Saturday, 31 December 2016

परिक्षा प्रणाली में आमुलाग्र सुधार हो

परिक्षा प्रणाली में आमुलाग्र सुधार हो
      यह बात अब स्पष्ट रूप से उजागर हो गई है कि हमारी शिक्षा प्रणाली को आमूलाग्र सुधार कर इक्कीसवी सदी के लायक बनाना आवश्यक है। दुर्भाग्य से हमारे देश मे जेपी नाईक, आचार्य राममूर्ती और मौलाना आजाद जैसे शिक्षाविद् होते हुए भी राज्यकर्ताओं की निगाह में शिक्षा भी अन्य अनेकानेक विभागों की तरह एक और विभाग हो गया और दफ्तरबाजी में उलझकर रह गया। शिक्षा को मात्र एक विभाग का छोटा -सा दर्जा न देकर संंसाधन का दर्जा देना चाहिए। आज यद्यपि हमने शिक्षा विभाग का नाम बदलकर मानव संसाधन विभाग कर दिया है पर अब भी हमें उसे एक विभाग ही मानकर चलते है, न कि संसाधन। यदि हम इसे संंसाधन मानतें हो तो होना यह चाहिए कि देश कि योजना लिखते समय हम पहलें यह लिखे कि हमारी जनसंख्या क्या है ,लोगों के पास प्रशिक्षण, हस्तकौशल और कलाएँ क्या-क्या  हैंं, उनका उपयोग हम किस दिशा में किस काम के लिए कर सकतें हैं। जो उद्दिष्ट हम पाना चाहते है उसमें हमें जनता का सहयोग कितना मिलेगा, जनताकी क्षमताएँ जहाँ नही है, वहाँ क्षमता दिलवाने के लिए हम क्या कर सकतें हैं, इत्यादी। सारांश यह कि योजना बनाते समय जिस तरह हम अपनी जमीन और अपने धन का ब्यौरा लेते हैं, वैसे ही हमारे मानवीय संसाधनों का ब्यौरा लेना जरूरी है। शुरू में वह नही हुआ। फिर अस्सीके दशक में किसी समय हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग का नाम बदलकर उसे मानव-संंसाधन मंत्रालय भी घोषित कर दिया। फिर भी यह नहीं हुआ। योजना बनाते हुए यह भी तय करना पडता है कि हम अपने संंसाधनो का प्रयोग किस तरह करने वाले हैं। आज जब हम नौवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल समाप्त करनें जा रहे हैं तब भी प्लानिंग कमीशन में कही यह देखने-पढने के नही मिलता कि मानवीय संसाधनों की प्रयुक्ति या विनियोग करने का क्या उपाय किया जा रहा है, और किन-किन क्षेत्रों में और उस विनियोग से हमारे मानवीय संसाधनों को और अधिक सक्षम करने कि योजना बन रही है। हम अपनी पंचवार्षिक योजनाकी पुस्तकमें यह तो लिख देते हैं कि हमारे पास अमुक हजार करोड कृषि में लगाने के लियें है, तमुक बिजली में फलानी रकम यातायात में, इत्यादी। लेकिन यह नहीं कहते कि हमारे पास कितने वैज्ञानिक हैं, तकनिशियन हैं, कलाकार हैं, विद्वज्जन हैं और उनमेंसे हम कितने कहाँ लगाने वाले है ।
      चलिये, यह तो एक बडी बहस का विषय हो गया, जिससे हम शिक्षा प्रणाली का सुधार करना चाहेंगे। लेकिन एक दूसरी बडी किन्तु तात्कालिक बहस का मुद्दा है हमारी वर्तमान परीक्षा प्रणाली। और वही प्रस्तुत लेख का विषयहै।
       परीक्षा के माध्यम से हम क्या जानना चाहते है और वर्तमान पद्धति में क्या हम ठीक से जान पाते हैं यह भी एक लम्बे चिंतन, मनन और बहस का विषय है।
       यदि हम थोडासा सोंचें कि आजकी परीक्षा प्रणाली किस तरह से कार्यान्वित की जाती है तो हम देखते हैं कि यह प्रिटिंग टेक्नॉलॉजी पर निर्भर है। बडी संख्या में प्रश्नपत्रिका उपलब्ध कराने के लिए उन्हें छपवाना पडता है। फिर एक गोपनियता बनाने रखने का सिलसिला आरंभ हो जाता है। पहलें चुनिंदा लोगोंसे पेपर सेट करवाओ, फिर उन्हें बगैर लीक हुए छपवाओ, फिर उन्हें सुरक्षितता के साथ जगह-जगह परीक्षा केंद्रों पर भिजवाओं, परीक्षा आरंंभ होने तक उनके विषय में चिन्तित रहो इत्यादि। इस सारी व्यवस्था में घुसकर पेपर्स का पता लगानेवालों की कमी नहीं। नयी तकनीकोंमें फैक्स, दूरध्वनी इत्यादि का उपयोग कर पेपर्स लीक कराने, बिकवाने और रातोंरात पैसा कमाने का तरीका भी बखूबी चलाया जा रहा है। अब तक केवल दसवी, बारहवीके पेपर्स लीक होते थे। पर पिछले दो -तीन वर्षो में आइआइटी एन्ट्रेंन्स और केन्द्रीय लोक सेवा आयोग जैसी देशव्यापी संंस्थाओंके पेपर्स भी लीक होने लगे ।         इसीलिए परीक्षा प्रणाली को सुधारने का अच्छा मंत्र यह है कि उसे विकेन्द्रित ढंग से चलाया जाय और वर्तमान प्रिटिंग तकनीकी की बजाय संगणक तकनीकी का उपयोग करने से यह काम आसानीसे हो सकता है ।
     अगली सदी के लिए इस दिशा में अपने देश को तैयार कराने का जिम्मा हमारे सारे विश्वविद्यालयों एवम् स्कूली परीक्षा बोर्डों को उठाना चाहिए।
     विकेन्द्रिकरण की भूमिका व उसका अधिष्ठान बडा ही सरल है। विकेन्द्रिकरण न केवल भौगोलिक स्तर पर हो बल्कि समय के स्तर पर भी। अर्थात सारी परीक्षाएँ एक बार एक साथ न होकर विद्यार्थी की सुविधा से वह जिस महीनें में चाहे, उसी महीने परीक्षा दे। साथ ही वह सारे विषयोंकी परीक्षा एक बार न दे -- अपनी सुविधानुसार जब चाहे जिस विषय की परीक्षा दे दे।
      इसके लिए एक प्रश्न मंजूषा या क्वैश्चन बैंक तैयार कर संगणकों में डाल दिया जायगा। इस मंजूषा में नये-नये  प्रश्न जब चाहें डाले जा सकते हैं। किसी परिक्षाके समय संगणक खुद ही रैण्डम प्रणाली से प्रश्न चुनकर, एक प्रश्न-पत्र का प्रिंट निकालकर परीक्षार्थी को देगा। इस प्रकार हर विद्यार्थी का पेपर अलग-अलग होगा तो कॉपीकी समस्याका समाधान भी हो जाएगा।
          यहाँ एक बात रखना बहुत आवश्यक है। प्रिंटिंग तकनीक और संंगणक की तकनीकमें एक मौलिक अंतर है। प्रिटिंग तकनीक अपनानेपर हमें केन्द्रीकरण करना पडेगा क्योंकि बार-बार गोपनीयता और सुरक्षितता को निभाते हुए प्रिंटिंग करवाना मुश्किल काम है और इसमें युनिवर्सिटी कर्मचारियों के कई दिन लग जाते हैं। इसी कारण सभीकी परिक्षा एकसाथ करवाना भी आवश्यक है। संगणक तकनीक में विद्यार्थी कम रहें तो ही अच्छा। इसी का फायदा उठाकर हर विद्यार्थी को अपना समय आप चुनने की सुविधा दी जा सकती है।
         इस पद्धती के कई फायदे है। सबसे पहले तो यह कि आज पेपर सेटिंग  और छपवाई के काम में हमारे जितने शिक्षक एवं अन्य कर्मचारी उलझे रहते हैं उनके  समयकी बचत होगी, क्योंकि क्वैश्चन बैंक से प्रश्न चुनने का काम संंगणक स्वयं कर लेगा। यह बचत होने वाला समय वे शिक्षा सुधार के अन्य मुद्दों में लगा सकते हैं। दूसरा बडा फायदा है कि कॉपीकी संभावनाएँ बहुत ही कम और असफल हो जाएँगी। तीसरा फायदा अभिभावकोंंका है क्योंकि विकेन्द्रीकरण और सुविधानुसार  परीक्षा के मौसम में स्ट्राइक करनेवालोंंको अपनी भूमिका बदलनी पडेगी और अभिभावक इस तनाव से मुक्ति पा लेंगे कि यदि स्ट्राइककी घोषणा हुई तो क्या होोोगा।
        सबसे अधिक फायदा विद्यार्थियों का होगा कि वे अपनी स्वयंकी सुविधाके अनुसार परीक्षा दे सकेंगें, और अपने मनचाहे विषय का चयन स्वयं कर सकेंगे । जैसे यदि मैं इतिहास विषय में कमजोर हूँ लेकिन गणित में तेज, तो मैं गणितकी चौथी, पाँचवी ....दसवींकी परीक्षाओं में अपनी योग्यता तेजी से सिद्ध कर सकती हूँ ,भले ही मुझे इतिहास अच्छी तरह नही आता हो।
          यहाँ और एक मौलिक प्रश्न उठ खडा होता है। मैंने कई शिक्षाविदोंसे पूछा कि क्यों हम स्कूल या कॉलेज में दाखिला लेना और कक्षाएँ अटेंण्ड करना अनिवार्य मानते हैं ? इसका समाधानकारक उत्तर नही है। यह मान्यता है कि हम फॉर्मल सिस्टममें जो पढते हैं, अर्थात स्कूल या कॉलेजकी कक्षामें बैठकर, वही सही है। मेरे विचार में फॉर्मल सिस्टमकी खूबी केवल इतनी है की यदि बहुत से बच्चों को बहुत से विषयों के बारे में एक समान बातें सिखानी हों तो क्लास रूम में बैठने के तरीकेमें यह काम बडी सरलतासे हो जाता है। अर्थात् फॉर्मल एज्युकेशन की उपयोगिता संंख्यात्मक वृद्धि और फालतू मेहनत बचाने के लिए है। इसमें सुविधा है सरकारी यंंत्रणा की, स्कूल व कॉलेजके मैनेजमेंटकी, किताबे तैयार करनेवालों और छापनेवालों की। साथ उन विद्यार्थी या अभिभावकोंकी, जो एक स्टैण्डर्ड ढर्रे से, किसी खास समय में एक काम पूरा करना चाहते हैं और वह काम है सर्टिफिकेट प्राप्त करने का। बेशक यह एक बहुत बडा काम है, लेकिन यह अन्तिम सत्य नही है और न ही एकमात्र तरीका। यह तो केवल संख्यात्मक या स्टैटिस्टिकल सुविधाकी बात है। फॉर्मल प्रणाली की एक और उपयोगिता यह है कि अभ्यासक्रम (Carriculum) बनानेवाले कई नये विषयोंंको उसमें डाल सकते हैं जो स्वयंप्रेरणा से पढने वाले शायद नही जान पायें । अर्थात फॉर्मल एज्युकेशन की खूबियाँ हैं- अधिकतम लोगोंके लिए एक स्टैण्डर्ड सुविधा, जानकारीका आदान-प्रदान, अच्छे शिक्षाविदों द्वारा तैयार किया गया समग्र ढाँचा और हम उम्रके लोगोंमे  घुलने-मिलने की सुविधा ।
     फिर भी यह सिद्ध नहीं होता की केवल वही तरीका सही है और देशके हर बच्चे के लिए केवल एक यही मुहैया कराया जा सकता है। यह साफ जाहिर है कि देश के तमाम बच्चे और तमाम वयस्क जो आज निरक्षरोंकी गिनतीमें आते है - वे आज तक फॉर्मल ढॉंचेमें अपनी पढाई नहीं कर पाये और न कर पाएँगे ।जब हम देखते है कि देश में निरक्षरता का प्रमाण 48 प्रतिशत है, पहली से पाँचवी कक्षी तक ड्रापआउट होनेवालोंका प्रमाण 30 प्रतिशत है, जब हमारे आँकडे बताते है कि सौ करोड की जनसंख्या में केवल बीस लाख अर्थात 0.2 प्रतिशत जनसंख्या ग्रेज्युएशन तक पहुँच पाती है और केवल 10 करोड ही मैट्रिक्युलेशन तक पढ पाते है, तो हमारी फॉर्मल स्कूल पद्धतिकी मर्यादा और अनुपयुक्तता भी इन आँकडोंसे जाहिर हो जाती है। फिर भी क्या वजह है कि हमने अपनी शिक्षा पद्धतिको ऐसे ढाँचेमें कैद किया है कि बच्चा शारीरिक रूप से स्कूलमें हो ,भले ही मनसे न हो, तो ही उसे हम परीक्षा की अनुमति देंंगे लेकिन यदि उसे किसी ढाबेमें काम कर गुजारा करना पडता हो, शतरंजकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताकी तैयारी  करने के लिए अपना अधिक समय देनेकी इच्छा हो, जंगलोंकी खान छानना अच्छा लगता हो और अपनी मनमर्जी से समय निकालकर वह पढाई भी करना चाहता हो तो हमारी शिक्षा प्रणाली उसे इसकी अनुमति नही देती। हमें यह महत्वपूर्ण परिवर्तन करना आवश्यक है कि जो भी जब चाहे स्कूलमें अपनी योग्यता जँचवाकर स्कूलमें प्रवेश भी ले सके और जिस महीनेमें और जिस विषयमें चाहे परीक्षा दे सके ।
        शायद कोई यह आपत्ति उठा सकता है कि यदि हम संंगणकमें एक प्रश्न मंजूषा संग्रहित कर लें तो हो सकता कि बच्चे उन प्रश्नोंका उत्तर रट लेंगें। यह डर निरर्थक है। प्रश्नमंंजूषा में इतने प्रश्न होंंगे मसलन हजार, दो हजार,कि सबको रट पाना असंभव होगा। वैसे आज भी विद्यार्थी गाइडें पढ-पढ कर रट्टा ही मारते हों तो ज्यादा नुकसान क्या होने वाला है, और यदि कोई हजार प्रश्नोंका उत्तर रट सकता हो तो यह उसकी काबिलीयत माननी चाहिये, उसे हिराकत से देखना जरूरी नहीं है।
      यह डर भी निरर्थक है कि क्या हम इस प्रकारकी प्रश्नमंजूषा संगणकमें तैयार कर पाएँगे। ऐसा प्रयास आरंभ हो चुका है। मेरे अपने संगणकमें पाँच विषयों की अलग-अलग स्तरों की प्रश्नमंजूषा है। मुक्त विद्यापीठ नासिक, इंदिरा गाँधी ओपन युनिवर्सिटी दिल्ली आदि में कुछ काम हो रहे है। SAIL ने भी एक बार इसी तरीके से परीक्षा ली थी। और अमेरिकामें जानेवाले भारतीय विद्यार्थियों की GRE परीक्षा भी संंगणक के माध्यमसे आरंभ हो गई है। इन प्रयत्नों को आगे बढाना और विद्यार्थियोंको परीक्षाके डरसे मुक्त कराना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।
    एक दूसरा सुधार भी परीक्षा पद्धतीमें आवश्यक है जो हमारी न्याय-अन्याय की संवेदनाओं के साथ जुडा हुआ है। कई अच्छे -अच्छे छात्र अपने परीक्षा-फलसे असंतुष्ट हो जाते हैं कि उनके उत्तरपत्रकी जाँच ठीक नहीं हुई है। दुबारा जाँचके पैसे भी भरनेको वे तैयार होते है। पर हमारे कई स्कूल बोर्ड दुबारा जाँच करनेसे मना कर देते है। कोई भी बोर्ड विद्यार्थीको उत्तर पत्र देखनेकी अऩुमती  नहीं देता। यदि देते तो कम से कम विद्यार्थी यह तो तसल्ली कर लेता कि उसीके उत्तरपत्र की जाँच की गई । उधर उत्तर पत्रिकाओंकी जाँचमें काफी धाँधली होती रहती है जिसके किस्से अखबारोंमें भी पढे जाते है। कई बार उत्तर पत्रिकाएँ अपने गंतव्य स्थान तक अर्थात अपने परीक्षक के पास नही पहुँचती -डाक में इधर -उधर खो जाती हैं। या पार्सलों के जत्थे कूडें में मिल जाते हैं। एक वाकया मैंने खुद देखा जब एक परीक्षक अपने घरेलू काम पूरे कर रहे थे और अपनी छोटी बच्चीको निर्देश दे रहे थे कि किस प्रश्नके लिए कितने अंक देने है। वे प्रश्नोंकी  व उत्तरोंकी जाँच नही कर रहे थे बल्कि रैण्डम बेसिस पर या मनमाने ढंगसे उत्तरोंके अंक लिखवा रहे थे । ऐसी हालतमें कई बच्चोंका नुकसान हो जाता है और वे जिन्दगीभर अपने मनमें गाँठ  बाँध लेते है कि इस पद्धतीमें उन्हे कोई न्याय नही मिल सकता। यही बच्चे जब बडे हो जाते है, तो हम उनसे ये उम्मीद करते है कि वे अपने सारे व्यवहारोंमें न्याय को प्राथमिकता दें और नीति-अनीतिकी बातोंको मानकर चलें । अगर यह संस्कार हमें उनके मन में पैदा करना है तो सबसे पहले हमें उनको यह सिद्ध कर दिखाना होगा कि उनके मनकी अन्यायकी भावनाको समझने व सुलझानेमें हमारी परीक्षा प्रणाली सक्षम है।
         परीक्षा प्रणाली को सुधारने का एक और महत्वपूर्ण रास्ता यह है कि जो बच्चे स्कूल बोर्ड व कॉलेज में पहले दूसरे स्थान पर आते है उनके उत्तर पत्रों को प्रकाशित किया जाए ताकि दूसरे कई बच्चोंको मालूम पडे कि अच्छा उत्तर किसे कहा जाता है। चूँकि पेपर जाँचनेमें परिक्षककी व्यक्तिगत मान्यताओंका कुछ असर पडना अवश्यंंभावी है इसलिए कुछ हद तक हम इस मर्यादाको मानकर चलेंगे फिर भी अच्छी उत्तर-पत्रिकाओंको प्रकाशित करनेकी पद्धति यदि हम अपनायें तो इससे कई बच्चोंको सुविधा हो सकती है।
        इसी सिलसिलेमें यह भी एक व्यापार बन चुका है कि प्रश्नोंके मॉडल उत्तर तैयार किये जाते हैं और जो बच्चे इस मॉडल उत्तरको रटे-रटाये ढंगसे दुबारा लिख देते है उन्हें अच्छे नंबर मिल जाते हैं, लेकिन अगर किसी छात्रका उत्तर अच्छा भी हो पर वह मॉडल उत्तर से अलग तरहका हो तो उसके अंक काटे जाते हैं। कई बार परीक्षकको यह पहचान नहीं होती कि अच्छा उत्तर क्या है, उसे केवल गाइडके मॉडल उत्तर पता होते हैं। मॉडल उत्तर तो केवल परीक्षक या सामान्य छात्रकी सुविधा के लिए होते है। लेकिन यह उनका यह उपयोग नहीं है कि बच्चोंको उसी प्रकारसे उत्तर लिखनेके लिए व उसी प्रकारसे बातको समझनेके लिए बाध्य किया जाए। इस सिलसिलेमें मुझे अपने स्कूली दिनोंका एक अनुभव आज भी याद है, जब हमें सोनेके अंडे देने वाले बत्तखकी कहानी पढाई गई और पूछा गया कि इससें हमें क्या सीख मिलती है। हम सभी ने लिखा कि लालच बुरी बला है। लेकिन एक बच्चेने लिखा कि पक्षियोंको नहीं मारना चाहिए। आज मुझे लगता है कि उसका  उत्तर हमसें अधिक सही था।
         इन सारी बीरीकियों के साथ-साथ उत्तर पत्रिका को जाँचने के लिए परीक्षक को शान्ति की भी आवश्यकता होगी और काफी मेहनत भी करना पडती है। आज परीक्षकको साधारणतया एक उत्तर पत्रिकाकी जाँच के लिए सत्तर पैसे से एक सौ पैसे तक मुआवजा दिया जाता है जो हास्यस्पद है। इतने कम मेहनताने में हम उससे यह उम्मीद नहीं कर सकते की वह पूरे मनोयोगसे उत्तर पत्रिकाको जाँच करे। साथ ही स्कूल कॉलेजोंके कई शिक्षक प्रश्न पत्रोंको सेट करवाने, छपवाने, बँटवाने इत्यादि काममे फँसे होनेके कारणसे उत्तर पत्रिकाओंकी जाँच करनेवाले शिक्षकोंकी संख्यामें भारी कमी महसूस होती है। किन्तु संगणक पद्धतिसे परीक्षा लेने पर यह कठीनाई भी दूर हो सकती है और उत्तर पत्रिकाओं को सुनिश्चित समय में जाँचने के लिए परीक्षक मुक्त हो सकेंगे। इस प्रकार हम आशा कर सकते हैं कि हर परीक्षक उत्तर पत्रिकाकी जाँच अधिक अच्छी तरहसे कर सकेंगे। लेकिन जरूरी है कि उन्हें इसका मेहनताना भी अच्छा मिले।
        कई छात्रों व अभिभावकोंसे मैंने ये प्रश्न पूछा कि क्या आवश्यक है कि परीक्षा होने के बाद उनके अंक सुनिश्चित संख्या के रूप में बताये जाएँ या उनकी श्रेणी बताना काफी होगा । कई विद्यार्थी जो मेडिकल या इंजिनियरिंग की धमाचौकडी में नहीं पडना चाहते हैं वे इस बातका आग्रह नही रखते कि उनके सुनिश्चित अंक उन्हे बतायें जाएँ। वे केवल श्रेणीकी जाँचसे ही संतुष्ट हो सकते है। अतएव परीक्षकोंका उत्तर पत्रिका जाँचनेका बोझ इस तरह भी कम किया जा सकता है कि जिस छात्रने यह प्रस्ताव लिख कर दिया हो कि उसे आँकडों के बजाय केवल श्रेणी बतानेसे काम चल जाएगा उनकी उत्तर पत्रिका केवल श्रेणीके हिसाब से जाँची जाए और दूसरे छात्रों की उत्तर पत्रिका अंकोंके हिसाब से जाँची जाए । जिन छात्रोंको अंकोंके हिसाबसे उत्तर पत्रिका जँचवानी हो उनसे परीक्षा फीस कुछ अधिक ली जा सकती है । परन्तु यह उपाय मैंने केवल कुछ छात्रोंका आर्थिक बोझा हल्का करने के लिए नहीं सुझाया है। करीब दो वर्ष पहले महाराष्ट्रमें यह घटना हुई कि दसवींके पेपर्स लीक हो गये । सरकारने यह तय किया कि दसवी कक्षाके लिए दुबारा गणित और भैतिकी विषयकी परिक्षा हो। इन विषयोंमें प्राप्त किए जाने वाले अंकोंका इंजिनियरिंग व मेडिकलके एडमिशनके लिए बहुत अधिक महत्व है अतः कई बच्चोंने वे उनके अभिभावकोंने इस कदमको सही बताया। लेकिन कई हजारोंं ऐसे अभीभावक व बच्चे थे जिनका उस एडमिशनसे कोई सरोकार नहीं था, उन्होने मोर्चा निकालकर, साथ ही अखबारोमें पत्र लिखकर और सरकारके पास निवेदन भेजकर यह प्रार्थना की कि जो बीत चुका सो बीत चुका। अब बच्चों से दुबारा परीक्षाएँ न दिलवायी जाएँ। उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि कुछ बच्चे इस रैट रेस में जाना चाहते है, उनके लिए करीब 5 से 10 लाख बच्चोंको दुबारा परीक्षा दिलवाना अन्यायकारक है। बाद में महाराष्ट्र सरकार और कोर्टने भी उनका यह निवेदन स्वीकार कर लिया और दुबारा परीक्षा देनेकी बात टल गई । इस घटनासे भी सिद्ध हुआ कि कम से कम 50 प्रतिशत विद्यार्थी अपने अंकोंकी सही-सही जाँच के बजाय श्रेणीकी जाँचसे सन्तुष्ट हो सकते है। इस तरहके अन्य कई छोटे-मोटे उपाय सुझाये जा सकते हैं।
        आजकी फॉर्मल शिक्षा पद्धतिमें यह भी होता है कि सारे स्कूल या कॉलेज एक ही दिन खुलते हैं। और एक ही साथ उनकी परीक्षाएँ होती हैं। दूसरे वर्ष फिर एक ही दिन सारे स्कूल कॉलेज खुलते है और एक ही साथ परीक्षाएँ होती है।दुसरे वर्ष फिर एक ही दिन सारे स्कुल कॉलेज खुलते हैं। यह कार्यक्रम भी सुविधाकी दृष्टीसे तय किया गया है, इसलिए कई विद्यार्थि जिन्हे यही पद्धति सुविधाजनक लगती हो वे तो इसी पद्धतीसे स्कूल व कॉलेजोंमें दाखिला लेंगे और अपनी शिक्षाका कार्यक्रम जारी रखेंगे।परन्तु वे कई विद्यार्थी जो सरकार के समय-बद्ध स्कूलोंमें दाखिला नही ले सकते, उन्हे एक अच्छा मौका मिल जायगा कि अपनी सुविधा के अनुसार परीक्षा देकर वे बादमें किसी समय अगर चाहे तो फॉर्मल पद्धतिमें दाखिला ले सकते है।
       इस प्रकार परीक्षामें बैठनेके लिए यदि हम यह अनिवार्यता हटा दें कि स्कुल या कॉलेजमें दाखिला होना आवश्यक है तो आज जो कॅपिटेशन फीवाले लेकिन कम दर्जेवाले स्कूल और कॉलेज खुल रहे है, उनकी आवश्यकता भी घट जाएगी। फिर तो उन्ही संस्थाओं में बच्चे जाएँगे जहाँ पढाईका स्तर सचमुच अच्छा है।इस प्रकार शिक्षा-संस्थाओं में पनम रहा व्यापार भी कुछ हद तक कम हो पाएगा। 
      परीक्षा प्रणालीमें सुधार के लिए एक और आवश्यक मुद्दा भाषा का भी है। एक तरफ हिन्दी भाषाकी दुहाई देते समय दूसरी तरफ हमारे सारे विश्वविद्यालयोंमें बारहवी, इंजीनीयरिंग, मेडिकल या साइंस आदि विषयोंमें यह अनिवार्य किया गया है कि परीक्षा के उत्तर अंग्रेजी भाषा में ही दिए जाएँ। हर वर्ष ईमानदारी से हिन्दी दिवस मनाने वाले भी इस बारे में कुछ नही कहना चाहते। अक्सर यह देखा गया है कि काफी बच्चे नवीं, दसवी तक हिन्दी भाषा के माध्यम से या अपनी प्रान्तीय भाषा के माध्यम से परीक्षा देते हैं। लेकिन जब वे 11 वीं व अन्य परीक्षाओंके लिए आगे जाना चाहते है तो उन्हे पिछडना पडता है क्योंकि 12 वीं के उत्तरमें केवल उनके विषयोंका ज्ञान जाँचनेकी बजाय सबसे पहले उनकी अंग्रेजी भाषा प्रभुता जाँची जाएगी। इस प्रकारकी दोहरी परीक्षाका बोझ इन बच्चों पर पडता है। हमारी परीक्षा पद्धतिमें यह सुविधा अत्यंत आवश्यक है कि साइस व गणित जैसे विषयोंमें भी हिन्दी व अन्य प्रादेशिक भाषाओंमें ही उत्तर लिखनेकी सुविधा हो। कई विश्वविद्यालयोंमें यह नियम है कि जिन बच्चोंको हिन्दी व प्रादेशिक भाषाओंमें अपने उत्तर लिखने हों वे अपने उत्तरमें साइस के सभी शब्दोंके लिए हिन्दी व प्रादेशिक भाषाओंके शब्दों का ही उपयोग करेंगे किन्तु अंग्रेजी भाषाके शब्दोका प्रयोग करनेकी अनुमती नहीं है। उदाहरण के लिए एटम शब्द देवनागरी लिपि में लिखा जाना विश्वविद्यालयों या शिक्षकों को  मंजूर नहीं । उनकी जिद है कि परमाणु शब्द ही लिखना पडेगा। मान लिजिए मैंने अपने उत्तरमें लिखा कि एटमके सेण्टरमें एक न्युक्लियस होता है और सारे इलेक्ट्रॉन उसके चारों तरफ घूमते है या मैंने लिखा कि हार्टकी  प्रत्येक बीटके साथ ब्लड आगे बढता है और इस प्रकार हमारी पूरी बॉडी में ब्लड सर्कुलेशन कायम रहता है तो इस तरहकी भाषा परीक्षामें लिखना जुर्म माना जाता है। मैं यह पूरे विश्वास के साथ मानती हूँ कि पिछडी आर्थिक परिस्थिति या ग्रामीण प्रान्तोंसे आने वाले कई बच्चे इसी जिदके शिकार हो जाते हैं । यदि हम वैसी मिलीजुली भाषा लिखनेकी अनुमति दें जो मैंने उदाहरण स्वरूप बताई है तो आजकी अपेक्षा काफी अच्छे परिणाम आ सकते है । 
 गणित और साइसमें काफी अच्छी जानकारी और जिज्ञासा रखने वाले कई बच्चोंका बेहाल होना मैंने देखा है। बारहवीं व अन्य परीक्षाओंमें अंग्रेजी भाषाके बोझके कारण इन विषयों  में उनकी रूचि कम हो जाती है ।एक तरफ चीन या जपान जैसे  देश पूरी संगणक प्रणाली भी अपनी भाषा में चला पाते हैं। और हम अपने विद्यार्थियोंको हिन्दी या मातृभाषामें परीक्षाके उत्तर देनेकी अनुमती तक नकार देते है। यह कई बार साबित हो चुका है कि मातृभाषाका उपयोग करनेसें छात्रोंके परिणाम अच्छे आते है। जब से आईएएस .परीक्षामें छात्रोंको अपनी मर्जीकी भाषा चुननेकी अनुमती मिली है तबसे यह देखा गया कि मराठी व अन्य कई प्रान्तोंके छात्र इस परीक्षा में अधिकतासे उत्तीर्ण होने लगे और अंग्रेजी स्कूलोंका व अंग्रेजी भाषापर प्रभुता रखनेवाले बच्चोंका वर्चस्व तोडकर प्रान्तीय भाषाओंमें अपनी प्रभुता रखने वाले भी छात्र आगे आने लगे। ।     इसलिए यह आवश्यक है कि हमारी पढाई -लिखाई व सीखनेकी भाषा हिन्दी या अन्य मातृभाषा ही हो और हमारी वाक्य रचना भी वही हो । केवल अपनी सुविधासे कहीं -कहीं अंग्रेजी शब्द लिखनेकी अनुमति छात्रोंको दी जाए तो उनकी परीक्षा काफी आसान हो जाएगी, उनके विषयमें उनकी रूचि व जानकारीकी जाँच सही तरहसे हो पाएगी और अंग्रेजी भाषामें अप्रभुता उनकी कमजोरी का कारण नहीं बनेगी।
        कुस मिलाकर यही अंतिम निष्कर्ष निकलता है कि परीक्षा पद्धति में काफी सुधार करने होंगे। पहला अनिवार्य उपस्थिति का मुद्दा हमें तुरन्त समाप्त कर देना चाहिए। हम आज एक छात्र को एक साथ तीन या चार अलग-अलग कोर्स पढनेकी अनुमति नही देते। इसके लिए मुझे कोई सही कारण नहीं दिखाई पडता। हमे तो यह कहना चाहिए कि जिसमें हिम्मत है व पढाई करने की क्षमता है वह एक साथ दो क्यों दस कोर्स भी कर सके । यही बच्चे जब बडे होते है और उनमें से एक अच्छा साइंटिस्ट बनकर संगीतमें भी कुछ विशेषता रखता है तो हम यह कहकर उसकी पीठ ठोंकते है कि भई वाह साइंंटिस्ट और म्युझिक इकट्ठे हैं। लेकिन अपनी छात्रदशामें छोटी उम्रमें कोई लङका बीएससी. फिजिक्स करते हुए भूगोल में भी बीए .करना चाहे या ड्राइंग में भी कुछ परीक्षा देना चाहे तो हमारे विश्वविद्यालयोंमें उसे यह अनुमति नकारी जाती है। यदि कोई एक्सपर्ट वायरमैन है और अपना काम करते हुए किताबें पढकर बी.ई .इलैक्ट्रिकल की परीक्षा देना चाहता है तो भी हम उसे अनुमति नही देते। गरज यह कि आजके सारे विश्वविद्यालय नकारात्मक नियम तो कई बनाते है, पर सकारात्मक नहीं। कई बार देखा जाता है कि रेसके घोडे सीधे दौडते रहें, इधर-उधर न देख पाएँ या इधर-उधर की न सोच पाएँ इसलिए उनकी आँखों के दोनोंं ओर मोटे-मोटे गत्ते लगा दिये जाते हैं। मुझे सगता है कि हमारे विश्वविद्यालय छात्रोंको भी उन्हीं घोडे जैसे मानते है और उनकी आँखोंके चारों तरफ गत्ते लगा देते है कि बस ऐसे ही सीधे दौडते रहो, इधर-उधर देखना व सोचना मना है। इस भूमिका से हम शायद कई सामान्य छात्रों को कमसे कम समय में अधिक से अधिक आगे ले जानें में सफल हों लेकिन जो छात्र बहुत दूर फेंके जाते हैं उनकी संख्या पचास प्रतिशत से ज्यादा है। साथ ही हमारे देशके जो मेधावी छात्र हैं उनकी स्वाभाविक तेज प्रगति हम अवरूद्ध कर देते हैं क्योंकि उन्हे भी इसी तरह आँख पर पट्टी बाँधकर बिना दिमाग वाले ढाँचे में ही दौडना पडता है।
       यदि हम देशके ड्राप आउट हो रहे पचास प्रतिशत बच्चोंको पढाईमें फिरसे मौका देना चाहते है, या छात्रोंको आगे आनेका बेहतर अवसर देना चाहते हैं तो हमारी शिक्षा पद्धति केवल लीक वालोंकी न रहे ,लीकसे हटकर चलने वालोंके लिए भी उतनी ही शुभंंकर हो। तभी तो सा विद्या या विमुक्तये वाली बात सही सिद्ध होगी।
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