॥ ८१॥ पायडया और बाई ॥ ८१॥
रात उदास। मारे गए चार
आदमियों को गाड़कर पायडया अभी वापस लौटा है।
इन्हें कैसे गाडूँ, खड़ा या
सुलाकर? उसने जाते समय बाई से पूछा था।
खड़ा गाडना। उसी सम्मान से
जैसे पीलू जनते हुए मरने वाली सू को गाडते हैं।
बाई ने कहा था।
पायडया बाई के पास आ बैठा।
वैसा ही गाडा। उसने बाई को
बताया।
बस्ती से दूर घायलों के लिए
बनी झोंपडियों में अब आठ-दस आदमी थे। उनमें से दो तो निश्च्िात ही मरने वाले थे।
आज बाहर कम अलाव जल रहे थे।
हवा में वर्षा की ठण्डक थी।
पायडया गदगदा कर रोने लगा।
चूप। बाई ने तीखी आवाज में
कहा। उसकी आँखें पथराई हुई थीं।
अब पता चला कि क्या होता है
बस्ती के लिए मरना?
सू कैसे मरती है? पिलू जनकर?
पायडया सिहर गया। चुप हो
गया।
बाई उठी। अपनी झोंपडी में
चली गई।
पायडया ने सीटी पर धुन बजानी
शुरू की। करुणा में डूबी हुई धुन।
चार आदमी औंढया देव के पेड
के पास आए। जय औंढया का नारा लगा।
चारों उपर मोड़ की तरफ चल
दिए।
रखवाली के लिए।
पायडया उन्हें एकटक देखता रहा।
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