Monday 12 December 2016

२४. एड्स का खौफ - रास. २७ मई २००१

    एड्स का खौफ
     २४. एड्स का खौफ - रास. २७ मई २००१ 
       कुछ वर्ष पूर्व मेरी केन्द्र सरकार की एक संस्था राष्ट्रीय  प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान में निदेशक के पद पर हुई थी । तब हमारे सारे स्वास्थ के सिद्धान्तों को एलौपैथी से नितान्त भिन्न एक दूसरी प्रभावशाली प्रणाली के दृष्टीकोण से समझने का मौका मिला था । मेरी धारणा है कि अनुभव को सच्चा जानो,और पुस्तक में लिखे ज्ञान की अपेक्षा उसके महत्व को अधिक मानो। वैज्ञानिक का भी यही तकाजा है कि जो तर्कसंगत और अनुभवसिद्ध है कि (अर्थात् प्रयोगों में पाया जाने वाला) उसे बाकी भी सिद्धान्त से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है । कुल मिलाकर यह कि चिकित्सा चाहे एलोपैथी की हो या आयुर्वेद की या प्राकृतिक चिकित्सा, हमें यह जानने का प्रयास करना ही होगा की उसमें तर्कसंगत क्या है इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा ,चाहे वे भारत के हों ,श्रीलंका के या आस्ट्रेलिया या अमेरिका के सारे , यह मानते है कि एड्स के विषय में एलोपैथी के दावे हैं  नितान्त अतार्किक हैं और शायद किन्ही वस्तुओं का उत्पादन करनेवाली लॉवीज व्दारा चलाए गए प्रचार है। 
     सबसे पहले बात आती है कंडोम की । एड्स  यानी अक्वायर्ड इम्युन डेफिशियन्सी सिण्ड्रोम को फैलने से रोकने के लिए कंडोम की वकालत की जाती है। एलोपैथी के तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि एड्स का मुल कारण कोई खास किस्म का विषाणु या वायरस है। संभोग के दौरान यह विषाणु बाधित व्यक्ति के शरीर से स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पहुँचता है और उसे भी बाधित व्यक्ति के शरीर में पहुँचता है और उसे भी  बाधित कर सकता है। अतएव संभोग के दौरान कंडोम का उपयोग करना चाहिए । लेकिन मजेदार सवाल यह है कि वायरस तो आकार -प्रकार में अत्यंन्त सूक्ष्म होते हैं - वैक्टीरीया से भी सैकडों गुना सुक्ष्म छिद्र होते है और चूँकि  यह छिद्र पूरूष के विर्य या शुक्राणुओं को गुजरने नहीं देंगे इसलिए गर्भधारणा को तो रोक सकते है। लेकिन सच्चाई यह है कि ये छिद्र सूक्ष्मतर वायरस की आवाजाही को रोक नहीं सकते ।फिर यह किस आधार पर कहा जाता है कि कंडोम का इस्तेमाल करो और एड्स सो बचो निश्चय ही यह प्रकार केवल कंडोम की खपत बढाने के लिए है न कि एड्स से सुरक्षा दिलाने के लिए।
       प्राकृतिक चिकित्सकों का दुसरा प्रश्न एलोपैथी के मुल सिद्धान्त पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता है । अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियन्सी सिण्ड्रोम का अर्थ ही है कि एचआईवी विषाणु से शरीर की रोगनिरोधक ताकत कम होती है। ऐसा हो जाने के बाद दूसरी बीमारीयों के जीवाणु शरीर पर आक्रमक करतें है तो शरीर उनका प्रतिरोध समुचित ढंग से नहीकर पाता और उस दूसरी बीमारी से बाधित हो जाता है,यथा -टी .बी  ,खाँसी इत्यादि । यह है एड्स के विषय में एलोपैथी का सिद्धान्त । इस पर कई प्रश्न उठ खडे हो जाते है। यों भी एलोपैथी में सिस्टम अर्थात् लक्षणों के आधार पर चिकित्सा की जाती है-यदि बुखार हुआ तो एण्टीपीयरेटिक (यानी तपन कम करने वाली ) दवाई दो-मलेरिया हो गया तो उसके पॅरासाइट्स को मारनेवाली क्विनाइन दो।
उसी प्रकार जब दूसरा रोग हो जाए तो उसकी भी दवाई दे दो ।इसके लिए एड्स के विषाणु की कहानी गढने और इतना बडा बवाल खडा करने कि क्या आवश्यकता प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोग होने का कारण तो एक ही है-इम्युनो डेफिशियन्सी ,चाहे वह नेचुरल हो या अक्वायर्ड ।और इम्युन डेफिशियन्सी को अपने आप में रोग न मानने की एलोपैथी की परंपरा है। फिर अक्वायर्ड वाले को रोग मानना ,उसकी दवाइयाँ ढूँढना,क्या यह सब अतार्किक नहीं है।
       एलोपैथी के डॉक्टर कहते है कि एड्स बाधित व्यक्ति को करीब सत्तर भिन्न -भिन्न बीमारियाँ हो सकती है।लेकिन यह बीमारियाँ तो पहले भी होती थीं  । और जो लोग एचआईवी पॉजिटिव हो या एचआईवी निगेटीव ।फिर बस वही दवाइयाँ देते रहो  एचआईवी का नाम लेकर सिरपीटने कि क्या एक तर्क देते है। पूरी प्राकृतिक चिकित्सा तथा आयुर्वेद का दारोमदार इस बात पर है कि अपने शरीर की रोग प्रतिरोध शक्ति को बढाओँ ।उसके विभिन्न तरीके बताए गए हैं जैसे जलचिकित्सा ,उपवास ,आहार ,विहार में संयम ,पथ्य -कुपथ्य का विचार ,कुछ खास आयुर्वेदिक दवाइयाँ यथा -च्यवनप्राश ,योगासन,प्राणायम ,ध्यान ,अन्य समुचित व्यायाम ,सुर्य चिकित्सा ,मौन इत्यादि ।आयुर्वेद का एक अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है कि स्वस्थ वृत जिसका विषय ही है शरीर की रोग -प्रतिरोधक शक्ति बढाना । आयुर्वेदिक उपायों में बताए गए चालिस प्रतिशत उपाय इस पर है कि कैसे रोग -प्रतिरोध शक्ति को बढाकर बीमारीको  होने से पहले ही रोक लिया जाए । अन्य तीस प्रतिशत इलाज इस बात के लिए है कि कैसे रोग होने के बाद शरीर की रोग -प्रतिरोधक शक्ति को बढाकर ही रोग नष्ट किया जाए-यथा उपवास या जलचिकित्सा । केवल बाकी तीस प्रतिशत दवाइयाँ ही लक्षणिक आधार पर और लक्षणों का दमन करने की खातिर दी जाती है। फिर क्या यह अधिक उचित नही है कि एड्स से बाधित व्यक्ति के संसर्ग से हमें कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और यदि हमारी इम्युनिटी ठीक है तो बैसे भी हम रोग के शिकार हो हा जाएँगे।फिर एचआईवी पॉजिटिव वाले व्यक्ति से डरकर य़ा बचकर क्यों रहों
     सबसे बडा प्रश्न चिन्ह तो उन दावों पर है जिनमें कहा जाता है कि  हमने एचआईवी पॉजिटीव की दवा ढूँढ ली। क्या उससे हमारी अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियन्सी घट जाएगी ।और यदि नेचुरल डेफिशियन्सी फिर भी बनी रही तो फिर फायदा ही क्या  बीमार तो हम फिर भी होंगे ही। 
      असल बात तो यह है कि अब तक एलोपैथी का कोई सिद्धान्त इस बात का उत्तर नहीं दे पाया है कि क्यों नेचुरल इम्युन डेफिशियन्सी और अक्वायर्ड इम्युन डेफिशियन्सी को अलग-अलग माना जाए ऐसी कौन -सी अलग बात दोनों में है और यदि हम नेचुरल इम्युन डेफिशियन्सी वाले को रोगी क्यों माने आखिर वह बात तो वही है कि यदि रोगी का शरीर बाहर से आने वाले आक्रमणकारी जीवाणुंसे नही लड रहा -मसलन टी.बी .के जीवाणुओं से -तो आप उसे टी.बी .की दवाइयाँ देंगें । पर साथ में यह एड्स वाला हौब्बा किस लिए खडा किया जा रहा है
      प्राकृतिक चिकित्सकों की यह बात मुझे और भी महत्वपूर्ण इसलिए लगती है कि हाल में सुप्रिम कोर्ट ने एड्स के सम्बन्ध में कुछ ऐसा फैसला दिया है जो आगे चलकर डरवाना रूप ले सकते है। एक एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति  के मामलें में  
सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि उसे शादी करने का अधिकार नहीं रह जाता। अब चेत जाइए । यदि एचआईवी पॉजिटिव का अर्थ केवल इतना है कि उसकी रोग निवारक शक्ति कम हो गई है, तो फिर ऐसी कम शक्ति तो और भी कइयों में   है जो एचआईवी
 निगेटिव हैं।  क्योंकि कभी-कभी बीमार तो वह भी पडते है ।क्या उन सबका शादी का अधिकार समाप्त हो जाना चाहिए ।फिर तो इस देश में हर व्यक्ति को भगवान बुद्ध की तरह तुरन्त घऱ बार छोडकर निकल जाना पडेगा -जरा,व्याधि और मृत्यु से बचने का उपाय खोजने के लिए ।जैसे भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ ,वैसे हम आप सबको हो।
                (राष्ट्रिय सहारा .27मई ,2001)
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