॥ उपसंहार॥
रात्रि में नक्षत्र चमचमा रहे थे।
पावस ऋतु बीत चुकी थी।
अब ठण्ड पडने लगी।
दूर नदी बह रही थी। मंथर, शांत गति से।
किनारे धान के पौधे।
लहलहाते, जीवन्त।
बस्ती पर नाच के दिन बीत चुके थे।
अब काम के दिन थे।
झोंपड़ी के बाहर पत्थर पर निश्चल बैठा फेंगाडया।
थोड़ी दूर पर औंढया देव के पेड़ के नीचे पायडया, पिलू, कुछ सू और कुछ आदमी। चहुँ ओर आनन्द।
एक नदी बह रही है- आनंद की, उष्मा की, मानुसपन की।
देवाच् तूने ही दिखाया यह दिन।
यही रात मैंने देखी थी उस रात भी।
उस रात जब लुकडया और लंबूटांगी गुहा में थे।
और मैं घाटी की कगार पर, मेरे पेड़ के पास।
तब भरमाकर मैंने जो देखा, वह तूने सच कर दे दिया मुझको।
हाथ की लुकडया की हड्डी को बार बार देखा फेंगाडया ने। फिर उसे नचाते हुए बोला-
बापजी, तू खोटा था।
बस्ती ऐसी है।
ऊष्मा देने वाली। सहारा देने वाली। पिलुओं को जिलाने वाली।
टूटी हड्डी को जोड़ने वाली।
थरथरी में भरकर वह खड़ा हो गया।
हड्डी की गाँठ को बार बार छूकर देखने लगा।
झोंपड़ी से कोमल बाहर आई।
पिलू को सँभालते हुए उसके पास पहुँची।
उससे सट कर खड़ी रही।
उसने लम्बी साँस खींचकर कोमल की देहगंध को अपने नथुनों में भर लिया।
केवल इसी की यह गंध.... इसी का यह श्र्वास।
उसकी बाँहों में एकआँखी का पिलू सो रहा था।
पिलू के मुँह में कोमल का थान।
एक मंथर सी साँस पिलू की।
फेंगाडया एक टक पिलू को देखता रहा।
उसकी छाती गदगदा गई।
पिलू को देखकर।
अचानक किसी आवाज से पिलू चमक गया।
दोनों हाथ उठाकर हलचल करने लगा।
कुनमुनाने लगा।
आधार खोजते हुए उसका छोटा सा हाथ कोमल के थान पर जा टिका। वहीं रुक गया।
आश्र्वस्त होकर पिलू सो गया।
उसकी साँस फिर मंथर हो गई।
फेंगाडया थरथरा गया।
यही है आधार, जो सबको चाहिए।
पिलू को सू का आधार। आदमी को बस्ती का आधार।
उसने दूर बैठे पायडया को देखा। पायडया सारे जमावडे को वही कहानी सुना रहा था.....
एक दिन औंढया देव पाँव पसार कर आकाश में बैठा था।
बैठे बैठे ऊबने लगा।
उसने मुठ्ठी भर धान लिया.....
आकाश में उछाल दिया....
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