Tuesday 6 December 2016

॥ ८८॥ बाई रखती है अपने बाईपने को ॥ ८८॥

॥ ८८॥ बाई रखती है अपने बाईपने को ॥ ८८॥

वर्षा थोडी कम हुई। बाहर उजाला फैल गया।
बाई बिना पलके झपकाए जाग रही थी।  
झोंपडी में बैठकर, रातभर।
सामने धान का ढेर लगा था- थोड़ा गीलापन लिए।
झोंपडी में अलाव धुगधुगा रहा था।
बीच में उठकर उसने अलाव में फूंक मारी।
बाहर पांवो की आहट।
वह सिहर गई।
पूरी बस्ती में एक भी आदमी नही पायडया के सिवा।
थरथराते हुए उसने बाहर देखा- पायडया था।
वह बाहर ही उकडूं बैठ गया।
आज वे पहुँच जायेंगे। वह आक्रंदन करते हुए बोला।
आज पहुँचकर मार डालेंगे।
बाई ठण्डे स्वर में बोली-
सू से मरण की क्या बात करता है तू?
सदा तेरा यह सू... सू.....। पायडया चिल्लाया।
रोज यही कहती है।
तू सोचती है मैं मरण से डरता हूँ?
वह थूका।
तू देखेगी सावली। मुझे मारेंगे वे तो चीखूँगा नही।
दो चार को मारकर ही मरूँगा।
लेकिन ऐसा मरण किसलिए? बिना कारण?
मानुसबली टोली के किसी आदमी को लगा.......... केवल लगा...... कि धानबस्ती उजड़ जाए- मर जाए। केवल इसीलिए इतने आदमी मारे? इतनी सू, इतने पिलू मारेंगे।
केवल एक आदमी को लगा इसलिए इतने लोग मरेंगे?
वह फिर थूका।
बाई ने सिर हिलाया।
नही.... ऐसा व्यर्थ मरण नही होगा।
धानबस्ती नही मरेगी। वह निश्चय से बोली।
पायडया ने गर्दन हिलाई।


मरेगी। अब कैसे बच सकती है।
वे बहुत हैं। हम थोडे ही हैं।
पंगुल्या गिनकर यही बता रहा था। उसे गिनना आता है।
बाई तडाक्‌ से उठी। तेजी से निकली।
पायडया उसके पीछे पीछे।
कोमल की झोंपडी के पास पहुँचकर बाई ने उसे बुलाया। बाकी सू पास आईं।
बाई ने आकाश को देखा। भरी सुबह भी आकाश अंधियारा था।
वर्षा अब भिरभिराकर आ रही थी। हल्की हल्की, जमीन में गहराई तक धंस जाने वाली बूंदे।
उसने नदी को देखा। पानी से भरकर से रों रो कर बहती नदी।
उसने जमीन को देख। गीली, मुलायम, कीचड बनी जमीन।
उसकी छाती धडधडाई।
इस मरण के खेल का जो होना है, होने दो।
धानबस्ती के आदमी, सू, बचें या ना बचें। वह शांत स्तर में बोली।
लेकिन धान बचना चाहिए। धान बढना चाहिए यहाँ।
बाई नदी की ओर चल दी। पीछे सूओं का झुण्ड।
बाई थमक गई। वापस मुडकर औंढया देव के पेड के पास आई। घुटने टेक कर बैठी। दोनों हाथ उठाते हुए बोली-
औंढया देवाच् तेरा धान मैं भूल गई।
मरण के इस खेल में वही एक सच था, उसे भूल गई।
तूने मुट्ठी भरभरकर फेंका- तब उगा था यहाँ पहला धान।
उसे रटरट पका कर हमने अपने को जिलाया।
आज धान को वाट जोहनी पडी सूओं की। उनके हाथों की। जिन हाथों ने उसे आज तक संभाला उन हाथों की।
धान को इसी ऋतु में गीली मिट्टी मिलनी चाहिए- तभी वह बढेगा। दूसरी ऋतु में नही बढेगा।
जमीन वाट जोहती है धान की। और धान बाट जोहता है गीली जमीन की।
धान को उगना है। फिर से उगना है।
हम आज हैं। कल नही होंगे।
लेकिन धान आज भी है। कल भी होगा।
बाई हाथ उठाकर कांपती हुई चिल्लाई-- जाओ।
कोमल ने अपना पिलू बाई की गोद में रखा। बाई ने सिर हिलाया।
कोमल दोनों मुट्ठियों में धान भरकर दौडती हुई निकली।
पीछे पीछे सारी सू। सबकी मुठ्ठियों में धान भरा हुआ।
कोमल धान की जमीन के पास आई। थमक गई।
बाई ओर रों रों करती हुई नदी थी और सामने मुलायम गीली मिट्टी। धान को अपनी गोद में समेट ने वाली।
उसने सांस रोकी और मुट्ठियों का धान बिखेर दिया।
एक एक दाना बिखर गया। जमीन पर धान फैल गया।
सारी सूएं धान फेंकने लगीं।
बाई दूर से देख रही थी।
साथ में खडा था पायडया।
धान का एक एक दाना जमीन में समाने लगा। फिर से अंकुरित होने के लिए।
मरण को धता बताने के लिए।
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