी तरफ साथी।
फेंगाडया ने होठों पर जीभ फेरी।
एक तीता, कसैला, रस जीभ पर था। जंगली कंदमूलों का।
पेट में भूख।
दो दिनों तक सही थी।
लेकिन अब वह बढ चुकी है। हर साँस में है।
शरीर एकदम कडा -- तना हुआ। आँखे अपलक।
साथी की आँखें लेकिन पगलाई हुई।
वह मानुस नही रहा -- भूख के कारण। फेंगाडया बुदबुदाया।
उसे बापजी याद आया।
एक बार बापजी ने कहा था --
आदमी को भूख चाहिये।
भूख नही हो तो सूरज के उगने से सूरज के डूबने तक आदमी करेगा क्या?
मान लो, रोज एक वराह सामने आकर मर जाये तो?
रोज।
अपनी आँखों के सामने।
अपनी गुफा तक आकर।
फिर अपना क्या काम? जो सारा दिन बच जाता है, उसमें क्या काम?
केवल खड़े रहने का?
पेड़ की तरह?
पैर में जडें फूटने तक?
यह भूख चाहिए। बराबर चाहिए।
तभी हम आदमी हैं।
भूख न हो आदमी आदमी नही रहेगा।
वह है, इसी से रोज का जागना है।
हलचल है। जीवन है।
याद करते करते फेंगाडया भी भरमाता गया।
लगा- बगल में बापजी है।
फेंगाडया सिहर गया। फिर जागरूक हुआ।
उसने हाथ हिलाया और साथी को इशारा किया। साथी भी भ्रमित था। इशारे की ओर ध्यान ही नही।
भूख ही होगी। बड़ी भूख।
भूख होती भी है ऐसी ही -- बड़ी।
लेकिन फेंगाडया किस लिए है। भूख सह लेने को ही तो?
वरना वह भी साथी की तैयार हो जाए भूख में कूद पड़ने को।
पैरों की खिस खिस सुनाई दी। फेंगाडया तन गया।
अभी थोड़ी देर पहले महक थी हिरन की। लेकिन यह खिस खिस तो भालू के पैरों की है।
उसने सूँघा। भालू ही है।
साथी आगे कूदने की स्थिति ले चुका था। फेंगाडया ने उसे हाथ से इशारा किया। रुकने का। लेकिन साथी ने




कुछ नहीं देखा।
हिरन समझकर वह टूट पड़ा।
भालू घूमा। सामने आकर साथी से भिड़ा। उसे चबाता चला गया। जगह-जगह।
साथी चिल्लाया। थयथय नाचता रहा।
फेंगाडया पत्थर बन गया।
चुप्प।
वह आगे नही आया।
आगे आकर अब साथी बचने वाला नहीं था। नियम योंही नही बनाये थे पुराने आदमियों ने।
एक नियम था शिकार का। यदि कोई गलती कर गया तो उसे बचाने कोई नही जायेगा। उसे छोड़कर भाग जायगा।
बचे हुए आदमी का जीव इतना सस्ता नही कि ऐसे ही गँवाया जाय।
उसे बचाकर रखना है।
साथी चिल्लाया। चीखा।
खून में नहाया। गिर पड़ा।
भालू अब तक उसे काट रखा था। पंजे से घायल कर रहा था।
छिन्न विच्छिन्न होकर साथी जमीन पर थडथडाता रहा।
अब भालू शांत हो चला था। उसने फिर सूँघा।
नाचा उसके चारों ओर। इधर उधर देखा।
झूमते हुए नदी की ओर निकल गया।
सूरज उगा। नया दिन निकला।
फेंगाडया साँस रोककर बैठा था। अब आगे आया।
साथी के पास बैठा।
साथी ने आँखें खोली। एक बार। फिर बन्द कर लीं।
फेंगाडया च्.....। वह पुटपुटाया। अंतिम बार।
फेंगाडया ने सुना। पलभर को ठिठक गया।
फिर उठ कर पहाड़ चढने लगा।
उसकी गुफा पीछे रह गई थी। बहुत दूर।
इस पहाड़ के परले पहाड़ पर।
उसे फिर बापजी याद आया।
वह बताता था --
उदेती की ओर जो नदी किनारा है, उधर धानबस्ती है। लेकिन अच्छा है कि आदमी उसमें न जाय, और न नरबली टोली में जाए।
क्यों जाए कोई आदमी बस्ती में?
तुम, या मैं, क्यों जाएँ बस्ती में?
हम शिकार करते हैं।
खाते हैं।
जुगते हैं।
फिर वस्ती में क्यों जाना?
फेंगाडया ने गर्दन हिलाई।
साथी की मौत को याद कर चिल्लाया।
यहाँ मरण है बापजी। अकेले रहने में मरण है।




साथी मर गया। आज मरा।
फेंगाडया फिर सिहर गया। बुदबुदाने लगा-
बौराया है तू फेंगाडया। बौराया है।
मरण तो बस्ती पर भी है।
कहाँ नही है?
बस्ती पर क्या जानवर नहीं आते?
क्या वहाँ जगल नही हैं?
फेंगाडया ने नदी में छलांग लगाई।
झप झप हाथ चलाते हुए नदी के बीच में पड़े पाषाण तक आया।
भूख... थकान.....!
पाषाण पर वह औंधा हो गया।
नदी की आवाज सुन कर बेहाश होने लगा। फिर सावधान हो गया।
दूर आकाश में चील तैर रही थी। मंथर उड़ान से।
उसने गर्दन हिलाई।
मरण तो हर पल मनुष्य के साथ ही चलता है।
तू भी मरेगा। कभी न कभी।
यदि मरण निश्च्िात है.......
तो फिर
जानवर के साथ हाथापाई, जखम... वे भी निश्च्िात हैं।
यदि जखम नहीं हुए, जानवर ने फाड़ा नहीं, तो मरण कैसे आयेगा?
मरण को आना ही है। अटल....!
उस पर फिर तंद्रा छाने लगी।
पत्थर पर ही सो गया।
थककर, भूख से व्याकुल होकर......!
पानी की फुहारें उसे भिंगोती रहीं।

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