Tuesday 6 December 2016

॥ ८०॥ पहला टकराव ॥ ८०॥

॥ ८०॥ पहला टकराव ॥ ८०॥

नीचे से दर्रे तक आने वाली चढाई के मोड पर फेंगाडया दुबक कर बैठा था।
उसके पीछे धानबस्ती के आदमी।
नीचे से नारा लगा- जय वाघोबा।
आदमी एक लहर की तरह आए। लाठियाँ बजीं। आक्रोश और चीखें आकाश तक पहुँचने लगीं। बहुत समय बीता। आक्रमण करने वाले वाघोबा टोली के आदमी भाग गए।
फेंगाडया सावधानी से आगे बढा।
पीछे लकुटया था। उसने आवाज लगाई- जय औंढया।
वह मुडकर बस्ती की ओर जाने लगा।
फेंगाडया ने उसकी राह रोक ली- यहाँ हमारे इतने आदमी घायल पडे हैं।
पहले उन्हें ढोंकर बस्ती में ले जाना होगा।
जो मर गए उन्हें गाडना होगा।
लकुटया तन गया। हाथ में लाठी की हलचल। आंखें लाल अंगार।
फेंगाडया ने एक क्षण की देर नही की। उस पर छलांग लगाकर उसकी लाठी छीनकर फेंक दी। उसे बाहों में भर लिया- मजबूती से।
यह आदमी मरे। किसलिए?
ताकि तुम, मैं, बाई जीवित रहें।
इतने आदमी घायल हुए। किसलिए?
कि धानबस्ती बची रहे।
इन्हें छोड कर जाएंगे? तुम्हें छोड़कर चले जाते हम?
लकुटया ने गर्दन घुमा ली। एकटक दूर कहीं देखता रहा।
सोटया आगे आया। उसने लकुटया को थपकाया।
सारे आदमी उठे। घायलों को लाद कर चलने लगे

  
फेंगाडया सबसे आखिर में था।
चार आदमी मोड पर रखकर वह जाने लगा।
चलते चलते उसने सोचा--
मरण का खेल आरंभ हो गया।
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॥ ८१॥ पायडया और बाई ॥ ८१॥

रात उदास। मारे गए चार आदमियों को गाड़कर पायडया अभी वापस लौटा है।
इन्हें कैसे गाडूँ, खड़ा या सुलाकर? उसने जाते समय बाई से पूछा था।
खड़ा गाडना। उसी सम्मान से जैसे पीलू जनते हुए मरने वाली सू को गाडते हैं।
बाई ने कहा था।
पायडया बाई के पास आ बैठा।
वैसा ही गाडा। उसने बाई को बताया।
बस्ती से दूर घायलों के लिए बनी झोंपडियों में अब आठ-दस आदमी थे। उनमें से दो तो निश्च्िात ही मरने वाले थे।
आज बाहर कम अलाव जल रहे थे। हवा में वर्षा की ठण्डक थी।
पायडया गदगदा कर रोने लगा।
चूप। बाई ने तीखी आवाज में कहा। उसकी आँखें पथराई हुई थीं।
अब पता चला कि क्या होता है बस्ती के लिए मरना?
सू कैसे मरती है? पिलू जनकर?
पायडया सिहर गया। चुप हो गया।
बाई उठी। अपनी झोंपडी में चली गई।
पायडया ने सीटी पर धुन बजानी शुरू की। करुणा में डूबी हुई धुन।
चार आदमी औंढया देव के पेड के पास आए। जय औंढया का नारा लगा।
चारों उपर मोड़ की तरफ चल दिए।
रखवाली के लिए।
पायडया उन्हें एकटक देखता रहा।
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