Tuesday, 6 December 2016

॥ ७८॥ लुकडया चलता है ॥ ७८॥

॥ ७८॥ लुकडया चलता है ॥ ७८॥

बगल में उंचाडी जाग रही थी। पंगुल्या ने हाथ बढाया। उंचाडी ने उसे अपने थानों पर रख लिया।
अपार सुख से उसने आँखें खोलीं।
पंगुल्या के चेहरे पर मुस्कान आ गई।
अचानक उंचाडी का चेहरा कुम्हलाया। आँखों में। पानी।
झिंग्या। उसने आक्रोश दबाकर कहा।
रोने की आवाज पर लुकडया ने गर्दन घुमाई।
कितने ऋतु गए। मेरा पिलू।
मुझे जब उठाया, वह पेड़ पर छिपा रहा।
अब मैं यहाँ और वह जंगल में।

मर ही गया हो- मेरा पिलू।
यहाँ बस्ती पर भूख नही।
हर दिन, हर घड़ी किसी आहट का भय नही।
चौंकना नही। काँपना नही।
बहुत धान है। शिकार है।
बस्ती पर बसेरा करने वाले हर पंछी के लिये धान है। अलाव की ऊष्मा है।
झिंग्या भी यहाँ पहुँच जाता तो? वह रोने लगी।
लुकडया सारी बातें सुन रहा था। करवट बदल कर उनकी ओर देखता हुआ बोला- मैं भी मर ही जाता जंगल में। लेकिन मेरे लिये वहाँ फेंगाडया था।
मुझे उठाने वाला। कोमल को भी उठाने वाला।
फेंगाडया पर इतने दिन मैं चिढा। चिल्लाया। लेकिन आज अच्छा लग रहा है। कम से कम मैंने यह तो देख लिया कि बस्ती है। ये अलाव-- ये नाच-- यह आश्र्वासक ऊष्मा। यह हँसी। अब तो पैर भी नही दुखता।
लुकडया फिर से करवट बदल कर लेटने लगा।
पंगुल्या ने उसका करवट बदलना देखा।
अब पैर नही दुखता- पंगुल्या के मन में कुछ उभरने लगा। जैसे छाती में अचानक प्रकाश का ヒाोत फूट
पड़ा।
पंगुल्या उठकर लुकडया के पास आया। उकडूँ बैठकर एकटक उसके पैर को देखता रहा।
एक पूरा ऋतु बीत चुका था जाँघ को बेलों से बांधे।
फिर से छाती में उजाला चमका। पंगुल्या ने चिल्लाया--
तेरा पैर नही दुखता लुकडया-- पता है क्यों?
क्यों कि तेरी हड्डी जुड़ गई है।
जुड़ गई है तेरी हड्डी।
उंचाडी और लंबूटांगी दोनों भागकर आईं।
लुकडया के पास बैठ गई।
एक अवश आवेग से पंगुल्या उठ खड़ा हुआ।
उसका शरीर सनसना रहा था।
पंगुल्या की यह आँखें, केवल उसी की है, ऐसी नजर।
पंगुल्या ने धीरे धीरे लुकडया की जांघ पर हाथ फेरा।
क्या दुखा? अधीर होकर उसने पूछा।
नही।
अब दुखा? पंगुल्या ने हल्का बोझ डालते हुए पूछा।
नही। लुकडया ने गर्दन हिलाई।
और अब? पंगुल्या ने पूरे जोर से उसकी जांघ दबाई।
हाँ, जरासा। लुकडया पुटपुटाया।
अब बताना। पंगुल्या ने उसका पूरा पैर उठाकर नीचे पटकते हुए पूछा।
हाँ थोड़ा सा।
पंगुल्या ने जल्दी जल्दी सारी बेलें उखाड़ फेंकी। सारी लाठियाँ निकाल दीं। अब पैर पूरा खुल गया था।
पंगुल्या चिल्लाया- उठा अपना पैर, हिला उसे।
लकुडया भरमा गया। पैर उठाने चला।
पूरा पैर मानों लकड़ी बना हुआ।
नही। उसने हताशा से गर्दन हिलाई।
उठाओ। जोर लगाओ। पंगुल्या का उन्माद थम नही रहा था।



लुकडया ने जोर लगाया। पूरा पैर एक सीध में हिला।
पंगुल्या हर्षित होकर चिल्ला उठा- जुड़ गई, जुड़ गई। तेरी टूटी हड्डी जुड़ गई।
अब उठ जा। उसने तेज स्वर में लुकडया को पुकारा।
लुकडया का चेहरा खिल गया।
लंबूटांगी और उंचाडी ने बाजू पकड़ कर उसे दोनों ओर से सहारा दिया और एक झटके से उठा कर खड़ा कर दिया।
उसके दोनों पैर कमर के पास और घुटने से मुड़े हुए हवा में लटक रहे थे। बोझा दोनों ओर से उंचाडी और लंबूटांगी पर था।
पंगुल्या आकर उसके सामने खड़ा हो गया।
वह अच्छा वाला पैर पहले टिका भूमि पर।
लुकडया ने वह पैर नीचे किया।
उस पर जोर दे।
लुकडया ने धीरे धीरे उस पर जोर दिया। वह काँप रहा था।
अब दूसरा पैर भी टिका।
लुकडया ने दूसरा पैर भूमि पर टेक दिया।
क्या दुखा?
नहीं।
अब चलकर देखो। जोर देना उस पैर पर भी। हमने पकड़ रखा है तुम्हें।
लुकडया ने जोर लगाकर एक पैर आगे किया। फिर दूसरा।
थोड़ा लडखड़ाया, फिर संभला।
फिर तीसरा, चौथा......
लंबूटांगी भी उन्मादित हो गई। अपने गले में उसकी बाँह लपेटे उसे गोल गोल घुमाने लगी। रोने लगी।
पंगुल्या नाचते झूमते बाहर आ गया।
अपना पंगु पैर ऊपर उठाकर एक ही पांव पर गोल गोल नाचने लगा।
झोंपडी के बाहर अलाव जल रहे थे।
पंगुल्या का उन्माद वहाँ तक पहुँच गया। दूसरी झोंपडियों में भी। सारे दौड पडे। पायडया, कोमल, बाई......।
फेंगाडया भी दौड़ कर आया। उसे अपनी आँखों पर विश्र्वास नही हो रहा था। थरथराते हुए वह दूर ही खड़ा रहा।
लुकडया अपने पैरों पर खड़ा था।
फेंगाडया की आँखों में आँसू। लुकडया की आँखों में अपार आनन्द।
कोमल फेंगाडया से सटकर खड़ी हो गई। उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। तेज हवा में कोई बड़ा वृक्ष हिले ऐसे ही फेंगाडया का शरीर हिल रहा था।
लंबूटांगी छलांग लगाकर उसके पास पहुँची। उसे बाँहों में भर लिया। अपने थानों पर उसका माथा दबा लिया।
लुकडया थक कर एक पत्थर पर बैठ गया। बाकी सारे नाचते रहे। चिल्लाते रहे।
फेंगाडया लुकडया के पास पहुँचा। थरथराते हुए दोनों गले मिले। एक दूसरे को चूमने लगे।
बाई आगे बढी। उनके पास बैठ गई।
धानबस्ती ने धान दिया....। वह पुटपुटाई। याद रखना फेंगाडया। लुकडया...... तुम्हारी हड्डी जुट पाई क्यों कि धानबस्ती ने पेट के लिये धान दिया। इस.... इस बस्ती ने।
बाई की आवाज भी थरथरा रही थी। आज धानबस्ती पर पहली बार किसी की हड्डी जुटी है। घायल मनुष्य की हड्डी। क्योंकि धान था।
मैंने औंढया देव को बताया नया नियम। तुम सब सुनो।
आज से इस धानबस्ती पर सू..... पिलू सबका स्वागत है, और घायल आदमी का भी।
उनके लिये भी यहाँ धान है।
चांदवी दौड़कर आई और उससे लिपट गई।



और बाई, पिलू देने वाली सू के लिये? बाई, उसे क्यों धान नही? क्यों केवल दो दिनों के लिये?
नही बाई, ऐसा मत रहने दो। उसे भी धान है, जबतक वह उठकर चलने न लगो। कहो बाई, सबसे कहो। यह भी नया नियम बनने दो।
सारे स्तब्ध हो गये। गहरी शांति।
पायडया, कोमल एकआंखी भी आगे आ गये। उसे देखने लगे।
बाई हंसी। उसने चांदवी को अपनी ओर खींच लिया। उसे चूमकर बोली-- ठीक है, ऐसा ही होगा।
चांदवी देर तक उसके वक्ष पर अपना सिर मथती रही। पायडया नाचते हुए चिल्ला उठा-
हुर्रच्हो!हो!हो।हुर्रर्र......!
फिर से नाचने का दौर शुरू हो गया।
रात गहराती गई। नाच अभी थमा नही था कि उपरी मोड़ अचानक सजग हो उठा। वहाँ कुछ हिला। फिर एक तेज स्वर उठा।
सारे सहम कर खडे रहे।
फेंगाडया सहित सभी आदमियों ने लाठी उठा ली।
मोड़ से दौडते हाँफते लकुटया नीचे आया।
पायडया के सामने खड़े होकर कहा--
उनका हमला हुआ था। हमारे दो आदमी मर गये।
हाँफ और थकान मिटाने के लिये वह जोर से चिल्ला उठा।
पायडया ने इशारा किया।
तुम लोग आगे आओ।
चार आदमी आगे आए।
ऊपर जाओ। सोटया और बाकी लोक थक चुके होंगे। आज उन्हें यहाँ वापस भेज दो। जाओ।
सर्वत्र सन्नाटा।
चारों आदमी चिल्लाए- जय औढया।
वे चढाई चढने लगे। दौड़ते हुए। उनके जाने की आवाजें देर तक सब सुनते रहे।
पायडया मुड़ा। सारे मुड गये। झोंपडी में जाने लगे।
बचे रहे केवल पंगुल्या लुकडया, फेंगाडया, लंबूटांगी, उंचाडी और हाँफता हुआ लकुटया।
लकुटया ने तीखी आँखों से लुकडया को देखा।
वह थूका।
उधर आदमी मर रहे हैं, इधर नाच। क्यों?
तुम्हारी खुशी के लिये? तुम्हारी हड्डी जुडी इसलिये?
उसने खडे रहे लुकडया को देखकर पूछा।
लुकडया चुप ही रहा।
लकुटया ने अपनी लाठी उठाई और तपाक से घूम कर वापस चला गया।
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