Tuesday, 6 December 2016

॥ ९०॥ फेंगाडया और गीध ॥ ९०॥


॥ ९०॥ फेंगाडया और गीध ॥ ९०॥

मोड़ पर फेंगाडया सावधानी से बाट जोह रहा था। चारों ओर शांती।
अगली लहर कब आएगी पता नही।
वह उठा। नीचे देख आया।
उसके आदमी सावधान थे। हाथ में लाठी लेकर। लेकिन उनकी आँखें बुझ रही थीं। जैसे बुझता हुआ अलाव।
वह उकडूँ बैठा- थरथराता रहा।
इधर उधर कुछ प्रेत सड़ रहे थे। उन पर ढिटाई से गीध बैठे थे। उसने एक पत्थर उनकी ओर उछाल दिया। गीध उड़ गये। पेड पर बैठकर राह देखने लगे।
नया मांस..... आदमी का। ताजा.... खूब मांस।
फेंगाडया पुटपुटाया। खुश हैं सारे गीध। उन्हें अच्छी शिकार मिली।
वह घुटनों पर बैठ गया। आक्रंदन कर उठा।
देवाच् आदमी ही आदमी को मारने के लिए करे इतनी हलचल?
तूने ऐसा आदमी क्यों बनाया?
उसे भैंसा बना देता। या पत्थर बना देता।
उसे सांस क्यों दी?
क्यों छोड दिया उसे अपनी अपनी राह ढूँढने को?
आदमी समझ नही पा रहा है।
मैंने...... मैंने तुम्हारी आवाज सुनी।
पत्तों की सरसराहट में सुनी।
सुनकर मरण को रोकने चला मैं।
लुकडया को बचाया। उसे शिकार दी। उसकी हड्डी जुटी।
टूटी हुई हड्डी जुटी। पहली बार।
कोमल को बचाया।
उसके पिलू को भी बचाया।
लेकिन इन आदमियों ने मरण का खेल बनाया।
तो फिर सच क्या है? सही क्या है?
इस खेल में कल मेरा मरण होगा- वह सही है या लुकडया की हड्डी का जुटना और लुकडया का चलना सही था?
मानुसपने की राह बहुत दुखाने वाली है देवाच्। जिसे वह राह मिली वह सबसे अलग पड जाता है।
ये बाकी आदमियों की राह उसे अपनी नही लगती।
उसे लगता है - वह कभी इनका साथी थ ही नही। वह अलग है। सरसराने वाला पेड है।
सोटया ने पुकारा तो फेंगाडया चौंक गया।
सोटया हंसा। बोला-
जाओ तुम लोग नीचे। थक चुके हो सब।
अब मैं आ गया हूँ कुछ आदमी लेकर।
हम रुकेंगे यहाँ।
फेंगाडया भी हंसा। बाकी आदमी उसके पास जमा हो गए।
सोटया और नए आदमी चढाई के मोड़ पर बिठाकर भारी मन से फेंगाडया अपने आदमियों के साथ बस्ती की ओर उतरने लगा।
--------------------------------------------------------



No comments: