॥ ८९॥ पंगुल्या हड्डी लेकर
आता है ॥ ८९॥
हमारे बहुत आदमी मरे? चांदवी
ने पूछा।
पंगुल्या ने सिर हिलाया।
उनके?
उनके भी बहुत।
उसकी झोंपडी में कोमल,
चांदवी, पायडया, उंचाडी, सभी गोल बनाकर बैठे थे। अपने पैरों को देखते हुए।
उंचाडी भेसूर चिल्लाई- तब
बची मैं, अब मर जाऊँगी।
पंगुल्या ने अपनी हड्डियों
की पोटली पर हाथ फेरा।
मंत्र पढ। अरे जानवर, मंत्र
पढ। उंचाडी चिल्लाई।
मार दे उन्हें मंत्रों से।
उन्माद से उंचाडी ने
पंगुल्या के कंधे झकझोर डाले।
पंगुल्या ने सिर हिलाया।
खिन्न स्वर में बोला- ऐसे मंत्र नही होते।
उंचाडी फिर से रोने लगी।
भयाण स्वर में।
चांदवी कोमल से लिपट कर
थरथराने लगी।
पंगुल्या खड़ा हो गया। झोंपडी
से बाहर आया।
चारों ओर शांत दोपहर।
उसने ऊपर देखा- चढाई के मोड
की ओर।
वहाँ गीध ही गीध।
पंगुल्या सिहर उठा।
बस्ती पर अब कोई आदमी नही
था। बाकी बचे बीस पच्चीस लोग चढाई के मोड के पीछे थे। अब उन्हें वहीं रहना था।
पैरों की आहट आई। पायडया पास
आ रहा था। उसके हाथ मजबूती से पकड कर बोला- तेरे पास हड्डियाँ हैं। मंत्र पढ।
मैं आज सुबह ही उपर से आया
हूँ। मोड के उस पार से। बाई को बताने।
वहाँ से नीचले मोड पर
प्रेतों का ढेर पड़ा है। हमारे आदमियों का, उनके आदमियों का।
रोज सुबह आती है।
रोज मरण का खेल आरंभ करती
है।
कभी ऐसा न देखा था ने सुना
था।
अन्त क्या है? हमारा मरण।
यहीं पर। पायडया कांपते हुए बोला।
जो अधिक हैं, वे ही जीतेंगे।
मानुसबली टोली के लोग आ रहे
हैं।
तू उनमें था।
तुझे पता है कि वे अधिक हैं
और हम कम।
ठीक है ना?
पंगुल्या ने हां में सिर
हिलाया।
फेंगाडया अकेला क्या करेगा?
पायडया थूका।
बाई क्या करेगी? वह किस काम
की?
पायडया चिल्लाया।
वह थोडे ही यह खेल खेलेगी?
वह सू है। बिना काम की।
पंगुल्या ने फिर सिर हिलाया।
पायडया थोड़ी देर खड़ा रहा।
भरमा गया था मैं। वह
बुदबुदाया। फिर चला गया।
पंगुल्या वापस झोंपडी में
आया।
चांदवी और उंचाडी ने उसकी
पोटली खोलकर हड्डियाँ निकाली थीं।
यह संभाल। देख इसमें मंत्र
है या नही।
उंचाडी ने एक हड्डी उठाकर
उसके हाथ में दी।
पंगुल्या पागलों की तरह
हंसा।
मंत्र होता, तो इतने आदमी
मरने देता मैं?
उसने पूछा।
सारे चुप।
हताशा से वह भी उकडूँ बैठ
गया। अब केवल राह देखना अपने हाथ में है।
वे कई हैं, हम थोडे हैं।
वे आएंगे।
मेरी बली देंगे। मैं भाग
निकला इसलिए। मेरी सब कुछ पीछे छूट जाएगा।
वर्षा, गरमी और जाड़े की ऋतु
बताने वाला मेरा पेड, नचंदी की रात बताने वाले मेरे पत्थर, ये हड्डियाँ। वह
पुटपुटाया।
एकटक अपनी हड्डियों को देखता
रहा।
सामने भैंसे की छाती की
गोलाकार हड्डी पडी थी। चंद्रमा के फांक की तरह।
पंगुल्या सुन्न आंखों से देख
रहा था।
अलाव की एक लपट उठी।
उसके प्रकाश में हड्डी एक
बार चमक गई।
पंगुल्या ने देखा।
उसकी छाती धडधडाई।
आंखों में एक प्रकाश कौंधा।
उसने तेजी से हड्डी उठाई।
मजबूत हाथों से उसे ताना। और एक छोर छोड दिया।
सण्ण् से हड्डी हिली। देर
तक छोर हिलता रहा।
मानों एक जोर का थपेडा।
उसने उसे फिर एक बार ताना और
छोड़ा।
फिर एक बार।
बार बार।
वह पागलों की तरह हंसा।
ऐसी चार पांच हड्डियाँ और
चाहिये। वह पुटपुटाया। मिलेंगी, पीछे के जंगल में मिलेंगी। धडपडाते हुए वह उठ
बैठा।
समय कम है। वह हांफते हुए
बुदबुदाया।
जितना दौड सका, दौड गया जंगल
की ओर। हाथ में वही भैंसे की हड्डी।
उंचाडी एक बार फिर हंसी।
यह भी पगला गया।
हंसते हंसते रोने लगी।
वे आएंगे। तुझे, मुझे, सब
सओं को जुगेंगे। आदमियों को, सब पिलूओं को बली देंगे, भूनकर खाएंगे।
चांदवी थरथराते हुए देखती
रही।
उंचाडी की भेसुर रुलाई
धानबस्ती पर पसरती रही।
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