Tuesday 6 December 2016

॥ ८२॥ लकुटया उन्मत्त होता है ॥ ८२॥

॥ ८२॥ लकुटया उन्मत्त होता है ॥ ८२॥

लकूटया झोंपड़ी से बाहर आया। हाथ में लाठी।
सन्नाटा।
मरण झेलने वाले आज गए हैं आगे।
लुकटया यहाँ है। अकेला।
उसे ध्यान आया।
कोमल और उसका पिलू झोंपड़ी में अकेले हैं।
वह हँसी। आओ.....उसने कहा।
लकुटया अंदर आकर बैठ गया।
कोमल का शरीर अब आभा लिए हुए। पिलू जनने से आया फीकापन मिट चुका था।
कमजोरी जा चुकी थी। फीकापन भी मिट गया था।
एक छलांग में वह कोमल के शरीर से भिड गया।
कोमल पीछे हटी। नहीं।
वह थरथराकर रुक गया। एक..दो...क्षण। स्तब्ध।

क्यों? अब तुझे फेंगाडया......?
कोमल ने गर्दन हिलाई। उसकी आवाज पत्थर जैसी ठण्डी थी। बोली-
मैं अगली बाई हूँ। मुझे जो चाहिये वही मेरे साथ जुगेगा। यही नियम है।
आजतक किसी ने नही तोड़ा है नियम। तू भी नही तोड़ेगा।
लुकटया ढीला पडने लगा। कोमल की नजर अब भी पथरीली। क्रूर।
यदि मैं तोड़ दूँ?
तो च् च्.... कोमल चीखती सी हँसी।
मैं भी देख लूँगी।
तू देखेगी?
हाँ। कोमल की विकट हँसी।
लकुटया पीछे हट गया। जाने को मुड़ा।
तीव्र स्वर में कोमल ने पूछा-- डर गए?
लकुटया का शरीर काँप गया। कोमल पिलू देकर भी बच जाने वाली सू थी। निश्चय ही उसके पास शैतानों की टोली थी। उसका रक्त पीने वाले शैतान। मंत्र थे। वह बाई थी। लकुटया सिहर गया।
मुडकर झोंपड़ी से बाहर निकल आया। पच्च से थूका--
यह बाई की टोली है। मैं इसे छोड़कर भाग जाऊँगा। वह बुदबुदाया।
यहाँ आदमी का महत्व नही है।
महत्व है सू का। बाई का।
क्यों?
क्यों कि वह नक्षत्र पर मंत्र डालकर उसे बुला सकती है पिलू बनने के लिए।
वही मंत्र फेंकती है धान पर, जमीन पर! तब जमीन में धान के अंकुर उगते हैं। उनमें दाने भरते हैं।
बाई ही जानती है कैसे मिट्टी का खपरैल बनाना और कैसे उस पर धान घोंटकर पकाना।
सारे आदमी धान, धान के मोह में यहाँ आते हैं। सारे जानवर।
समझेंगे वे भी कभी।
लेकिन मैं तो आज ही भागूँगा।
तेज डग भरते हुए वह चलने लगा।
सामने लुकडया और लंबूटांगी आ रहे थे।
लकुटया का क्रोध उफन गया।
उसने लाठी घुमाई और एक जोरदार वार किया। सिरफोड़ वार।
लुकडया धम्म से भूमि पर जा गिरा। खोपडी फूटकर माँस बाहर झूलने लगा।
क्षण.... दो क्षण सन्नाटा।
तीसरे क्षण लंबूटांगी की चीखों से बस्ती भर गई।
दौड़, भाग।
लकुटया संभल गया। उसने देखा।
दूर से आदमी दौडे चले आ रहे थे।
पीछे से कोमल, बाई, फेंगाडया।
वह गिर्र से घूमा।
लम्बे लम्बे डग भरने लगा। दौड जाना चाहता था।
तभी बिजली की फुरती से फेंगाडया उसके सामने खडा हो गया।
उसके भी हाथ में लाठी।
लाठी घूमी और बिजली की तरह लकुटया के सिर पर गिरी। वही वार।
वैसे ही फूटा लकुटया का सिर। माँस बाहर झूलने लगा।



पायडया थरथराता हुआ वहाँ पहुँचा।
बाई, उंचाडी, पंगुल्या...... सभी।
पंगुल्या उठा। लुकडया गिरा था वहाँ गया।
उसकी आँख टिक गई लुकडया की जांघ पर।
यह जांघ, यह हड्डी तुझे मिलेगी पंगुल्या।
टूट कर जुडी हुई पहली जांघ की हड्डी।
औरों का शोक देखकर वह सँभल गया।
अपना पंगु पाँव खींचते हुए दूर जाकर बैठ गया।
बाई ने थूका। उसने हाथ ऊपर उठाया।
रोने वाले थोड़ा शांत होकर देखने लगे।
फेंगाडया वैसा ही तना हुआ था। थरथराता।
लुकडया को सम्मान से गाडो। खडा। और इस लकुटया को जंगल में फेंक आओ, गीधों के खाने के लिये।
बस्ती में गाडे जाने के लायक नही था। जानवर था वह।
बाई ने तिरस्कार से फिर थूका। फिर तन कर खड़ी हो गई और मुड़कर तेजी से चल दी।
फिर से हर ओर रुदन, आक्रोश।
लंबुटांगी का हुमक हुमककर रोना थम नही रहा था। वह फेंगाडया के पास पहुँची।
फेंगाडया का थरथराता हाथ उसकी पीठ पर।
उसकी नजर अब भी पथराई।
सामने से कोमल आकर उससे लिपट गई।
खींचते हुए उसे ले गई।
लंबूटांगी अकेली रह गई। सुलगती हुई।
झोंपड़ी में गदगदाकर रोता रहा फेंगाडया।
कोमल उसे थपकी देती रही।
-------------------------------------------------------

No comments: