॥ ७५॥ धानबस्ती की टोली चली
हमले को ॥ ७५॥
चांदवी दौड़ गई। फेंगाडया के
देह पर गिरकर उसे चूमती रही।
फेंगाडया ने धीरे से उसे अलग
किया।
बाई आगे बढी। उसने भी
फेंगाडया गले लगाया। फिर सोटया और बाकी आदमियों की ओर बढी।
कोमल देर तक फेंगाडया की
बाँहों में लिपटी रही। अन्त में उसे भी फेंगाडया ने दूर किया। अपनी लाठी उठाई।
साथ में अनेक आदमी। सबके हाथ
में लाठियाँ।
पायडया ने उंची छलांग लगाई
और थोड़ा धान आकाश में उछाल दिया।
वह चिल्लाया- जय औंढया।
सारे चिल्लाये- जय औंढया।
दौड़ते हुए सब निकल गये।
बाई एकटक उन्हें जाते हुए
देखती रही।
चांदवी रोने लगी। उसे बाँहों
में भरकर बाई पुटपुटाई- आज यह नया दिन है री बस्ती का।
इतने ऋतु बीते। इतनी बाई
गुजरीं।
लेकिन किसी सू, किसी बाई के
जीवन में यह दिन पहले कभी नहीं आया।
मरण के खेल पर निकले आदमियों
को विदाई देने का दिन।
फिर उनके लिये रोने और राह देखने
का दिन।
लेकिन आज से ये दिन भी आते
रहेंगे।
यह नया खेल अब थमने वाला नही
है।
चांदवी को दुलराते हुए बाई
खुद भी रोती रही।
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