Tuesday, 6 December 2016

॥ ९३॥ लंबूटांगी और फेंगाडया ॥ ९३॥

॥ ९३॥ लंबूटांगी और फेंगाडया ॥ ९३॥

फेंगाडया अकेला बैठा था। नदी का प्रवाह जोरों पर था। इतना कि आँखों के सामने धुंध छा गई। मध्यरात्रि हो चली थी। फेंगाडया फिर भी जाग रहा था।
पीछे पैरों की आवाज आई। वह मुड़ा।
लंबूटांगी खड़ी थी।
तुम.....। उसने अस्फुट आवाज में पूछा।
लंबूटांगी आवेग से सामने आई। उसकी बाँहों में थरथराने लगी।
फिर उन्माद में उसे दूर ढकेलती हुई बोली--
तुम्हें पता है? पंगुल्या ने लुकडया की हड्डियाँ चुनी हैं।
गाडे हुए शव को उखाड़कर।
फेंगाडया ने साँस रोक रखी।
मैंने खुद देखा हे। वह चिल्लाई।
तू चल.... हम दोनों निकल चलेंगे।
यह बाई.... यह धान....सब शैतान हैं।
बापजी भी यही बताता था।
चल तू..... तू और मैं, भाग चलते हैं।
नही चाहिये हमें यह धान।
फेंगाडया ने गर्दन हिलाई। नही, ऊपर से भाग जाने का रास्ता बंद हो चुका है।
लंबूटांगी ने हाथ से उसे रोका।
ठीक है। तो फिर हम लोग उदेती के पर्वत की राह भाग चलेंगे।
तू क्यों यहाँ मरेगा? किसके लिये?

फेंगाडया आगे बढा।
लंबूटांगी के दोनों कंधे आश्र्वासक हाथों से दबाते हुए बोला-
हम जिएंगे। तू और मैं।
लंबूटांगी ने जोर से गर्दन हिलाई।
चांदवी और कोमल ने भरमा दिया है तुझे।
फेंगाडया हंसने लगा। उसे अपने पास खींच लिया। वह भी आवेग से उसके साथ चिपक गई।
तू ही भरमा गई है। फेंगाडया ने कहा।
नए पेड उगते हैं तो क्या इसी से पुराने मिट जाते हैं?
सच? लंबूटांगी ने अधीर होकर पूछा।
फेंगाडया ने आलिंगन को और भी दृढ किया।
हाँ री, सच। देखेगी तू।
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