Tuesday 6 December 2016

॥ ८७॥ फेंगाडया- कोमल- एकआंखी ॥ ८७॥

॥ ८७॥ फेंगाडया- कोमल- एकआंखी ॥ ८७॥

धानबस्ती पर फुसफुसाकर बातें हो रही थी। वर्षा में भींगते सब एक साथ बैठे थे। उनके शरीर से पानी टपक रहा था।
वर्षा मंद गति से चल रही थी। निस्वर। लेकिन बरसने का पक्का निश्चय किए।
घने अंधेरे में केवल वर्षा का मंद स्वर ही था।
लेकिन उस स्वर में फेंगाडया को सुनाई पड़ रहा था- डर।
मिट्टी की महक से उठ रही थी- डर की महक। सामने बैठे आदमियों में भी दीख रहा था केवल डर।
फेंगाडया ने अपने बालों से पानी निचोड़ा। हाथ ऊपर उठाता हुआ बोला-
बडा बुरा हुआ। अब हमारे बहुत कम आदमी बचे हैं।
सू, पिलू रो रहे थे।
बाई की नजर पथरा गई थी।
एकआंखी कष्ट से उठी। उसका पेट अब बहुत बड़ा हो गया था। दिन पूरे हो रहे थे। भरमाई सी वह फेंगाडया पर टूट पडी। उसे नोचने लगी। दाँत से काटने लगी।
पायडया ने उसे दूर किया।
वह आक्रोश कर रही थी।
लकुटया को मार दिया तूने। वह होता तो धानबस्ती बच जाती। वह वाघोबा टोली के सारे आदमियों को मार सकता था। अकेला ही।
चारों ओर सन्नाटा छा गया।
बाई ने हाथ उठाया।
लकुटया जानवर हो गया था। इसलिए मारा उसे। बाई की आवाज कौंधी।
इसका मरण.....। एकआंखी चिल्लाई। फेंगाडया का मरण।
फेंगाडया का शरीर तन गया।
बाई ने उसे और कोमल को अपने पास बुलाया।
उनके कान में कुछ कहा।
फिर हाथ से सबको इशारा किया।
सारे उठकर चारों दिशा में चले गए।
फेंगाडया मजबूत डग भरता हुआ हुमक हुमक कर रोती हुई एकआंखी के पास गया। उसे बांहों
में भरकर बोला-
मत रो.... लकुटया मरा है, लेकिन मैं हूँ।
एकआंखी उसके कंधे पर सिर रखकर रोती रही।
कोमल आगे बढी।
पिलू है तेरे पेट में।
तू पिलू दे। मरना मत। बच जा, फिर फेंगाडया तेरा।
एकआंखी संभली। मैं बचूँगी?
कोमल उससे लिपट गई।
हाँ री हाँ। वह गदगदा कर बोली।
झूठ..... सारा झूठ। एकआंखी बोली।
क्या मैं नही बची? कोमल ने धीरे से कहा।

एकआंखी थक गई। पैर पसारकर बैठी। कोमल उसके पास उकडूँ बैठी।
उसने एकआंखी के उभरे हुए पेट पर हाथ रखा।
अंदर पिलू हलचल कर रहा था।
कोमल को हंसी आई। उसने फेंगाडया को इशारा किया।
फेंगाडया बैठ गया। कोमल ने उसका हाथ थामकर एकआंखी के पेट पर रखा। पिलू ने फिर हलचल की।
फेंगाडया थर्रा गया।
देवाच् उधर लकुटया और लुकडया का मरण।
इधर एक नए जीव का आना।
यह जीवन..... तू देता है...... लेकिन मरण देते हैं मेरे हाथ।
आदमी के हाथ।
फेंगाडया की आंखें भर आईं।
अंधेरा हिला।
वर्षा के स्वर से उभरता, कीचड में रपरप चलते पैरों का स्वर फेंगाडया के कान ने पकड लिया।
प्राण जुटाकर वह चिल्लाया और तपाक्‌ से उठकर लाठी तौल ली।
इधर उधर बिखरे लोगों ने भी लाठियाँ संभालीं और जमा होने लगे।
आने वाला समाने आ गया।
सारे ढीले पड गए। वह धानबस्ती का ही था। हाँफते हुए वह जमीन पर लोट गया।
उसके चारों ओर गोल बनाकर सारे खडे रहे।
उसके बोलने की राह देखते हुए।
नीचे वाला मोड हमारे हाथ से निकल गया॥
अपने सारे लोग मारे गए।
फेंगाडया उसके पास बैठ गया।
लेकिन तीन, तीन, तीन.... ऐसे हमारे तीन गुट थे ऊपर वाले मोड़ पर।
नीचे वाले मोड के तीनों मारे गए तो वे आगे नही बढे?
बढे। पहले तीन बढे और मारे गए। फिर तीन और बढे वे भी मारे गए। अब केवल तीन बचे हैं ऊपर वाले मोड़ पर। फिर मैं भागता हुआ इधर आ गया। बताने के लिए।
फेंगाडया ने आक्रोश किया- होच्होच्
वह आदमी थककर बेसुध होने लगा। एकआंखी रोती हुई झोंपडी की ओर दौड गई।
पायडया उन्माद में भरकर बोला हाथ उठाते हुए बोला-
मरण..... मानुसबली टोली का मरण।
सारे उन्मादित हो गए। चिल्लाये-
जय औंढया।
बाई ने हाथ उठाया। सारे शांत हुए।
हम सब के लिए ये आखरी दिन हैं।
अब आगे जाना है तो केवल वाघोबा टोली के जानवरों को मारने के लिए।
और मर जाने के लिए।
उसने ठण्डे स्तर में कहा।
फेंगाडया का उन्माद कम हुआ। वह सुध में आया। उसने सोचा-
बाई यह क्या कह रही है? क्या यह भी भरमा गई है?
या मैं?
आंखों के आगे अंधेरा छा गया।
यही अंत है? मेरा....... इन सबका?



अचानक उसे एकआंखी के पिलू की हलचल दीखी। उसे जनमना है, जगना है तो बस्ती को बचना चाहिए। वह आगे आया।
तीन-तीन की तीन टोलियाँ उसने उपर भेजीं।
मैं भी आ रहा हूँ। बाकी सबको लेकर। वह चिल्लाया।
बाई पथराई नजरों से औंढया के पास, अपनी शिला पर बैठ गई।
फेंगाडया उसके पास गया। उसे कंधे से हिलाते हुए बोला-
मैं हूँ.... मैं जी रहा हूँ अभी।
बाई के आंसू बहने लगे।
उससे लिपट कर वह हुमकने लगी।
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