॥ ९१॥ बापजी का उन्माद ॥ ९१॥
गरजता तूफान और बारिश। भरी
दुपहरी में अंधेरा छाया हुआ। अंदर तक भींगा हुआ बापजी का शरीर थरथराया।
लाल्या, कुछ आदमी, बापजी साथ
बैठे थे। चढाई के मोड पर। पहला मोड़ अब उनके कब्जे में था। पहली विजय।
लाल्या अशांत था।
अपने बहुत लोग मरे। वह
बुदबुदाया।
बापजी बुखार में तप रहा था।
कष्ट से उसने आँखें खोलीं।
क्या सच?
हाँ। अपने बहुत लोग मरे।
उनके भी मरे।
झूठ तो नही बोल रहे।
नही सच। अब हमारी तीन-तीन की
पांच टोलियाँ हैं। लेकिन बस्ती पर अब बचे होंगे केवल सू या बूढे या पिलू।
बापजी खिलखिलाकर हंस पड़ा।
थकान मानों उड़ गई कुछ देर के लिए। वह उन्माद से भर गया। मर गए। देवाच् मर गए। अब
थोड़े से ही बचे रहे।
लाल्या का शरीर सनसना उठा।
उसने खींचकर एक जोरदार थप्पड़ बापजी को मारा।
क्या मैं भरमा रहा था? बापजी
ने संभलते हुए पूछा।
बहुतच्। लाल्या ने गुर्राहट
की।
तेरी ये भरमाई बातें सही हैं
या वो जो तू दूसरे समय में बोलता है?
तू बापजी है या तू ही शैतान
है?
पाषाण्या कहता था-- तू शैतान
है।
तू बाहर से आया-- फिर जैसे
टोली का ही हो गया।
फिर पूरी टोली में तुमने
उन्माद भर दिया।
लाल्या आवेश में भरकर बोल
रहा था।
वह सच था या झूठ था? बोलो।
बापजी ने गर्दन हिलाई।
अब केवल दलदल-- । वह
चिल्लाया।
अब पाँव फंस गए दलदल की
गहराई में।
अब पीछे नही मुडना है। थू।
ऊपर से लाल्या के तीन आदमी
दौड़ते हुए आए। धपाक् से बैठ गए।
तीनों के शरीर पर घाव। रक्त
की धार।
लौटना पड़ा। ऊपर उनके आदमी
मार दिए। अपने भी मरे। लेकिन वह मोड अब भी उन्हीं के पास रह गया।
बापजी का उन्माद फिर बढा।
मर गए। उस टोली के..... इस
टोली के।
वह खिदिक खिदिक कर हंसने
लगा।
वर्षा का वेग बढ रहा था। दूर
से नदी का रौरव स्वर गूंज रहा था।
सूरज नही, चांद नही, तारे
नही।
मानों इन टोलियों को डुबाने
के लिए ही आई है वर्षा। बापजी बुदबुदाया। आकाश की ओर हाथ उठाते हुए बोला--
मैं चला, मरने के लिए।
अकेला। लेकिन मार कर मरूँगा। बाकी बैठेंगे रोते हुए।
लाल्या का शरीर तन गया।
मैं हूँ अभी-- बुढ्ढे, तू
अभी नही जायगा।
जब तक ये तीन तीन आदमियों के
पांच गुट हैं और मैं हूँ, तब तक तू नही जाएगा।
कल चलेंगे हम। तुम्हारा खेल
अधिक नही चलने वाला.....
जय वाघोबाच्। वह उन्माद से
चिल्लाया। मरण। धानबस्ती के लिए मरण।
सब चिल्लाए, जय वाघोबा।
लेकिन उस समय पेट की भूक बडी
है। लाल्या ने कहा। अब शिकार ढूँढनी पड़ेगी। आज की रात आखरी रात है। कल होगा अन्तिम
खेल।
एक आदमी को बापजी के पास
रखकर बाकी सब लाठियाँ लेकर शिकार के लिए निकल पड़े।
कुछ समय बीता।
बापजी अचानक हंसने लगा। पास
बैठा अकेला आदमी काँप गया।
तू कभी जंगल में अकेला रहा
है-- बस्ती के बगैर?
नहीं। वह आदमी भयभीत हो गया।
अब रहना पडेगा। इस जंगल में अब
कोई टोली, कोई बस्ती नही बचेगी। टोली नही माने जय वाघोबा नही।
जय लाल्या नही, जय पाषाण्या
नही।
काई बाई नही, कोई औंढया देव
नही।
औढया को बली चढाने के लिए
भैंसा पकड़ना नही।
बस अकेला अकेला आदमी।
अपनी ही जय।
फिर आदमी सुन सकेगा अंदर की
आवाज..... देव की आवाज।
मानुसपने की आवाज.....जो
छाती से निकलती है।
सुनी है कभी तुमने? नही ना?
कैसे सुन सकता है तू?
वह आवाज सुनने के लिए तू
आदमी कहाँ रहा?
बस्ती में रहकर तू भी जानवर
बन गया है।
मोटा, माँस से भरा जानवर।
बापजी हंसता चला गया......
देर तक। उसका सारा उन्माद हंसी बन कर बहता रहा।
फिर थकान की मूर्च्छा में
पडा रहा।
वह आदमी फिर से कांप उठा।
अकेला रहना पडेगा?
चहुं ओर पानी, वर्षा की
गूँज, अंधियारा, और नदी का रौरव स्वर।
मैं अकेला हो जाऊँगा? आदमी
थरथराता रहा।
ऐसा अकेलापन भी रोज-रोज?
नही, नही। वह चीखा। कल
अन्तिम लड़ाई का दिन। जय वाघोबा। उस बस्ती के सारे आदमियों को मारकर हमारे कम से कम दो और दो आदमी तो वापस
लौटेंगे।
बस्ती पर लौटेंगे। फिर वहाँ
होगा अलाव। उष्मा। और सू। सू के साथ जुगना।
आदमी की चहल पहल। वह
पुटपुटाया। भूख के जोर से वह थकने लगा था। फिर भी जतन से आँखें
खुली रखकर, हाथ में लाठी
संभाले बैठा रहा।
वर्षा का स्वर और अंदर तक
भिगो देने वाली हवा।
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