Tuesday, 6 December 2016

॥ १०१॥ फेंगाडया को भ्रम हुआ लुकडया का ॥१०१॥

॥ १०१॥ फेंगाडया को भ्रम हुआ लुकडया का ॥१०१॥

चारों ओर जल्लोष ! नाच। ऊँची लपटों वाला अलाव।
फेंगाडया अकेला।
औंढया देव के पेड़ के नीचे बैठा।
सबके चेहरे चमकते हुए।
बुढिया और वाघोबा टोली की सू पेट में पहुँचे धान के कारण तृप्त, सुखी, लेकिन अब भी दूर ही खडी थीं। शंका में। बाई नाच छोड़कर बाहर आई।
हाथ से पकड़ कर एक एक सू को नाच के घेरे में ले गई। बुढिया को भी ले गई।
उनके भी चेहरे चमकने लगे।
उनके पाँव भी लय पर थिरकने लगे।
फेंगाडया को हंसी छूटी। हंसते हंसते वह थमक गया।
चारों ओर उजियारा।
ऊपर आकाश में खिला खिला चंद्रमा।
फेंगाडया ने साँस खींची। फिर खींची।
मानुसपन की ऊष्मा उसके नथुनों में भर गई।
वह कँपकँपाया।
मरण का खेल अब समाप्त हो चुका था। उसकी आँखों के आगे फिर से दीखने लगा। वे सारे प्रेत। जिनपर गीध मंडरा रहे थे। उन्हीं में बापजी भी दिखा।
वह सिहर गया।
वह भी सच था और आज का यह नाच भी सच है। वह बुदबुदाया।
औंढया देव के पेड के तने से पीठ टेककर बैठ गया।
  
सभी नाच में मगन।
उसे भ्रम हुआ लुकडया का।
लगा वह भी है नाचने वालों में।
उसकी छाती गदगदा गई। उसने घुटनों में मुँह छिपा लिया।
नही, वही एक है जो नही है। लुकडया नही है।
समय चलता रहा।
अचानक पास में आवाज आई तो फेंगाडया झटके से उठा। बचाव के लिए तैयार! सावधान। और उसे ध्यान आया- वह गुफा में नही है। वह अकेला भी नही है।
आवाज है किसी अपने की। जानवर की नही।
उसने अपने को ढीला छोड दिया।
मुडकर देखा, पंगुल्या था।
उसके हाथ में हड्डी थी।
लुकडया की हड्डी।
वह चिल्लाया- देख फेंगाडया।
यह हड्डी देख। लुकडया के जांघ की हड्डी।
यह टूटकर फिर भर गई है- जुड़ गई है। मैंने कहा नहीं था?
पंगुल्या की आंखों में चंद्रमा सूरज जैसी चमक।
कांपते हाथों से फेंगाडया ने हड्डी को अपने हाथों में लिया। बाकी हड्डियों जैसी सीधी सपाट नही थी। हड्डी जुडने की जगह एक गांठ बन गई थी।
उन्माद में भरकर फेंगाडया ने गांठ को गाल पर टिकाया। चूमा।
क्या फायदा? वह बुदबुदाया।
ऐसा मत कह फेंगाडया।
लुकडया मर गया। मरने दे। तू भी मरेगा।
मैं भी मरूँगा।
लेकिन पिलू जनमते रहेंगे- बढते रहेंगे।
फेंगाडया, मेरी बात ध्यान से सुन।
यह मानुसों की नदी है और अब इसने एक नया मोड ले लिया है।
तू ही बना उसका डोह, जहाँ ठहर कर नदी मुड सकी।
तुमसे ही बनी है यह कहानी।
यह कहानी कोई नही भूलेगा।
एक फेंगाडया की कथा। कभी न भूलने वाली।
तुझे पता है? मरण के इस खेल में बाकी क्या बचेगा? बापजी बचेगा? या तू? मैं? बाई?
नहीं- हममें से कोई नहीं बचेगा।
बचेगी लुकडया के जांघ की हड्डी।
टूट कर जुड़ी हुई। गांठ वाली हड्डी।
यह बची रहेगी। सूरज और चंद्रमा जैसी लम्बी ऋतुओं तक।
लुकडया की हड्डी और फेंगाडया की कहानी।
और हाँ, पायडया की धीमी धीमी सीटी भी बची रहेगी।
और देवता की आवाज....
जो तेरी छाती में बजती है और तू सुनता है।
हमारे बाद.... इस मरण के खेल में यही बाकी बचेंगे।
तूने जिस नदी को मोड़ा है, अब वह और चौड़ी होगी। दूर तक चलेगी। जय फेंगाडया।



पंगुल्या रुका। लम्बी सांस खींचकर फिर बोला- जय फेंगाडया।
फेंगाडया अब भी भरमाया सा। हाथ में हड्डी लिये वैसा ही थमा हुआ।
बाई ने दूर से उन्हें देखा।
नाच से बाहर आ गई।
नाच रुका, उसने हंसकर सबको नाच चालू रखने का इशारा किया।
लोग फिर नाचने लगे।
बाई धीर गति से फेंगाडया के पास आई।
फेंगाडया को भान आया। हाथ की हड्डी दिखाते हुए बोला- पता है, यह किसकी हड्डी है?
लुकडया की।
फेंगाडया फिर से गदगदा गया।
बाई की आँखें भी तालाब हो गईं।
फेंगाडया को लगा- बापजी ही है सामने।
वह झुका। बाई ने उसे अपनी ओर खींच लिया।
उसका सिर अपने थानों में चिपटा कर बोली तू फेंगाडया..............
केवल तू ही है फेंगाडया...........
बाकी सारे जानवर। छाती की आवाज नहीं सुन पाने वाले।
तू ही एक फेंगाडया.............।
आँधी में पेड़ थरथराए, ऐसे फेंगाडया बाई की बांहों में थरथराता रहा।
पंगुल्या दूर से देखता रहा।
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