Tuesday 6 December 2016

॥ ८३॥ बाई और फेंगाडया ॥ ८३॥

॥ ८३॥ बाई और फेंगाडया ॥ ८३॥

फेंगाडया की आँखे खुलीं।
आँखो में, शरीर में अब भी ग्लानि बाकी थी। रात की बात याद कर वह फिर हुमक हुमक कर रोने लगा।
उदेती की ओर से आकाश में लाली पसर रही थी।
फेंगाडया की गदगद हिलती पीठ पर किसी का खुरदुरा हाथ फिरने लगा।
उसने पीठ सिकोड ली।
घूमकर देखा। बाई पास आकर बैठी थी।
गर्दन फेरकर वह थूक दिया।
बाई आगे की ओर खिसक गई।
उसके गाल पर हाथ रख्खा।
बापजी ही सही था। बस्ती में मुनष्य से जानवर बनना पड़ता है-- वह चिल्लाया।
यहाँ आकर मुझे क्या मिला?
मरण, केवल मरण।
इस टोली से उस टोली का मरण।
उस टोली से इस टोली का मरण।
लुकडया का मरण। लकुटया का मरण।
बाई ने गर्दन हिलाई।

अकेला था तो क्या मरण नही था?
टोली में था तो मरण नही था?
था। फेंगाडया चीखा। लेकिन आदमी से आदमी का मरण नही था।
मैं यहाँ से चला जाऊँगा। वह गदगदाते हुए बोला।
चले जाना। बाई ने ठण्डे स्वर से कहा।
चले जाना। सारे आदमी बस्ती से जाने का कोई न कोई कारण खोजते हैं।
तू अलग आदमी था।
पहली बार लगा कि तू अलग आदमी था। जो अपने साथ इतरों के लिए सोचता है। मुझे लगा था कि छाती की जिस आवाज के लिए तूने लुकडया को उठाया था, वह आवाज आज भी तेरी छाती में गूँजती है।
मुझे लगा-- पहली बार किसी की हड्डी जुडी है। यहाँ धानबस्ती पर।
यह तो एक नई नदी है। नई समझ।
आज पहली बार सबने देखा धान का उपयोग।
सूओं के लिए, पिलूओं के लिए, घायलों के लिए।
अब किसी घायल साथी को जंगल से उठा लाना हो तो फेंगाडया को कोई नही रोकेगा।
मरण को आना हो.... वह आएगा। लेकिन अपनों के बीच।
अलाव की उष्मा का सहारा होगा मरण के समय।
अकेली बाई यह नही कर सकती।
उसके पास धान है। लेकिन उसे चाहिए बस्ती की ताकद।
उसे चाहिए फेंगाडया की ताकद। चाहिए फेंगाडया की छाती की जो दूसरे के लिए सोचती है।
मुझे दिखा तू। और तेरा यह मानुसपन।
तुझसे पहले भी यहाँ एक बापजी आया था।
फेंगाडया ने चमक कर देखा। बापजी?
हाँ, एक बार आया था यहाँ। वह भी तरुण था और मैं भी।
तेरा ही जैसा था। ऊँचा, भरापूरा, ताकदवर।
वह भी तेरा जैसा ही बोलता था।
कई कई बातें। मानुसपन की बातें।
बातों में कैसे समय बीतता, पता भी नही चलता। लेकिन वह भी भाग गया।
वे दिन ही भयानक थे।
उस ऋतु में धान उगा ही नही।
हर ओर केवल भूख और भूख।
मनुष्य से जानवर होने लगे थे लोग।
उन दिनों भैंसाडया नाम का आदमी बस्ती पर था।
भैंसे जैसा ही ताकदवर।
वह उन्मत्त हो गया। ताकद के जोर से वह सूओं का, पिलूओं का खाना छीनने लगा।
तब जो बाई थी यहाँ, उसने पायडया को इशारा किया। रात को उसे मार डाला-- सिर पर पत्थर मार कर।
उसके साथ एक और भी मारा गया... ताकि बस्ती में चर्चा न हो।
फिर....? फेंगाडया ने कौतुहल से पूछा।
बापजी भी तेरी तरह कहता था -- मानुसपन, मानुसपन, छाती की आवाज। कोरी बातें।
भैंसाडया मारा गया और बापजी थूका बाई पर-- मानुसपन का नाम लेकर।
फिर भाग गया बस्ती से। बाई चाहती तो पायडया उसे भी मार सकता था। उसे लगा, वह भाग रहा है, बाई को मालूम नही। लेकिन ऐसा नही था। बाई, मैं, पायडया, और आठ आदमी उसे देख रहे थे।
पायडया कह रहा था-- मारते हैं इसे भी।



लेकिन बाई ने मना किया।
फेंगाडया ने पूछा- क्यों मना किया?
यही अंतर है बाई में और बाकी लोगों में।
बाई पिलू जनकर भी जीवित बच जाती है। मरण के पास जाकर भी बच जाती है।
उसे पता है बस्ती के लिए जीने का अर्थ क्या है।
मानुसपन चाहिए टोली में-- सही है। लेकिन आदमी के, सू के जीवन का महत्व है। वे रहें तो आगे की बातें।
फेंगाडया की आँखों में चमक आ गई।
विचारों का अगला रास्ता उसे दीखने लगा।
बाई ने गर्दन हिलाई।
लगा था तू बापजी नही है-- उससे अगला बापजी है, लुकडया को, घायल को आधार देने वाला।
लेकिन नही ।
तुम सब एक ही जैसे हो। तुम, बापजी, भैंसाडया, लकुटया।
केवल अपनी सोचने वाले।
वही होना चाहिए जैसा तुम चाहोगे।
कहीं कुछ अलग हुआ, कुछ दुखभरा हुआ, तो सबकुछ बिखेर कर कहोगे-- मैं चला।
क्यों कि आदमी जी सकता है। बाघ की तरह, अकेला।
सू नही जी सकती, पिलू नही जी सकते।
इसी से आदमी भरमा जाता है। सू नही भरमाती।
तुझे जाना है....,चला जा...
फेंगाडया उसे देखता रह गया। उसकी आँखें शांत हो चलीं। वह हँसा।
बाई भी ढीली हो गई। उसने फेंगाडया का सिर सहलाया।
तेरा दुख मुझे पता है फेंगाडया।
जिसे अपने हाथों से बचाया, खिलाकर पोसा उस लुकडया का मरण, इस प्रकार।
उन्माद में भरे एक जानवर के हाथों....।
मुझे पता है क्या है यह मरण।
मेरे भी सारे पिलू नही बचे। कई मर गए। लेकिन जो मर गए, उनके जनमने के समय भी मैंने वेदना की वही लहर सही जो जगे हुए पिलूओं के लिए सही।
लेकिन यदि मैं उन मरे हुए पिलूओं का शोक करती रही तो जगे हुए पिलू किसके आधार पर रहेंगे?
पिलू सू के बिना नही जी सकते। उसकी थानों का दूध न हो तो भूखे मरेंगे। उन्हें सू चाहिए।
उसी तरह बस्ती को फेंगाडया चाहिए। नहीं?
वह झुकी। फेंगाडया का सिर अपनी गोद में लेकर बोली--
उठो। एक लुकडया गया..... मारा गया।
लेकिन उसके आक्रोश में डूबे रहने का समय नही है। अभी कई जीवित हैं..... उनकी चिन्ता करनी है। एकआँखी अब पिलू जनने वाली है। पंगुल्या है। इतर सू हैं। कोमल की पिलू है। सब हैं।
नरबली टोली एक बवण्डर बन कर आई है। मरण लेकर।
तू गया तो समझना यह बस्ती भी गई। यह बस्ती रही तो लुकडया की कहानी रहेगी। लोग एक दूसरे से कहेंगे।
अगले घायल उसी कहानी के कारण बचेंगे।
लेकिन तू भाग गया...........
यह बस्ती नही बची.............
तो अगला फेंगाडया कब जनमेगा?
अगली धानबस्ती कब बसेगी?
फेंगाडया को धानबस्ती कैसे मिलेगी?



अगला लुकडया कैसे जिएगा?
टूटी हुई हड्डी कैसे जुडेगी?
लुकडया फिर कैसे चलेगा?
नहीं फेंगाडया।
तू लुकडया को जिलाने के लिए गुफा का अकेलापन छोड़कर बस्ती में आया। वहाँसे नदी शुरू होती है।
बस्ती की ओर आती हुई मानुसपन की नदी रुकनी नही चाहिए।
तभी मानुसपन टिकेगा.....।
फेंगाडया को समझ मिली। मानुसपन की खरी समझ मिली।
इस बाई से मिली।
बापजी को नही थी यह समझ।
वह उठा।
बाई से लिपट कर उसके सिर को, केशों को चूमता रहा। रोता रहा। 
बाई उसे थपकी देती रही।
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