॥ ८५ ॥ बापजी का प्रस्थान वाघोबा टोली के साथ ॥ ८५॥
एक आदमी ने बापजी को उठाकर कंधे पर बिठा लिया।
बापजी चिल्लाया- जय वाघोबा।
आदमी चले। बस्ती की सीमा आई। वहाँ बांस की टिकरी पर टंगा हुआ बंदर। आँखे वैसी ही- टकटकी लगाई हुई।
बापजी हंसा।
कई दिनों पहले वह इसी टिकरी के नीचे गुजरा था।
यही उलटा टंगा बंदर....यही आँखें। और उसकी हंसी।
लेकिन आज वह बली नही था।
वह बापजी था।
आज के बली अलग थे। ये सारे उसे ढोने वाले मूरख ही अब बली थे।
वह थूका।
उसके पैर में पड़ा काला निशान अब घुटने तक आ गया था। हर दिन उसे ग्लानि और बुखार में जला रहा था।
मेरे अब थोड़े दिन बचे शायद।
मैं मरूँगा। लेकिन अभी नहीं।
मैं देखूँगा उस बस्ती का मरण।
तभी मैं मरूँगा।
उसने सबको बताया था--
मैं साथ चलूँगा। चढाई के बाद उतराई के पास पेड़ पर मैं बैठूँगा।
धानबस्ती में अपने आदमी मरण
का खेल खेलेंगे, उन्हें देखूँगा।
मैं मर जाऊँगा, परवाह नही।
लेकिन धानबस्ती का नाश मैं देखूँगा।
सब पर उन्माद छा गया। कई रोए
भी।
उसे रुकने के लिए कहते रहे।
लेकिन वह नही माना।
मैं जाऊँगा।
सीमा पर सभी पिलू, सारी सूएँ
वापस हो लीं।
बापजी ने गर्दन घुमाई।
आगे चढाई आरंभ हो रही थी।
ताकदवर कदमों से आदमी चढने लगे।
बापजी बुखार की ग्लानी में
बड़बडाया - फेंगाडया, तुझसे एक बार मिल पाता। एक बार।
देखता तू कि मैं क्या रहा
हूँ।
देवा, अब यह टोली और
धानबस्ती मरेंगे। एक दूसरे को मारकर मरेंगे।
आदमी मुक्त होगा बस्ती के
जीवन से। वापस छोटे गुट में, गुफा में चला जायगा। अकेला रहेगा।
बापजी का बुदबुदाना किसी ने
नही सुना।
आदमी दौड रहे थे।
यह था वाघोबा टोली में बचे
अन्तिम आदमियों का गुट।
नये जोश से जा रहा था
धानबस्ती को। मरण का अंतिम खेल खेलने।
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